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आज चक्ररत्न की उपलब्धि के पश्चात प्रथम राजदरवार लगा हुना था । अनेको ने चक्ररत्न की उत्पत्ति सुनकर ही भरत की अाधीनता स्वीकार कर ली थी। आज वे भी राजदरवार में विराजे हुए थे । सेनापति एवं अन्य उच्चाधिकारियो ने चर्चा आगे बढाई
"आप बडे पुष्पशाली है स्वामिन " "कसे?"
"सर्वप्रथम तो आप भगवान प्रादिनाथ के पुत्र, और द्वितीयश्राप सो भाइयो मे ज्येष्ठ, तृतीय-योग्यता, श्रेष्ठता, सुन्दरता, वीरता आप मे भरी हुई है । चतुर्थ श्रापको प्रायुधशाला मे चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है।"
"ओह !. ......" "महाराज' एक निवेदन प्रस्तुत कर " "कहो । कहो । निडर होकर कहो !"
"आपको चक्ररत्न की उपलब्धि हुई तो इसका सद् उपयोग कीजिएगा।"
'पापका तात्पर्य क्या है ?"
"स्वामिन् । भूमण्डल पर आपकी विजय अब स्वाभाविमानी बन गई है। चक्ररत्न चाहता ही दिविजय है।"
"ग्रोह ॥
"प्रभो । हमारी यही आपसे विनम्र निवेदन है कि आप कल ही दिग्विजय पर चलने का आदेश दे दे। क्यो शुभ कार्य में देरी नहीं की जानी चाहिये।"
उक्त चर्चा पर भरत ने विशेष ध्यान दिया और निमित्त नैमि त्तिक विचारो ने भरत के हृदय में दिग्विजय का प्रलोभन उत्पन्न कर ही दिया । कल के प्रभात मे पूर्व दिशा की ओर प्रयाण करने का प्रादेश देते हुए राजदरबार का विसर्जन किया।
शरद ऋतु की स्वच्छ और शीतल मन्द पवन युक्त चान्दनी रात