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( ५८ ) महा-मुनिराज आदिनाथ जगल से शहर की पोर पधारे। पाहार की मुद्रा धारण किये हुये आदिनाथ नीची दृष्टि किये हुये धीरे-धीरे चल रहे थे।
आदिनाथ महा-मुनिराज को यो देखकर नगर निवासी बहुत दुखी हुये । आपस मे ही कहने लगे
"हाय | इनको किसी ने वस्त्र भी नहीं दिये।"
"हाय-हाय । शिर के केश भी कितने रूखे और लम्बे हो गये हैं।" ___ "हाय-हाय । शरीर कितना सूखकर काटा हुआ जा रहा
__"ओह | जिस भगवान ने हमे जीविकोपार्जन करना सिखाया आज वे इतने दुखी है।" हाय ! हाय । इन्हे किसी ने खाने को भी नहीं दिया।" "ठहरो, ठहरो प्रभो ! मैं अभी खाना लाता हूँ।,' "रुको प्रभो । मैं अभी वस्त्र लाता है।"
"हा ! हा ! प्रभो, जरा वहा ही रुकिये " मैं अभी हीरेमोती लाता हूँ।"
आहार विधि से अनविज्ञ और भोले-भाले मानव धवरा उठे। कोई वस्त्र ला रहा है तो कोई फल-फूल । कोई मेवा मिष्टान ला रहा है तो कोई होरे-मोती । किसे ज्ञान था कि यह दिगम्बर मुनि हैं और इन्हे आहार नवधा भक्ति से दिया जाता है। ___ ज्ञान भी कैसे हो ? सृष्टि की नादि में यह प्रथम और आश्चर्यकारी दृश्य था। सब देख-देखकर दुखी हो रहे थे। कुछ तो भरत जी को भी कोस रहे थे।
"हाय | आप तो सम्राट बन गये और पिता जी वेचारे नगे ही फिर रहे है।"
"हाय ! हाय ! इन्हे महज खाने को, पहनने को भी नहीं