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( ६७ ) लौटने वाला देव ठिठक कर रुक गया और विनम्र भावो से बोल उठा।
"जी । क्या आदेश है ।
"सेनापति से कहना कि अपने चक्ररत्न की सहायता से उस * 'गुफा के द्वार को खोल देना जो आज तक खुली ही नहीं ।
"क्या ? ? ? देव देखता ही रह गया।
"हां - और यह भी कहना कि मात्र द्वार ही खोलना है अदर नही जाना है। और तुम उसके साथ रहोगे। सारे पर्वत और रास्तो की जानकारी कराओगे।
"जैसी आज्ञा स्वामिन् । बार-बार शिर नवाता हुआ देव वहाँ से प्रस्थान कर गया।
उधर चक्रवर्ती अविलम्ब प्रतीक्षा कर रहा था। अपनी प्रतीक्षा की दृष्टि से चक्रवर्ती ने देखा कि विशाल भीमकाय देव अपनी दूत गति से चला आ रहा है। उसकी गति मे चचलता है, उत्साह है,
और प्रसन्नता है । अवश्य ही कोई विशेष सन्देशा लेकर आ रहा है। .. सेनापति सोच ही रहा था कि वह देव समक्ष प्राकर झुक गया ।
"अरे ! ।। सेनापति चकित रह गया। इतनी गरज करने वाला, इतना क्रोध करने वाला यह देव इतना नम्र कैसे हो गया। तभी देव ने अपनी नजरे उठाई और विनम्र भावो से बोला___"मैने भरत महाराज की दासता स्वीकार कर ली है। इसलिये
ही उनका सेवक तो आपका भी सेवक ही हूँ। है किन्तुः ... सेनापति कुछ कह रहे थे पर वीच मे देव बोल उठा---
"आप किसी भी उहापोह मे ना पडिए । यह वास्तविकता है। चलिये मैं आपको फ्ध दिखाता हू और एक महत्व पूर्ण ग " भी दिखाता हूँ जिसका हार आपको चक्ररत्न की सहा
विजया पर्वत का चप्पा