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( १७= )
"नेत्र खोलो बहिन !" afafe आकर एक नारी ने सुलोचना को सम्बोधा ।
अपरिचित किन्तु मोठी वाणी को सुनकर सुलोचना की भक्ति के तार झनझना उठे और उसने नेत्र खोले ???"
"कोन हो तुम "मैं ... जल देवी हूँ से इतनी प्रभावित हुई है कि करने को उद्यत हैं ।"
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"तुम्हारी पतिभक्ति की आराधना अपना सब कुछ तुम पर न्योछावर
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'नोह हे भगवान्
"तो क्या
क्या....."स्वामिन्
"हाँ शुभे। आपके पति गंगा पार हो चुके है । किनी दुष्ट मगर ने पूर्व वैर की कलुपता को दिखाने के लिए हाथी को खाना प्रारम्भ कर दिया था -- सचमुच ही वह मगर हाथो को मार देता और आपके पति का जीवन
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"नही । नही । ऐसा मत कहो "
"
"मैं ऐसा कभी नही कहूँगी बहिन तुम्हारी पवित्र आरावना ने उनका सकट टाल दिया है।
"
.....!!
יין
जयकुमार हाथी पर सवार हुआ हो वापिस आया और अपनी भुजा के महारे सुलोचना को पानी मे से उठाकर हाथी पर बिठा लिया | सुलोचना श्रपने पति से लिपटी जा रही थी।"
उमग
सगल कामनाओं के नाथ जयकुमार ने बड़े उत्साह, पीर मारी न्याय के साथ हस्तिनापुर मे प्रवेश किया। आनन्द ते सुलोचना के नाथ समय व्यतीत करने लगा । एक दिन
"नारी महान भरत ने स्मरण किया है "