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(१६) सतावतरण किया— पश्चात् ज्यो ही विध्याध्ययन का समय समाप्ति पर श्राए त्यो ही विशेष नियम जो लीए गए थे उनका परित्याग करे और साधारण व सदैव रहने वाले अरत्रतादि ग्रहण करे ।
(१७) वैवाहिकी क्रिया -- समयानुकूल एवं युवा होने पर ग्राहस्थ्यावस्था मे प्रवेश पाने के लिए सुन्दर दाम्पत्य बन्धन करना चाहिए | अर्थात् विवाह करना चाहिए। ताकि वंश परम्परा का जन्म हो सके और जीवन सफलतापूर्वक व्यतीत हो सके ।
(१८) वर्णलाभ क्रिया - विवाह पश्चाताकुल के दाग न लगे । जीवन दुखमय नबने, आचरण नष्ट न हो। इसके लिए सदैव धर्म का पालन करे। दोनो अपना-अपना कर्त्तव्य का पालन करे । इससे वर्गशुद्ध रहता है |
(१९) कुलचर्या -- विवाह पश्चात् ग्राहस्थ जीवन को निर्वाध चलाने के लिए व्यापारिक कार्य करे। कुल का भरण पोषण करे । श्राजीविका का उद्योग करे ।
(२०) गृहीशिता क्रिया -- दाम्पत्य जीवन को सफल बनाता हुआ वह अपनी गृहस्थी का स्वामी वने । धर्म, अर्थ और काम की नियम से चर्चा करे |
(२१) प्रशान्ति या परचात् अपने पुत्र को ( जो ग्रब तक जन्म लेकर युव हो गया होगा ) गृह भार सोप कर आप स्वयं शान्ति प्राप्त करने का प्रयास करे ।
(२२) गृहत्याग -- परिवारिक व परिग्रहिक ममता से छुटकारा पाकर एव पुत्र पुत्रियों को समान भाग देकर उन्हें शिक्षा यादि देकर सन्यास का सा जीवन धारण करे ।
(२३) वाद्य या अभ्यास एव बुद्धि पूर्वक एकान्त चिन्तन अनन के लिए सन्यास दीक्षा ग्रहरण करे ।