Book Title: Anusandhan 2019 01 SrNo 76
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त,५२९) अनुसन्धान - ७६ श्री हेमचन्द्राचार्य प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि 131 कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि - अमदावाद January - 2019 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू(ठाणंगसुत्त,५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसन्धान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका सम्पादक: विजयशीलचन्द्रसूरि VVT. श्रीहेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद जान्युआरी- २०१९ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ७६ आद्य सम्पादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसूरि सम्पर्क : C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१ E-mail:s.samrat2005@gmail.com प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६६२२४६५ सरस्वती पुस्तक भण्डार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१ फोन : ०७९-२५३५६६९२ प्रति : २५० मूल्य : ₹ 150-00 मुद्रक : क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोनः ०७९-२७४९४३९३) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन बे शब्दो छ : सम्पादन अने संशोधन. बन्ने शब्दो द्वारा जे क्रियाओ सूचवाय छे ते परस्परनी पूरक क्रियाओ छे. संशोधन अने सम्पादन, बन्ने साथे चालनारी प्रक्रियाओ छे. एक विना बीजी, मोटा भागे, नथी सम्भवती. जो के अक वात अहीं ज स्पष्ट करवी जोई : 'सम्पादन'मां 'संशोधन' न होय तेवू शक्य छे; परन्तु 'संशोधन'मां 'सम्पादन' न होय ते शक्य नथी. दा.त. ओक सर्जके नवी रचना करी : ते वार्ता होय, काव्य होय अथवा निबन्ध पण होय; कोई पण साहित्य-प्रकार होई शके. ते सर्जक पोताना ते नवसर्जनने कोई वरिष्ठ साहित्यकार पासे, सुधराववानी दृष्टि लई जशे, अथवा तो कोई सामयिकना तन्त्री/सम्पादक समक्ष रजू करशे, त्यारे ते बधा तेनी ते कृतिने पोतानी रीते सुधारशे, कापकूप करशे, मठारशे, जेथी कृतिनो अनावश्यक . 'मेद' टळी जाय अने आवश्यक तत्त्वो उमेराय. आ क्रिया आपणे त्यां 'सम्पादन' तरीके जाणीती छे. आमां 'संशोधन'नो प्रवेश शक्य नथी; हा, कृतिने सुधारी तेने 'संशोधन', नाम, आप होय तो, आपी शकाय खरं. परन्तु मे भाग्ये ज त्यां बंधबेसतुं थाय. 'संशोधन' बे प्रकारे होय छे : ओक 'शोध', बीजुं 'संशोधन'. कोई अप्रकट - अप्राप्य - दुर्लभ कृति शोधवी ते 'शोध'; कोई पुरातात्त्विक उत्खनन आदि द्वारा नवां औतिहासिक तत्त्वो के पदार्थो खोळी काढवा ते 'शोध'. तो कोइ कृतिनुं पाठ-सम्पादन करवं, तेना पाठान्तरो लेवा-शोधवा अने तेमां मूळ तत्त्वनी के साचा अर्थनी निकट जता पाठोने स्वीकारवा तेमज ते सिवायना पाठोने टिप्पणी आदिरूपे नोंधवा - आ बधुं छे 'संशोधन'. कोइओ ओक अर्थ अथवा पाठ निश्चित को होय; कोई बाबत विषे कोईक चोक्कस धारणाओ बांधी आपी होय; पोतानी समक्ष उपस्थित आधार-प्रमाणोना सहारे, पोतानी मति-अनुसार, कोई मुद्दा विषे, कृति के तेना पाठ विषे - अर्थघटन विषे, इतिहासना कोईक बनाव विषे, तारण-निरीक्षण-निष्कर्षो आप्यां होय; ते बधां परत्वे, उपलब्ध Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवांनवां प्रमाणोना आधारे, प्राप्त थयेलां-थतां नूतन सन्दर्भोना आधारे, पुनः विचार करवो, पुनः नवा अर्थनो, पाठनो निर्धार करवो, नवा निष्कर्षो आपवा, तेनुं नाम 'संशोधन'. आ संशोधन, जो ते कोई कृति विषे होय तो, सम्पादन पण गणाशे. केम के आमां पण, कृतिमां के हस्तप्रतिमा प्रवेशेला खोटा के भ्रष्ट-भूल भरेला पाठोने दूर करवा (लिप्यन्तर वेळाओ), अने भूलोने पकडीने तेना निवारण माटे नानामोटा कौंस, प्रश्नचिह्नो वगेरे प्रयोजवां, ओ खरुं जोतां सम्पादन ज गणाय, गणाएं जोइओ. अलबत्त, आ सम्पादन संशोधनाभिमुख होय, पेली नवसर्जित कृतिना सम्पादननी जेम सर्जनाभिमुख नहि होय, अटलुं स्पष्ट थई जर्बु घटे. जो के संशोधन पण क्यारेक सर्जननी कक्षानुं बनी शके अवश्य; निपुण संशोधकनी सर्जक-प्रतिभामां आ प्रकारचं कौवत होय ज, अम कही शकाय. आवा संशोधक अने तेमनुं आ प्रकार, संशोधन सांपडे त्यारे विद्याजगतमां अने शोधजगतमां ओक आनन्दनो अभिनिवेश प्रसरतो होय छे. अस्तु. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका सम्पादन समस्यामय पार्श्वनाथ स्तोत्र - सं. उपा. भुवनचन्द्र १ श्रीविजय[सेन]सूरीन्द्रस्वाध्यायः (सटीकः) - सं. गणि सुयशचन्द्रविजय __मुनि सुजसचन्द्रविजय प्रकीर्ण स्तोत्रादि - सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय १५ स्तम्भतीर्थसत्क राजीआ-वाजीआ श्रावकनां सुकृतोतुं वर्णन करती भाषा-रचना (अपूर्ण) – सं. गणि सुयशचन्द्रविजय ३८ मुनि सुजसचन्द्रविजय श्रीविबुधविमलसूरि-कृत पूजाकाव्यो -सं. शी. ५१ बालचन्दमुनि-कृत शीखामणबत्रीशीछन्द -सं. साध्वी समयप्रज्ञाश्री गूढा-प्रहेलिका-समस्या-हरियाली - ४ -सं. उपा. भुवनचन्द ६३ गूढा-प्रहेलिका-समस्या-प्रहेलिका-हरियाली - ५ - सं. उपा. भुवनचन्द्र हरियाली - सं. उपा. भुवनचन्द बेबारमासाओ - सं. रसीला कडीआ ___ ८९ अंजनासुन्दरी पवनंजय रास (खण्ड-२) -सं.अनिला दलाल ९७ श्रीविजयभद्रमुनि-रचित कमलावती रास -सं. डिम्पल नीरव शाह ११५ स्वाध्याय चतुर्थ देवलोक के देवों से तृतीय देवलोक के देवों के अल्पबहुत्व सम्बन्धी स्पष्टता - आचार्यश्री रामलालजी म. १२१ विहंगावलोकन - उपा. भुवनचन्द्र १३२ ___ ५३ प्रकीर्ण अनुसन्धान - ७५(२) सुकडि ओरसिया संवादनी शुद्धि १४५ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवरणचित्र-परिचय आ एक दुर्लभ चित्र छे. २०मी सदीमां आलेखायेला एक कल्पसूत्रनी प्रतिनुं आ चित्र, कलामर्मज्ञ विद्वान् मुनिराज श्रीधुरन्धरविजयजी द्वारा प्राप्त थयु छे. राजपूत पेइन्टिंगना नामे जाणीती राजस्थानी कलाशैलीनुं आ चित्र छे. तीर्थङ्कर अथवा कोई पुरुष दीक्षा लेवा प्रस्थान करे तेनुं, तथा ते केशलोच करे तेनुं चित्र तो अनेक प्रतोमा जोवा मळे; कल्पसूत्रमा तो खास. परन्तु एक स्त्रीनी दीक्षायात्रा तथा लुञ्चनक्रियाने चित्राङ्कित करतुं आ एक विलक्षण तथा अजोड चित्र छे. असल राजपूताणीने माटे होय ते प्रकारनी पालखी, तेमां बेठेली (दीक्षोत्सुक) स्त्री; तेनां वस्त्रो अलंकृत छतां श्वेतप्राय छे. ते पालखीने २ आगळ तथा २ पाछळ एम ४ स्त्रीओए उपाडी छे. पाछळ चालती ३ स्त्री तथा आगळ चालतां ४ पुरुषो, दीक्षाना वरघोडा- स्वरूप रचे छे. ते बधांनां वस्त्रपरिधान अलंकृत अने रंगरंगीन छे ते, तेम ज साचुकला जणातां वृक्षो, वादळां वगेरे राजपूत शैलीनां विशिष्ट ओळखचिह्नो छे. वृक्ष तळे ओटला पर श्वेत, स्त्रीजनोचित वस्त्रो परिधान करेल स्त्री पोताना केशनो लोच करे छे, ते एक विशिष्ट दृश्य छे. कल्पसूत्रना जे पत्रमा आ चित्र छे तेमां लखायेलो पाठ उकेलीए तो ते भगवान आदिनाथनी दीक्षानुं वर्णन करतो पाठ छे. ए पत्रमा एक स्त्रीनी दीक्षानुं चित्र होवू ते खरेखर विलक्षण लागे छे. आवरण ४ पर आ चित्र अने तेना ज अंश आवरण १ पर मूकवामां आव्या छे. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादन समस्यामय पार्श्वनाथ स्तोत्र - सं. उपा. भुवनचन्द्र राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान - जोधपुरनी हस्तप्रत (क्र. २११९८) मांथी सम्पादित करीने आ स्तोत्र अहीं रजू कर्यु छे. पत्रोनी किनारीओ त्रुटित छे तेथी टीकाना केटलाक अक्षरो गया छे. मूळ स्तोत्र सुरक्षित छे. प्रति पञ्चपाठी छे. कर्तातथा टीकाकार- नाम प्रतिमां नथी. लिपिकार मुनिवरे पोतानी पट्टावली आपी छे. सम्भवतः ए ज परम्पराना विद्वान मुनिनी के आचार्यनी आ रचना होई शके. स्तोत्रनी विशेषता ए छे के दरेक श्लोकमां कोई ने कोई प्रसिद्ध श्लोकएक चरण जोड्युं छे. मोटा भागे जाणीती समस्यापूर्ति-पादपूर्तिनी ज पंक्तिओ वापरी छे. आम, आ स्तोत्र समस्यापूर्तिरूप रचना छे. जुदा ज सन्दर्भ अने विचित्र कल्पनावाळी पंक्तिओने समाववा माटे कविए कल्पनाने छूटो दोर आप्यो छे. स्तोत्रमा कर्तानी विद्वत्ता तथा साहित्यप्रेम उपसी आवे छे. __ स्तोत्र प्रभुभक्तिनुं माध्यम तो छ ज, साथे साथे विद्वान मुनि-कविओ माटे विद्याव्यासंग तथा साहित्यविनोदनुं के साहित्यशिक्षा, अनुकूळ साधन बनी रहेतुं हतुं. आ स्तोत्र ए प्रकारचं छे. श्रीपार्श्वनाथं तमहं स्तवीमि, त्रैलोक्यलोकम्पृणधामधाम । सामोदमुद्भासियदीयकीर्ति-रामामुखं चुम्बति कार्तिकेयः ॥१॥ टी० तं पावं, अहं स्तवीमि - स्तोष्ये । -- किं ? कार्तिकेयः कुमारः, यदीयकीर्तिरामामुखं - यस्य श्रीपार्श्वनाथस्येयं, यदीयकीतिरेव रामा - श्रीः, तस्याः मुखं चुम्बति - कीर्तिस्तवनं करोतीत्यर्थः । किम्भूतं मुखं? त्रैलोक्यलोकम्पृणधामधाम - त्रिजगल्लोकाना[मा]नन्दकरतेजोगृहम् । पुनः, समोदं - सहर्ष, पुनः उद्भासि - देदीप्यमानं । तैरश्चयोगेन विवेकसेक-मुक्तास्ति या सापि जिनावतंस! । विलोकिते कान्तिकलत्वदास्य-चन्द्रोदये नृत्यति चक्रवाकी ॥२॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ टी० या चक्रवाकी तैरश्चयोगेन - तिर्यग्भावेन, विवेकसेकमुक्ता - हेयोपादेन(य)ज्ञानयोगरहिता विद्यते । सापि चक्रवाकी, भो जिन[वतंस] - जिनशिरोमणे, कान्तिकलत्वदास्यचन्द्रोदये - दी[प्ति]कलासहितत्वदास्यचन्द्रोदये विलोक्य(कि)ते - दृष्टे सति, नृत्यति - नृत्यं करोति, किं पुनः सचेतन इति भावः । पुरः प्रकीर्णानि कपोलपाली-तले तवाच्छे प्रतिबिम्बितानि । निभाल्य संदिग्धि बुधो जनः किं चन्द्रस्य मध्ये कदलीफलानि ॥३॥ टी० हे पार्श्वनाथ, तव पुरः - अग्रे, प्रकीर्णानि पूजार्थं धृतानि कदलीफलानि, तवैव अच्छे - निर्मले कपोलपालीतले - भालदेशपृष्ठे, प्रतिबिम्बितानि - आदर्शवत् --- गतानि, निभाल्य बुधः - पण्डितो जनः संदिग्धे संशयो (?) शङ्कां करोति किं चन्द्रस्य०, कपोलमध्ये(ध्यस्य?) चन्द्रोपमत्वात् । यो निर्जितैः पञ्चशरेण चक्रे कण्ठे कुठारः कमठे ठकारः । अकीर्तिनाट्यस्य च वाद्य( दि)तोऽलं साम्यं क्व तेषां द्युसदां त्वयास्तु ॥४॥ टी० पञ्चशरेण कामेन निर्जितैः - वशीकृतैर्देवैः कण्ठे कुठारश्चक्रे - कृतः। --अकीर्तिनाट्यस्य - अयशोनृत्यस्य अलं अर्थे वादितः - वादनायोपक्रान्तः । ठकार - ठ इति शब्दो । कमठे पात---पे चक्रे कृतः । पाताले येषां अपकीर्तिर्जाता, तेषां --- त्वया - भवता सह क्व साम्यं - सादृश्यम् ? अस्तु - भवतु । -- कोऽपीत्यर्थः ।। अभव्यदौर्भव्यतयाऽङ्गभाजां येषां त्वदास्ये सुभगेऽपि दृष्टे । सन्तापसम्पत्तिरुदैति तेषां अयं शशी वह्निकणान् प्रसूते ॥५॥ टी० येषां अङ्गभाजां - प्राणिनां, सुभगे - सुन्दरे, त्वदास्ये - त्वन्मुखे, दृष्टे - विलोकितेऽपि, -- अभव्यदौर्भव्यत्वेन च(?) सन्तापसम्पत्ति - १ःखपरम्परा, उदेति - प्रकटीभवति, तेषां प्राणिनां, अयं शशी - चन्द्रः, वह्निकणान् प्रसूते - जनयति । त्वद्दानलीलादलितप्रतापे देव! धुकुम्भस्तव शक्तिमाप्तुं । भृगोः पतन्नादमिमं तनोति ठंठं ठठंठं ठठठं ठठंठः ॥६॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ टी० त्वद्दानलीलादलितप्रतापो - भवतः त्यागक्रीडानिर्जितसौभाग्यः, देव! धुकुम्भः - कामघटः, तव शक्ति - प्रभावं आप्तुं भृगोः - पर्वतशिखरात्, पतन् - अधो गच्छन् सन् ठंठमिति नादं - शब्दं करोतीत्यर्थः । जनिमहे जिन! ते सवनोदकैः प्रसृमरैरमरेश्वरभूधरे । विदलितेषु नगेषु किलाभवन्नुपरि मौलमधस्तरुपल्लवाः ॥७॥ टी० हे जिन! ते - तव, जनिमहे - जन्मोत्सवे अमरेश्वरभूधरे - सुमेरुपर्वते, प्रसृमरैः - विस्तृतैः, नदीप्रवाहभूतैः सवनोदकैः - स्नात्रजलैः, विदलितेषु ------ नगेषु - वृक्षेषु, उपरि मूलं अभवत्, अधः तरुपल्लवा अभवन् - बभूव(वुः) । रसना स्तवने नयनं वदने श्रवणं वचने [च] करा( रो) महने । तव देव! विशां कृतिनां सततं रमते रमते रमते रमते ॥८॥ टी० भो देव! कृतिनां - पुण्यवतां, विशां - नराणां, रसना - जिह्वा, तव स्तवने - स्तोत्रे, रमते । नयनं तव वदने - मुखे रमते । श्रवणं वचने रमते । करो - हस्तो, तव महने - पूजायां, सततं नित्यं, रमते - रतिं - प्रीति करोतीत्यर्थः । नयनादौ जातावेकवचनं । सततमिति सर्वत्र योज्यम् । विश्वैकनायक! कला नहि या त्वदर्हा. कार्ये न या च कविता भवतः स्तवाय । लग्नो न यस्तु विभवो विभवश्च सा किं, सा किं स किं स किमिति प्रवदन्ति धीराः ॥९॥ टी० भो विश्वकनायक ----- निश्चितं, या कला त्वदर्हाकार्ये - तव पूजाकर्मणि, न भवति, सा कि कला - निपुणता? अपितु न । या च कविता ------ स्तवाय - स्तोत्राय न भवति, सा किं कविता? यो भवो - जन्म, त्वयि न लग्नः, स किं भवः ? जन्म निरर्थकं इत्यर्थः । यो वि ----- त्वयि न लग्न--- र्थमिति धीराः पण्डिता प्रवदन्ति । अहीशोऽधस्तात्त्वामुपनमति जेतुं दितिसुतं समादाय क्रोधान्मणिमधुपकान्तं किल धनुः । अधोऽधो मैनाकं चरति जगतीनाथ समभूद् धनुःकोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः ॥१०॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ टी० --- उपनमति - नमस्कुर्वाणो दितिसुतं - दानवं, जेतुं - पराभवितुं, क्रोधान्मणिमधुपकान्तं - माणिक्यभ्रममनोहरं, धनुः - चापं, समादाय - गृहीत्वा, मैनाकं - समुद्रगतपर्वतं, अधोऽध: मैनाकस्य अधोभागे चरति ग-- सति धनुःकोटौ भृङ्गो - भ्रमरः, समभूत्, तदुपरि गिरिः मैनाकः समभूत् । जगच्चक्रं चक्रे चरणपरिचर्यैकरुचिनामुना त्वद्दासेन स्वमनसि समन्तान्निगमनम् । त्वदन्यो देवस्त्वां तुलयतु विभो! चेद् भुवि भवेत् धनुःकोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः ॥११॥ ___टी० भो विभो! तव चरणपरिचर्यैकरुचिना - पादपूजामुख्यप्रीतित्वात्, त्वदासेन - भवत्सेवकेन, अमुना - मल्लक्षणेन जनेन, स्वमनसि जगच्चक्रं - संसारचक्रं, निगमनं - गमननिर्णयं चक्रे । अन्यो देवः यदि त्वां तुलयति - समीकरोति, चेद् - यदि । धनुःकोटौ भृङ्गो भवेत्, तदुपरि गिरिभवेत् । यथा एवं अपूर्वं भवेत् तथा अन्ये देवाः त्वत्समाना भवेयुरित्यर्थः । प्रीतां रूपवती सतीं जिनपतेऽहँल्लक्ष्मिलीलावतीं हित्वा रूपरसोज्झितां रमयसे यन्मुक्तिसीमन्तिनीम् । तन्नूनं भवतापि तीर्थपतिना न्वेतत् स्फुटं निर्ममे युक्तायुक्तविचारणा यदि भवेत् स्नेहाय दत्तं जलम् ॥१२॥ टी० भो अर्हन्! प्रीतां - प्रीतियुक्तां, रूपवती, लक्ष्मिलीलासहितां, -- - मिनीं हित्वा - त्यक्त्वा, रूपरसोज्झितां - सौन्दर्यशृङ्गाररसरहितां, मुक्तिसीमन्तिनी, यद्यस्मात् कारणात्, रमयसे - तया सह प्रीतिं बध्नासि, तस्मात् कारणात्, नूनं - निश्चितं, तु - पुनः, तीर्थपतिना - तीर्थराजेनापि भवता, इदं स्फुटं निर्मि(म)मे । एतदिति किं ? यदि युक्तायुक्तविचारणा - योग्यायोग्यविचारणा भवेत् तर्हि स्नेहाय दत्तं जलं, गत इत्यर्थः । इत्थं योगीन्द्रचेतःकमलकमलभूमुक्तिकासारहंसः कल्याणाङ्करकन्दः सममहिमरमामञ्जरीवल्लरीश्रीः । मन्त्रद्रून्मेषबीजं भुवनजनमनोल्लासलीलावसन्तः श्रीपार्श्वः स्यात् समस्यास्तवकुसुमकृताभ्यर्चनोऽभीष्टलब्ध्यै ॥१३॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ टी० श्री पार्श्वनाथः, आराधकानां भवतां, अभीष्टलब्ध्यै भवतु । किम्भूतः? इत्थं - पूर्वोक्तरीत्या, समस्यास्तव एव कुसुमानि, तैः कृताभ्यर्चनः । पुनः किं? योगिनः - रत्नत्रयधारिणः, ते एव इन्द्राः - श्रेष्ठाः पञ्चज्ञानधराः, तेषां चित्तं - हृदयं, तदेव पद्म, तद्भः - कमलभू - ब्रह्मा, तत्र ----क्षात् मुक्तिः , सैव कासारः - सरः, तस्य हंसः । कल्याणानि अङ्कराः - प्ररोहाः, तेषां कन्दः -- । समे - समवाये, यो महिमा - माहात्म्यं - प्रभावः, तस्य रमा--- मञ्जरी---वल्लरी - लता, तस्याः श्रीरिव श्रीर्यस्य सः, पुनः पञ्चनमस्काररूपः स एव द्रुः - वृक्षः, तस्य उन्मेषः अङ्करः, तस्य बीजमिव बीजं--- स एव च नानि(?) तेषां समुल्लासक इत्यर्थः । __इति श्रीपार्श्वनाथस्तवनं समस्यामयं समाप्तम् । लिखितं श्रीवाटाग्राममध्ये । संवत् १६५४ वर्षे । भाद्रवा वदि २ दिने लि० । यादृशं० । श्रीश्रीश्री खरतरगच्छे श्रीजिनभद्रसूरिसन्ताने शिष्यश्री वा० श्रीसमयध्वजगणि-शिष्य वा० श्रीज्ञानमन्दिरगणि-शिष्यमुख श्रीश्रीश्री वा० गुणशेखरगणि-शिष्य पंडितप्रवर श्रीसमयरंगगणिशिष्य पं० शक्तिसुन्दर-शक्तिकल्लोलेन ले० । C/o. जैन देरासर नानी खाखर-३७०४३५ जि. कच्छ, गुजरात * * * Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ श्रीविजय सेन सूरीब्दस्वाध्यायः (सटीक:) - सं. गणि सुयशचन्द्रविजय मुनि सुजसचन्द्रविजय सज्झायसंज्ञक कृतिओ घणुं करी गुर्जर भाषामां रचाती पद्यरचना छे. महापुरुषोना जीवननी घटनाओमाथी बोध पामवाना के तत्त्वज्ञानने सरळताथी समजाववाना उद्देशथी आवी कृतिओनी रचना कराय छे. वळी दैनिक प्रतिक्रमण क्रियाना अवसरे पण आवी कृतिओनुं करातुं गान-श्रवण भाविकोना हृदयमां प्रभुना उपदेशोने वधु ने वधु स्थिर करे छे. प्रस्तुत कृति पण सज्झायसंज्ञक रचना छे. कविए कृतिनुं नाम 'विजयसेनसूरिस्वाध्याय' एवं आपेलुं होवा छतांय कविए काव्यमा विजयसेनसूरिजीना जीवननी नानी-मोटी कोईपण घटनानो समावेश को नथी. ऊलटुं हरियाळीनी जेम कोई अज्ञात नारीना स्वरूपनुं वर्णन समजावी तेमणे गुप्त रहेला ते नारीना नामनी शोध करवानुं आह्वान आप्युं छे. अने काव्यान्तमां ए स्त्रीनो त्याग करनारा साधुपुरुषोमां श्रेष्ठ एवा विजयसेनसूरिजी- नाम जपतां थता 'कमलविजय'ना श्लेषथी स्वनामनो उल्लेख पण कविए कर्यो छे. कृतिगत नारीस्वरूप वर्णन ___कृतिकारना कहेवा मुजब ते नारीने ४ पति, ३ पुत्र, १६ पौत्रो छे. वळी वस्त्ररहित रहेवा छतां ते कुळवंती छे, तो परणेली होवा छतांय सासू-ससरा वगरनी छे. माता-पिता वगरनी तेणीने भाई-भोजाई नथी, तो जन्मरहित होवा छतां तेणी जरा वगरनी अने सारा तथा नरसा ए बन्नेय रूपवाळी छे. चारे वरने वहाली तेणी तेओना खोळामां ज रहेली होवा छतांय गाम, नगर, समुद्रादि कोईपण जग्याएथी तेणीनी प्राप्ति थाय छे. तेणीनो भोक्ता चोक्खो छे तो मेलो पण छे. चारे पति वडे वीटळायेली तेणी सेंकडो वार घणा जारपुरुषो वडे भोगवाया छतां कुलीन एवी तेणी हजारो पुरुषो वडे इच्छाय छे. कदाच कोई विरल पुरुष तेने पामे तो ते पुरुष भवसमुद्रमां डूबे छे. ऊलटुं तेणीनो त्याग करनार पुरुष ज मोक्षसुखनो भोक्ता थाय ___ हवे जो कोई व्यक्ति आपणी पासेथी आ हरियाळीनो उत्तर मांगे तो चोक्कस माथु खंजवाळवानो वखत आवे ज, तेवू न बने ते माटे ज कृतिकारे पोते आपणा उपर उपकार करी गुर्जर भाषामां रचायेला ते दरेके दरेक पद्य उपर संस्कृतमां Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ टीका रची छे. गुर्जर काव्य पर रचाएली आ संस्कृत टीकाने कारणे ज प्रस्तुत कृति साहित्यनी दृष्टिए एक महत्त्वपूर्ण रचना छे.. __ कृतिकार - प्रस्तुत काव्यना तेम ज टीकाना कर्ता कमलंविजयजी विजयदानसूरिजीनी परम्पराना साधु छे. विजयदानसूरिजीए खम्भातना श्रेष्ठी कर्माशाहने सं. १६११मां दिक्षा आपी विजयहीरसूरीश्वरजीना शिष्य नामे कमलविजयजी कर्या. सेनप्रश्न ग्रन्थमां पण कमलविजयजीना नामनो उल्लेख मळे छे. वळी तेमनी परम्परामां सत्यविजय, धनविजय जेवां नामो जोवा मळे छे. कृतिनी पाकट रचनाशैली जोता तेमणे अन्य ग्रन्थनी पण रचना करी होय तेवू अनुमान थाय छे.. प्रान्ते सम्पादनार्थे प्रस्तुत कृतिनी २ हस्तप्रतोनी Xerox आपवा बदल श्रीहेमचन्द्राचार्य ज्ञानमन्दिर (पाटण)ना व्यवस्थापकश्री यतिनभाई आदिनो खूब आभार. खास बन्ने हस्तप्रतोमा सामान्य लेखनदोष सिवायना विशेष पाठान्तरो न होवाथी अमे तेनुं आलेखन कर्यु नथी ते वाचको ध्यानमां ले. ऐन्द्रचन्द्रप्रभालिप्तं, यशोज्योतिश्च शाम्भवम् । एकान्तमप्यनेकान्तं, जयति व्याप्तविष्टपम् ॥१॥ स्वाध्यायरूपस्वोपज्ञ-गूढार्थस्य वितन्यते । आविर्भावनमाप्तोक्ति-सम्मतार्थानुयोगतः ॥२॥ इह हि वस्तुद्वैविध्यं जगत्सम्मतं सर्वदा व्यवहरति । यथा सूर्याचन्द्रमसौ, प्रकाशान्धकारौ, दिवसनिशे, लोकालोको, सुखदुःखे, सज्जनदुर्जनौ, मिष्टक्षारे, सुरूपकुरूपौ, इष्टानिष्टे, तथा सम्यक्त्वमिथ्यात्वे । तत्र सम्यक्त्ववासिन(त)चेतसां सद्वस्तुन्यादरः संगच्छते, परं नाऽसद्वस्तुनि । तेन कृतपातकपरित्यागाः सम्प्राप्तसंवेगरङ्गत(त्त)रङ्गाः शुद्धसिद्धान्तसुधारसधौतधियः सूरयः सकलभव्यलोकभावनीया भवन्ति, त एव स्तुत्याः । अत एव श्रीविजयसेनसूरीणां परित्यक्तपरिग्रहाणां निःस्पृहशिरोमणीनां जगदहणीयानामयं स्वाध्यायः । तद्यथा - सुगुण सुलक्षण सुंदरी रे, नारी एक उदार, तस सरूप चिति चिंतवो रे, आगमनई अनुसारि १ आगमनइं अणु(नुसारि सुहृज्जन, कहिइं अर्थविचार सुहृज्जन, अवधि कह्यो दिन च्यार सुहृज्जन, अथवा मास बि च्यार सुहृज्जन, Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ कई संवत्सर बार सुहज्जन, कई वलि वरस अढार सुहज्जन, कहिइं अर्थ.... २ (ए आंकणी) सुगुण सुलक्षणेत्यादि । अस्यार्थलेशो यथा - अत्र भूरूहभूधराद्यशेषविशेषपदार्थाऽऽधारभूतायाः सामान्यतः पृथिव्याः स्त्रीत्वेन भाविताया अपि रत्नप्रभाया-स्तिर्यग्लोकोपयोगिन्याः सङ्ग्रहः । तत्र चैका नारी वस्तुतो रत्नप्रभेति गोत्रवती, घर्मेति नाम्नी । तस्याः स्वरूपं चेतसि चिन्तयत । 'सुहृज्जनाः' इत्यध्याहारः । शेषं सुगमम् । नवरम्, सुगुणा - नैयायिकादीनां मते 'गन्धवती पृथिवी' [तर्कसंग्रहः] इति पृथिव्या लक्षणेन चतुर्दशगुणोपेता, जैनानां मतेऽपि सकलशस्याद्युत्पत्ति-निमित्तभूतत्वेन सुगुणा । सुलक्षणा - विविधलक्षणलक्षितत्वेनेति । सुन्दरीति स्त्रीनामनिर्देशाद् गुणवन्नामेत्यर्थः । परमागमश्रीभगवतीप्रज्ञापना-जीवाभिगमोपाङ्गा-द्यनुसारेणेति गाथाद्वयार्थः ॥१,२॥ नयण नाक दीसइं नहीं रे, नहि पिण कर्णाकार, वदन-विहूणी घुरघुरई रे, सूचई अशुभ विकार ३ . नयने(णे)ति । अस्या एकेन्द्रियत्वेन शरीरशेषाया नयननक्रे न दृश्येते, नापि कर्णाकारः । वदनादिविशेषावयववर्जितत्वेन विना वदनं घुघुरारवं तन्वाना सूचयत्यशुभविकृतिम् । यदि कदाऽप्युपद्रवसूचको भूकम्पादिर्भवेत् तदा ह्यव्यक्तशब्दाविर्भावः स्यात्, यद्वा दैत्यादीनां मिथो युद्धे जायमाने पाददर्दरादिनाऽप्यकाण्डताण्डशब्दस्योत्थानादिति ॥३॥ कर-चरणादि न देखिइं रे, भक्खइं भक्ख अभक्ख, हीडई नहि हालइ नही रे, जाई जोयण लक्ख ४ कर-चरणेति । पञ्चेन्द्रियप्रायोग्यावयवशून्यत्वात् । तथा भक्ष्यं - धान्यबीजादि, अभक्ष्यं - मृतकलेवरादि, यद्वा प्रज्ञापनासत्काहारपदोक्तं पृथिव्या जीवाहारस्वरूपम्, तत्र भक्ष्याभक्ष्यस्वरूपस्य प्रकटत्वादिति । तथा स्थिरत्वेन स्थानाद् न चलति, परं योजनलक्षाणि याति - प्राप्नोतीत्यर्थः । किञ्च रज्जुमिततिर्यविस्ताराद्, योजनासङ्ख्येयलक्षप्रमाणत्वादपि ॥४॥ राति दिवस बइंठी रहई रे, थूल शरीर अपार, माथई भार घणो वहई रे, पोतइं पणि घणु भार ५ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ or राति दिवसेति । सुगमम् । नवरं, स्थूलं शरीरं लक्षमेकमशीतिसहस्रोत्तरं योजनानां बाहल्यतः, परं शिरसि भूयान् भारस्तु प्रत्यक्षतः । स्वतोऽपि भूरिभारवतीति ॥५॥ देखीती दीसइं नहीं रे, आहरई नीहारि, ऊपाडी नवि ऊपडई रे, सउ वरसे सा नारि ६ देखीतीत्यादि । सा च महीमहेला आहरन्ती, नीहारं कुर्वाणापि न दृश्यते - चर्मचक्षुषा नोपलभ्यते । यत एकेन्द्रियाणामपि स्वस्वप्रायोग्याहारसद्भावाद्, आहारवतश्च प्रायो नीहारक्रियानिष्ठत्वात् तत्तदुचितपुद्गलोद्वमनादिति । तथा स्थिरा - शाश्वतस्वाभाव्यादुत्पाटनाशक्या, वर्षाणां शतैः सहस्रैर्लक्षैः कोटिभिरिति ॥६॥ तीन पुरुष साथिं मिल्यो रे, जाति नपुंसक एक, तेणे च्यारे जणे वरी रे, सा नारी सुविवेक ७ तीन पुरुषेति । सा क्षमारामा चतुर्भिर्घनोदधि-घनवात-तनुवातैः पुंलिङ्गत्वोच्चार्यमाणत्वात् पुरुषैः, एकेन नपुंसकलिङ्गदेश्याऽऽकाशरूपनपुंसकेन सहितैर्वृता - वलयाकारोपपन्नघनोदध्यादिभिर्वेष्टितेति ॥७॥ तीन पुत्र तेणिं जण्या रे, तउ हुई बालकुंआरि, बहु संसारी जीवडा रे, वरतइं तस आधारि ८ तीन पुत्रेत्यादि । तया च तादृग्वरवृतत्वेन सप्रसूत्या भवितव्यम् । तदतस्तया त्रयो नन्दना जनिताः । कथमिति चेत् ? अस्यां रत्नप्रभायां त्रैविध्यं प्रज्ञप्तम् । यथा - खरकाण्डम्, १ पङ्कबहुलकाण्डम्, २ अप्बहुलकाण्डम् ३ इति त्रिभेदकल्पनया चैतानि त्रीण्यपि पुत्रत्वेन प्रज्ञप्तानि । तथापि बालेव बाला सर्वकालं नवीनेव, अत एव कुमारी । लोकेऽपि 'कुंआरी माटी'ति रूढिः । तथा बहवः संसारिणो जीवा एकेन्द्रियादयः पञ्चेन्द्रियपर्यन्तास्तस्या एवाऽऽधारेण वर्तन्त इति ॥८ जेणे च्यारे जणे वरी रे, सा नारी बहु रूप, ते च्यारइंनुं सांभलो रे, विगति सयल सरूप ९ जेणे च्यारेत्यादि । सुगमम् । नवरं, बहुरूपत्वं हि पृथक् पृथक् Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अनुसन्धान-७६ काण्डरूपस्वरूपत्वादिति ॥९॥ मोटो वर छोटु घणुं रे, प्रथम वडेरु जेह, नारीथी पणि पातलो रे, नारीथी पणि नान्हडउं रे, पुहुतउ नारी छेह १० मोटो वरेत्यादि । अत्र प्राथम्येन परिकल्पितस्य घनोदधेर्वरत्वेन कथितस्य प्राथम्यात् - प्राधान्याद्, वृद्धस्य - विंशतिसहस्रयोजनबाहल्यस्य रत्नप्रभाया अशीतिसहस्राभ्यधिकलक्षयोजनबाहल्यायाः सकाशाद् हीनत्वं स्पष्टम्, परं स नार्या रसायाश्चरमान्तप्राप्त इति ॥१०॥ बीजा तीन सरीसडा रे, त्रिणिमांहि पणि जाणि, जेह जेहथी पाछिलो रे, ते पुखतो परिमाणि ११ बीजा तीनेत्यादि । अन्ये त्रयो वरा घनवात-तनुवाता-ऽवकाशान्तरलक्षणाः सर्वेऽपि बाहल्यतोऽसङ्ख्येययोजनसहस्रप्रमाणाः, तेन सदृशाः, परं परस्परं यो यस्मात् पाश्चात्त्यः स पूर्वस्मादधिकाधिकतरासङ्ख्येयत्वसङ्कलित इति वक्तव्यम् ॥११॥ __इति वरत्वेन कल्पितानां घनोदधि-घनवात-तनुवातानां पुंलिङ्गानां नपुंसकलिङ्गस्याऽवकाशात(न्त)रस्यापीति चतुर्णां वराणां सामान्यतः स्वरूपं निरूप्य पुत्रत्वेनोक्तानां खरकाण्डादीनां स्वरूपं बिभणिषुराह - बेटो पहिलेरु वडो रे, नान्हडिउ कहिवाय, बीजो पांच गुणो भण्यो रे, ऊपरि अधिक सवाय १२ बेटो पहिलेरु इत्यादि । स्त्रीरूपत्वेन कल्पिताया रत्नप्रभायाः पुत्रत्वेनोक्तानां खरकाण्डादीनां मध्ये प्रथमस्य खरकाण्डस्य षोडशसहस्रयोजनबाहल्यस्य, चतुरशीतिसहस्रयोजनबाहल्यस्य पङ्कबहुलकाण्डस्य चाऽशीतिसहस्रयोजनबाहल्यस्याऽप्बहुलकाण्डस्यापि सकाशाल्लघुत्वं सुगममेवेति । अथ द्वितीयः पुत्रः पङ्कबहुलकाण्डरूपः, स च प्रथमापेक्षया सपादपञ्चगुण एव, चतुरशीतिसहस्रयोजनप्रमाणबाहल्योपेतत्वादिति ॥१२॥ पांच गुणो पहिला थकी रे, त्रीजो ते पणि होइ, एहवा ए त्रिणि छोरडा रे, जाति नपुंसक जोइ १३ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ पांच गुणो इत्यादि । षोडशसहस्रयोजनबाहल्यस्य प्रथमस्य खरकाण्डस्यापेक्षया तृतीयः पुत्रो ह्याबहुलकाण्डलक्षणः, स चाऽशीतिसहस्रयोजनबाहल्यप्रमाणः, सुतरां पञ्चगुण एवेत्यमीषां लिङ्गनिरूपणे रूपेण लिङ्गतो नपुंसकत्वं स्पष्टम् ॥१३॥ बेटा तीनइं माहिलो रे, जे पहिलो गुणवंत, दस बि च्यार तस छोरडां रे, सघला सरिखां संत १४ बेटा तीनइं इत्यादि । अत्र रत्नप्रभाया रमणीत्वेन चिन्तिताया भर्तृचतुष्कवृतायाः खरकाण्ड[-ण्डादि]त्रयाणां पुत्रत्वेन परिकल्पितानां मध्ये प्रथमः पुत्रः खरकाण्डरूपो यो षोडशप्रकारप्रभिन्नः तद्-तदद्भुतरत्नकाण्डादिगुणसन्दभितत्वाद् गुणवान् सिद्धः । तस्य च दश-द्वय-चत्वारीति क्रमगणनया षोडशसङ्ख्याकाः सुता रत्नकाण्डादयः । ते च प्रथमं रत्नकाण्डम्, द्वितीयं वज्रकाण्डम्, तृतीयं वैडूर्यकाण्डम्, चतुर्थं लोहिताक्षकाण्डम्, पञ्चमं मसारगल्लकाण्डम्, षष्टं हंसगर्भकाण्डम्, सप्तमं पुलककाण्डम्, अष्टमं सौगन्धिककाण्डम्, नवमं ज्योतीरसकाण्डम्, दशममञ्जनकाण्डम्, एकादशमञ्जनपुलककाण्डम्, द्वादशं रजतकाण्डम्, त्रयोदशं जातरूपकाण्डम, चतुर्दशं मरकतकाण्डम्, पञ्चदशं स्फटिककाण्डम्, षोडशं रिष्टकाण्डम् । इत्येते सर्वेऽपि तस्याः पौत्रत्वेन भावितत्वात् पौत्राः सर्वेऽपि सदृशाः । सहस्र-सहस्रयोजनबाहल्यस्य तुल्यत्वात् समीचीनत्वं रत्नगुणगौरवत्वाद्, नपुंसकत्वं च तथालिङ्गव्यपदेशादिति ॥१४॥ ओढण पहिरण तस नहीं रे, नागी निरखी तेह, तउ ही पणि लाजइं नहीं रे, कुलवंती परि जेह १५ ओढणेत्यादि । तस्याः प्रावरणपरिधानपरिहीणत्वाद् नग्नेव नग्ना निरीक्षिताऽपि न लज्जते, कुलवती च । यथा किल लोके सकलालङ्कारांऽशुकसंवृता कुलवधून लज्जते, तथेयमपि । तथाऽर्थान्तरम्, 'कुः पृथिव्याम्' [इति शब्दं] लपन्ती तथा कु-कुत्सितं लपन्ती काचिद् भाण्डादिचेष्टां कुर्वाणा हीनः जातिका (हीनजातिका) स्त्रीर्न लज्जते, तथैवेयं वेति ॥१५॥ सुसरुनइं सासू नही रे, माय बाप नहि तास, भाई भोजाई नही रे, जन्म जरा नवि जास १६ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अनुसन्धान-७६ सुसरु इत्यादि । सुगमम् । नवरं शाश्वतस्वाभाव्यात् तस्याः कुतो जन्मजरासम्भवः ? किञ्चाऽन्यासां स्त्रीणां श्वसुरादिसम्भवादस्याश्च तेषामसम्भवाद् विरोधः । किञ्चाऽत्र विरोधावभासस्य भूयस्त्वादन्यत्राऽनुक्तोऽपि सुधीभिः स्वयमभ्यूह्य इति ॥१६॥ सदल सरूप सुहामणी रे, काली अनइं कुरूप, जेणिं मोटा मोहिआ रे, भल्ल भलेरा भूप १७ सदलेत्यादि । पूर्वोक्तमहत्तरबाहल्योपेतत्वात् सुरूपा समग्रैः प्रेक्ष्यत्वात् शोभनाऽपि । कालीति लोके 'श्यामा मृद' इति प्रसिद्धिः, तथा कुरूपा - कुः पृथिव्याम् ( ) इति पृथिवीरूपा । किञ्च पङ्कबहुलादिकाण्डवत्त्वाद् वा, तेन चाग्रे वक्ष्यते । यत् “प्रकटपणइं पहिला कर्वा रे, जोज्यो नाम विचार" (कडी२०) इति तदेवेदं पदम् । तथा महान्तो महीपतयो हि महीमहेलयैव मोहिताः सन्तः क्वचित् प्राणपरित्यागप्रवणास्तत्कृते दृश्यन्त इति ॥१७॥ च्यारे वरनइ वल्लही रे, कहिइं न दिइं छेह, वर खोहलई बइठी रहइ रे, सा नारी ससनेह १८ च्यारे वरेत्यादि । घनोदधि-घनवात-तनुवाता-ऽवकाशान्तरस्वरूपरमणचतुष्कत्वनिरूपितास्ते चत्वारोऽपि तां वेष्टयित्वैव स्थिता इत्यतः किमपरं प्रियत्वम् ? शेषं सुगमम् ॥१८॥ गाम-नगर-पुर-पट्टणइं रे, सा पामीजइ सार, अटवीमां अति मोकली रे, जाणि मसाण मझारि १९ गाम-नगरेत्यादि । सर्वं स्पष्टम् । प्रतिप्राणि प्रतीयमानत्वादिति ॥१९॥ जलनिधि जलवटि संपजई रे, सोधीती सा नारि, प्रगटपणिं पहिला कां रे, जोज्यो नाम विचारि २० जलनिधीति । तत्राऽप्यब्धौ मार्गशुद्ध्यर्थं मध्येसमुद्रं प्रविश्य तत्स्थानोदरस्थलमृदमानाययन्ति नाविका इत्यतः शोधिता । तथा प्रकटेत्यर्थस्तु प्राग्व्याख्यातस्तत्तथा ॥२०॥ चोखे मइंले भोगवी रे, सा नारी बहुवार, च्यारे वर वींटी रहइं रे, तउ हुइ शिरि बहु जार २१ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १३ चोखे इत्यादि । सा पृथ्वीप्रमदा चोक्षैरिक्ष्वाकुवंशीयैः, म्लानीनजातिजैरपि नक्तंदिवा भुक्ता, पृथक्पृथग्भवापेक्षया बहुवारम् । तथा चतुर्भिर्घनोदध्यादिवरैर्वेष्टिताऽपि बहवो जाराः, यैः परं परं प्राप्तं तदीशं निष्काश्य बलादुपभुक्ता, ते जाराः शतसहस्रसङ्ख्यकाः शिरसि सम्भाव्यन्त इति ॥२१॥ तउहइं पणि सा जाणीइं रे, सुकुलीणी संसारि, तेहनी आस घणा करइं रे, पामइ कोइ किहवारि २२ तउहई इत्यादि । एवंविधजारनरभुक्तापि सुकुलीनेव सुकुलीना, तत्त्वतस्तु अत्यर्थं 'कु' इति शब्दे लीना । तथा नां(तां) चेहन्ते बहवोऽपि, परं कश्चिदेव भाग्यवानवाप्नोति क्वापीति ॥२२॥ जे नर ए नारी मल्या रे, मोह्या मूढ अपाण, ते नर भव-कादवि कल्या रे, नवि पांमइ निर्वाणि २३ जे नरेत्यादि । ये नरा एतस्यां पृथिव्यां पत्न्यामासक्तास्ते मोहमूढा भवपङ्क एव मग्नाः सन्तोऽपरित्यक्तपरिग्रहा निर्वाणं - मोक्षं न प्राप्नुवन्तीति ॥२३॥ जे नर मन संवर करी रे, ए नारि परिहार, तिकरण जोगिं जोगवई रे, ते गिरूआ अणगार २४ जे नर मनेत्यादि । ये पुनः स्वं मनः संवृत्य स्वल्पारम्भाः परिहतपरिग्रहा एतस्या महीमहिलायाः परिहारं कुर्वन्ति, त एव संवरवन्तस्त्रिकरणशुद्धा अनगारा भावितात्मानः संयताः साधवः स्युरिति ॥२४॥ एहवा श्रीगुरु सेवइं रे, विजयसेण(न) गणधार, नाम जपंता जेहनुं रे, कमलविजय जयकार २५ एहवा श्रीगुरु इत्यादि । एवं व्यावर्णितस्वरूपाः सुविहिताः स्वतः साधवोऽपि साधुपतयोऽस्मद्गुरवः श्रीहीरविजयसूरीश्वरपट्टपद्मबन्धवः साहिश्रीमदकब्बरनृपप्रदत्तसवाईजगद्गुरुबिरुदधारका भट्टारकाः श्रीविजयसेनसूरिवराः सेव्यन्ते। येषां नाम स्मरतां सताम्, कं - सुखमलन्ति धारयन्ति ते कमलाः तात्त्विकसन्तोषिणः, तेषां स्व-परदेशप्राप्यविजयजयकारकं भवन्तीति समासार्थः । परं विस्तरार्थस्तु प्रज्ञापनोपाङ्ग-विवाहप्रज्ञप्ति-प्रवचनसारोद्धार-सङ्ग्रहिण्या Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ दिभ्यो मनीषिभिः स्वतोऽवधार्यः सुहृद्भिरमत्सरैः । तथा यदत्राऽसङ्गतमनुपपन्नमल्पधिया भणितं, तत् शोध्यं समर्थनीयं च विशिष्टशिष्टैः । यतः 'सन्तः स्वयं परहितेषु कृताभियोगाः' [ ] इति ॥२५।। इति स्वाध्यायरूपगूढार्थावचूर्णिः सम्पूर्णा कृता ॥ Clo विवेक शाह A-2003, सर्वोदय हाइट्स, सर्वोदय नगर, मुलुण्ड-वेस्ट मुंबई-८० Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ प्रकीर्ण स्तोत्रादि - सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय आ साथे विविध कर्ताओ द्वारा विरचित १५ जेटली प्रकीर्ण स्तुतिस्तवनादि कृतिओ सम्पादित करीने मूकी छे. कृतिओनी हस्तप्रतो जे जे ज्ञानभण्डारनी छे तेनां नामो ते ते कृतिओना अन्ते लखेलां छे. आ कृतिओनी Xerox पूज्य आचार्य श्रीमुनिचन्द्रसूरिजी म. तेम ज श्रीसुयशचन्द्रविजय गणिवर्यना सहयोगथी प्राप्त थई छे. उपरोक्त ज्ञानभण्डारोना कार्यवाहकोनो तथा श्रमणवर्योनो हार्दिक आभार. १. श्रीब्रह्मर्षि-रचित श्रीस्तम्भन-पार्श्व-स्तवनम् श्रीवामेयं विधु-सम-वदनं, वन्दे मङ्गल-कमला-सदनं, निर्जित-दुर्मद-मदनम् । अश्वसेन-कुल-पङ्कज-सूरं, दुःख-महा-रिपु-परिभव-शूरं, विश्वद-सकल-गुण-पूरम् ॥१॥ अतुल-बल-सुरगिरि-सम-धीरं, पाप-रजो-भर-हरण-समीरं, प्राप्त-भवोदधि-तीरम् । कर्म-धरा-दारण-शुभ-सीरं, दशन-पङ्क्ति-जित-निर्मल-हीरं, क्रोध-दवानल-नीरम् ॥२॥ मान-करटि-विघटन-पञ्चास्यं, दूरोत्सारित-मोहन-हास्यं, - अमर-वधू-कृत-लास्यम् । नित्यं सुर-नर-पूजित-चरणं, रक्तोत्पल-कोमल-कर-चरणं, पालित-निर्मल-चरणम् ॥३॥ दुःखित-जगती-जन-गण-शरणं, वारित-जन्म-जरा-भय-मरणं, मन-ईहित-सुख-करणम् । विदित-निखिल-भुवन-त्रय-सारं, प्रभावती-हृदय-स्थल-हारं, बोधि-बीज-दातारम् ॥४॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ नित्यं धरण-नाग-पति-महितं, निज-शंसा-पर-निन्दा-रहितं, केवल-दर्शन-सहितम् । सुरतरु-चिन्तामण्यवतारं, कामगवीव समीहितकारं, सेवक-जनता-धारम् ॥५॥ निज-तनु-रूप-कान्ति-जित-मारं, सुख-भूरुह-सेचन-जलधारं, स्तम्भनपुर-शृङ्गारम् । निःकृन्तित-माया-वन-गहनं, दुःकृत-दारु-महा-भर-दहनं, समता-गुण-शुभ-भवनम् ॥६॥ दूरीकृत-विकट-प्रत्यूह, विधुरित-बहु-भव-तृष्णा-व्यूह, रक्षित-सत्त्व-समूहम् । प्रकटित-धर्मं सत्त्व-हितार्थं, ज्ञान-कला-विदिता-नन्तार्थं, साधित-तुर्य-महार्थम् ।।७।। दहन-वदन-निःकासित-नागं, दर्शित-पञ्च-नमस्तू(स्कृ?)त-रागं, लम्भित-सुर-गति-भागम् । निज-गति-जित-मानसिक-मरालं, सततं योग-पराजित-कालं, महिमा-मोद-विशालम् ।।८।। त्रिभुवन-वत्सल-ममल-ममोहं, लोकोत्तर-शोभा-सन्दोहं, त्यक्त-सदा-व्यामोहम् । मदन-महा-भट-भङ्ग-त्र्यक्षं, परमानन्द-सुखावह-दक्षं, प्रत्यक्षीकृत-लक्षम् ॥९॥ नील-कमल-कज्जल-सम-देहं, निःकन्दित-पृच्छक-सन्देहं, सल्लक्षण-गुण-गेहम् । अणिमाद्यष्टसिद्धि-विस्तारं, तीर्थ-विभु-श्रीपार्श्वमुदारं, सेवे वारंवारम् ॥१०॥ इत्थं श्रीस्तम्भनः पार्श्वः, स्तम्भतीर्थाधिपः सदा । संस्तुतो ब्रह्मणा भूयात्, भव्यानां भव्यसौख्यदः ॥ इत्थं श्रीस्तम्भनाधीश-श्रीपार्श्वनाथस्तवनम् ॥ (ला.द.विद्यामन्दिर - १५१३७) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ जान्युआरी- २०१९ २. जिनस्तवनम् शिवशिरसि निवासं यः सदाशाविकाशं, जनयति जिनचन्द्रः प्रत्तपापाबु(म्बु?)तन्द्रः । सततमुदयकर्तृत्वेन तं गुप्तकर्तृ प्रभृतिरचनतोऽहं नौमि भक्त्या तमोहम् ॥१॥ जननमृतितरङ्गापारसंसारवार्द्ध स्त्रिभुवनजनतारं यानपात्रानुकारम् । जिनगुणगणरम्यं त्वां निरीक्ष्योत्सुकत्वं, किमु न भजति सिद्धिद्वीपसंप्राप्तिहेतोः ॥२॥ विमलविपुलभास्वत्केवलालोकलक्ष्मी प्रकटितभुवन! त्वं देव! सद्यः प्रसद्य । शमितविततरोष! ध्वस्तनिःशेषदोष!, प्रणतसुरहरिद्रो! दुःखिने देहि मन्यम् ॥३॥ प्रणमदमरनाथप्रार्थ्यमानांहिसेव! स्फुटमशिवमियन्तं नाथ! कालं विनाथः (?) । प्रशमितभवतापं ध्वस्तभावारिवारा ऽजनिषि पुनरिदानीं सर्वथाऽहं सनाथः ॥४॥ नतहितशतकारी त्वं भुवि ज्ञानभाभिः परम इति सतृष्णं नाथ! विज्ञप्यमानः । प्रवितर शिवशर्माऽनन्तदुःकर्ममर्मा ऽचलकुलिशविलम्बं मा स्म कार्षीरिहाऽर्थे ॥५॥ मदमदनकषायोद्दामदावानलाचिः प्रशमनघन! मन्ये पुण्यवानद्य नाऽन्यः । सदतिशयसनाथस्त्वं प्रभो! भाग्यलभ्यः, स्फुरसि हृदि मदीये यत् परात्मस्वरूपः ॥६॥ सुरनरवरहंसश्रेणिसंसेवनीयं, सकलभुवनलक्ष्मीकेलिसद्मांहिपद्मम् । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ तव वसमास निखिलसुखमरन्दास्वादसानन्दचेता स्त्रिजगदधिपतेऽहं भृङ्गवत् संश्रयामि ॥७॥ . किमु दधति विधिज्ञाः सस्पृहं मानसं स्वं, शमघनजिनराज! न्यस्तदोषानुभावम् । सकलकुवलयैकोल्लासकं वीक्ष्य हर्षात्, तव वदनमजस्रं श्रीश्रितं गोऽभिरामम् ॥८॥ जिनवर! हरहासोल्लासिकीर्ति ममाति, बहुविधविबुधाळू! त्वं वशं ब्रह्मशर्म! । . तनुरुचिनिचयास्तध्वान्त! तत्त्वावबोधः, शुभंशमदमधामा सादरं प्रार्थनेऽस्मिन् ॥९॥ यः श्रीसर्वज्ञमेवं त्रिभुवनविनुतं प्राज्यपुण्योपलभ्यं, हासोत्त्रासादिदोषप्रमथनमुपमातीतरूपातिकम्रम् । कामस्थामप्रमाथं विनयनुतजनस्वान्तरं जीवसूर्य, स्तौति प्रीतान्तरात्मा श्रयति न स कथं मोक्षलक्ष्मी वरिष्ठाम् ॥१०॥ ३. वाचक-उदयविजय-रचित स्थम्भन-पार्श्वनाथ-स्तवन ॥ बूझव्यो तइं प्रभो! शूलपाणी ए देशी ॥ सदा संपदा तैं प्रभो! इष्ट आपी, तेणि करी तुझ थकी कीर्ति व्यापी; जलधि-जल थंभ3 नाम तुझ थंभणो, तेणि तुं विश्वमैं सुप्रतापी. १ सदा संपदा तें प्रभो! इष्ट आपी... लंक रामें ग्रही सीत आणी सही, सकति ते ताहरी जगऊ जाणी; तूस ताहरई राम परि मुझ पिणि, ऋद्धि में वृद्धि मि गेहि आणी. २ रोग नाठा अभयदेवसूरिंदना, ताहरी भक्ति तिहां कल्पवल्ली; सकति-अनुरूप तुझ भगति पिण तेहवी, ते फलो तेह परि अति प्रफुल्ली. ३ भाग्य आरोग्य सौभाग्य अति पल्लवै; नव नवें रंग लच्छी मिलावि; इष्ट जे भाव जे तुझ थकी नीपलें, अहवं माहरी बुद्धि भावें. ४ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ भावना कवितणी तुज्झ गोचर इसी, तेहि ज तेसु प्रभो! सफल करवी; अहवा सुप्रसादादि अवधार, चंद परि ऊजळी कीर्ति धरवी. ५ कोडि दीपालिका जीव जस ऊजलो, मेरुगिरि सरिस ते रयणराशी; द्रव्य पाथोधि जल जेम अविचल सदा, उदय नितु होइं सुमति-प्रकाशी. ६ ॥ ढाल - मेरो नाह निठुर अभिमानी हो ए देशी ॥ इम वीनती दिलमांहि आंणो हो, प्रभो! मोरी वीनती दिलमां आणो हो; भगति-भाव-भावितनी पंति, प्रभ! मुझनें पिण जाणो हो. १ इम... तुझ सेवक ते सहुनो नायक, विश्ववदीतो राणो हो; गेही अथवा साधु-शिरोमणि, सहू कहें अमूलिक दाणो हो. २ उत्तम संगतिथी होइ उत्तम, अह न्याय सपरांणो हो; तुझ सम उत्तम कहो कुण कहीइं, सेवक तेम पिछानो हो. ३ तुम्हथी धृति-मति-कीरति पावें, सोवन-मणि सुप्रमाणो हो; मेरु जिस्या अंबार सोवनना, तेज झलामल भाणो हो. ४ तुझ सेवक संगतिथी पावन, कविजन सुजस थपाणो हो; सहजें गंगा-जल-निर्मलता, ओ प्रसिद्ध ऊखाणो हो. ५ वांचा नाणे कुण अति रीझें, सोवनसार वखाणो हो । हरि-हर-प्रमुखें मन नवि मानें, साचो तुं कहिवाणो हो. ६ ॥ ढाल - आज तो निसान वाजें दशरथ राउ के ए देशी ॥ पैंसी तो विराजै तेरी प्रभुता अनूप के कोडाकोडी वाजा वाजें, छत्रत्रय शिर छाजें; अति दिवाजें राजें, अनूपम रूप के. १ सुर-नर पार नाहि, तेजें दश दिशि गाहि; सीह समो तुं ही उच्छाहिं, अतुल सरूप कें. २ अरी सवें तिं निवार्या, सूधा पंथ तिं सुधार्या; __ पापभयथि उगार्या, तार्या वड भूप में. ३ मोहराय आघो लेई, ताहिं विश्वास देई; जीती उगार्या तार्या(तेई), तैं ही भव-कूप के. ४ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अनुसन्धान-७६ करीई मुजै पताका, दुख देखी जे ही थाका; ऊधर्या बहु वराका, अविचल रूप कें. ५ प्रभुता को तुं ही स्वामी, अनंती सकति पामी; अविचल सुमति कामी, रौपैं जय-थूप के. ६ जगत्र कीरति व्यापै, रत्नत्रय तुं ही आपै, त्रीपदी प्रभु सुद्ध थांपै, रवि-प्रतिरूप कें. ७ ॥ ढाल - राग मारू ॥ पार्श्वनाथ थंभणो में, कल्पवृक्ष पायो री; अतुल भाव-भगति आणी, हृदय-कमल ध्यायो री. १ आनंद-अमृत-मेह वूठो, पुन्य-फल दीपायो री; सुकृत-अमृत-वेल संची, पाप-पंक गलायो री. २ लख चोआल भुवन-नाथ, धरणराय ध्यायो री; मात वामादेवीने तेणे, बालपणई हुलरायो री. ३ चोसठि इंद्र धरी आणंद, मेरू-परि ह्नवरायो री; ऋद्धि-वृद्धि-सिद्धि सर्व, विभव अतिक पायो री. ४ जेणिं करी स्तुति विशाल, सुजस तिणे उपायो री; आपणो तिण विश्व माहि, जीत-तूर वजायो री. ५ ॥ कलश ॥ तपगच्छ-मंडण दुरित-खंडण विजयदेव मुणीसरो, तस पट्ट-दीपक शत्रु-जीपक विजयसिंह दिवायरो; तस सीस वाचक उदयविजयें संथुण्यो परमेसरू, श्री पास थंभण भुवण-रंजण जय जयो नित जयकरो. ॥ इति श्री थंभणपासस्तवनं ॥ (ला.द. विद्यामन्दिर - १२८११) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ २१ ४. क्षेमकुशल-कृत थम्भण-पासनाथ-स्तवन ॥ राग - देशाक, ढाल - दुहा ॥ श्री जिन-मुख-कज-वासिनी, कमलासनि सरसति: तुं मुझ मतिनुं मय करे, हु तुमय अकंति. १ ससि-वस(द)णी मिग-लोयणी, [...] सुअदेवि; समरी पास-महिमा थुणु, मुझ वदनांबुज-सेवि. २ सारददेवि पासउ लई, थुणस्युं स्वामी पास; धरणराय पउमावई, वईरुट्ट सेवई जास. ३ ॥ ढाल - तु चडीउ घणमाण गजे, राग भूपाल । अमरपुरीनई जीपती अ, नयरी वाणारसी सार तु; अश्वसेन राजा राजीउ अ, राज्य करइ उदार तु. ४ तस अंतःपुर-मंडणी मे, राणी वामादेवि तु; तस कुखि प्रभु अवतरा ओ, जस करई सुर-नर सेव तु. ५ बालपणि दया-सागरु मे, जेहनी निर्मल बुद्धि तु; जलणि (ज)लंतो नाग [क]ढीउ ओ, दीधी नाग-परि(ति) रिद्धि तु. ६ इयुं जिनसेरा(वा) नमि-विनमी, पी(पा)यो विद्याधर-राज तु; पास-दरिसण नवकार, प्रसीतुसरो(पसाइ, सारो?) विसहर-काज तु. ७ प्रभु-प[द]-कमलि भसल परि, सेव करई सुर-राय तु; जिन-सासन-सांनिद्धि करई, सारई सघलां काज तु. ८ ॥ ढाल - पास जक्खि सेवा करई ॥ संकट विकट समइ [...] नामि तु; सा(पा)स जिणिंद गुण गायता, नितु हुई मंगल-धाम तु. १० भवणाधिप वितर वली य, जोईसनइ सुर-वृंद तु; जे दुष्ट देव पराभवइ ओ, तुम्ह नामि थाइ मंद तु. ११ भूत प्रेत देवी देवला अ, गोत्रदेवी खेत्रपाल तुं, साइणि-भय टालवा मे, तुम्ह नाम-मंत्र रखवाल तु. १२ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ कामण मोहण कडुल सवे, दुष्ट मंत-तंतह योग तु; भय ईति सवे दुरित टलइ ओ, तुम्ह नामि लहइ भोग तु. १३ सुखसंपदा बहु गजघटा ए, तुरग-रथ पायक कोडि तु सुर-नर राय खेव करइ ए, तुम्ह नामि कर जोडि तु. १४ ॥ ढाल - राग सोरठी, जिणिंद मुणिंदर ए ढाल ॥ वामानंद रे सुखसेंद रे, मुझ सुख-सागर-चंद कर्म-रिपु-मृग-केसरी; भव-तरु-मत्त-गजेंद रे, टालइ सब दुःख-दंद रे. १४ जिणिंद रे मुणिंद रे, तुम्ह नामि परमानंद; जग सघलो तुझनइ जपइ, थंभण पास जिणिंद रे. १५ जि... खास-सास-भगंदरा, जर-कोढादि वृंद; द्रव्य-भाव रा(रो)ग टालवा प्रभु!, तु छइ त्रिभुवन-वेद रे. १६ सागर-नदी-तटाकना, जल करइ गगनि वाद; तिहां पडीया तुझनइ जपइ, ते पामइ प्रवहण-वृंद रे. १७ दावानल व(त)णा, ज्वाला अतिविकराल; तिहां पडीया तुझ नई जपइ, पामइ जलद विशाल रे. १८ विसहर अतिकोपि चड्यो, धरइ फणी-मणि-आटोप; विसहर-विस-बल भंजवा प्रभु!, तुम्ह नाम जांगली जाप रे. १९ धाडां चोर-रिपु तणा, जेह न मानइ आण; तुम्ह नाम-मंत-जापि करी, तेणि न वालइ प्राण रे. २० केसरी अतिहि कोपीउ, देतो गगनि फाल; पास-नाम-मंत-अष्टापदि, भय थाइ सवि विसराल रे. २१ मदि करी गज मातला, उन्मूलइ तरु-वृंद; गज-उपद्रव टा[लवा] प्रभु!, तुम्ह नाम-मंत मृगेंद रे. २२ भवि करी अतिभीषणां, रिपु बल भड संगाम; प्रभु-नाम-मंत्र-जापि वरइ, जय-कमला अभिराम रे. २३ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ ॥ ढाल - अरणक माता इम भणि, राग सिंधुओ गोडी ॥ द्यइ धइ जिन-पद सदा, पहु! मोह अलाजो अपार रे; तु करुणा-रस-सायरु, नागरु भव-जल-तार रे. २४ तुं मेरे जिअको आधारइ, धइ द्यइ दरिशण आपणु... त्रिभवन माहि अमारिनो, पडह वजडावा काजि रे; मारि-शब्द निवारवा, राजइ त्रिभुवन-राजा. २५ श्री जिन पास न्हवणि करी, जीवी यादव-कोडि रे; सेढी-तडि रस सीध्धलो, कीधली कनक-कोडि रे. २६ शिव-सासन मद मोडीउ, तूत शिध(व)लिंग शतखंड रे; सिद्धसेनि तुम्ह स्तुति-बलई, बुझव्यो राय प्रचंड रे. २७ भद्रब(बा)हु श्रुत-केवली, मारि-निवारण-हार रे; उवसगहर-स्तवनि करी, कीधो जग-उपगार रे. २८ अभयदेवसूरी तणो, रोग-विदारण-हार रे; थंभण पासजी राजीउ, ए प्रभु त्रिजग़-आद्ध(धा)र रे. २९ तुं शरणागत-पंजरु, तुं हित-कर निज तात रे; निज बालकनइ पालवा, तु छइ त्रिभुवन-मात रे. ३० तुम्ह नाम-मंत्र-चिन्तामणि, जपता जयजयकार रे; रिद्धि-वृद्धि-सुख-संपदा, पामइ राज उदार रे. ३१ ॥ ढाल-फागनी, राग केदारु ॥ जय प्रभु महिमा-सागर, नागर जगह-शृंगार; त्रिहु भुवने ताहरूं, राज जउ उदार. ३२ जय जगव्यापी थापी, प्रतिमा गुणह भंडार; विविध नामि करी दीपती, त्रिभुवन-जन-आधार. ३३ खंभ-नयर-मुख-मंडण, थंभण पास जिणिद; जीराउल जग-मंडण, जपता परमाणंद. ३४ अमि अमिअझरो प्रभु, विघ्नहरो चिन्तामणि पास; नवखंड नवपल्लव प्रभु, पूरइं सब ज आस. ३५ संख(खे)श्वर प्रभु लोडण, खातो पंचासर पास; कलिकुंड अंतरीक कोको, वरकाण गोडी सास. ३६ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अनुसन्धान-७६ फलविद्धि मसी(गसी) अव(व)ती, वेइ अजाउर पास; सगफणो नारिंग रावण, सहसफणो प्रभु पास. ३७ घृतकल्लोल कल्हरो, करेडो कंबोइ पास; उबारवाडी सामलो, भाभो बलाजो पास. ३८ गाडरीउ स जिण जंगरं (?), [...] जण जगदीस; आधि-व्याधि-भय चूरइ, पूरइ सयल जगीस. ३९ त्रिभुवन मांहि विस्तूंरु, विविध परि [प्रभु] नाम; भय-इति-मारि निवारवा, पूरवा वंछित काम. ४० लाख इगार पूजी करी, सुरपति सारइ सेव; नव दिन सात मास पूजिया, रामि थंभण देव. ४१ कन्हडि साठि सहस पूजीआ, वरसह संख्या जाणि; वासुगिराई पूजिया, अइसी सहसं मंडाणि. ४२ सुर-नर-किन्नर-ज्योतिषी-विद्याधर-मुनि-कोडि; त्रिभुवन-जन सेवा करु, प्रणमइ दोअ कर जोडि. ४३ राज-रमणि नवि मागीइ, मागीइ अविचल वास: प्रभु-पद शिव-पद सुखडी, आपउ लील-विलास. ४४ अजरामर सुख आपी, थापउ सेवक पासि; निज ब(बा)लक चिन्ता करे(री), प्रभु! मुझ पूरउ आस. ४५ जय प्रभु! गाम गामि ठाम ठामि नाम नामि जि[न]वरु, सकल सुख मुझ दान देवा, प्रगट पाम्यो सुरतरु; श्रीहीरविजयसूरिंद राज, थंभण पास जिणेसरु; श्री पंडित महिमुणंद सीस थोण्यो, क्षेमकुसल करु. ४६ ॥ इति श्रीथंभण पासनाथ स्तव संपूर्ण ॥ . __ (आशापूरण ज्ञानभण्डार - अमदावाद) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ ५. श्रीजिनसुखसूरि-रचित स्तम्भन-पार्श्वनाथ-स्तवन ॥ ढाल योधपुरीनी ॥ थंभणपुर-सामी हो नमीयै सिर नांमी; जग-अंतर-जामी हो प्रभु यात्रा पांमी. १ भवना भय टलीया हो मुझ साहिब मिलीया; दुख दूरै टलीया हो मन-वंछित फलीया. २ तारण सुख-कारण हो दरसण तुम्हारो; मिथ्यात-निवारण हो समकित चै सारो. ३ सेवक संभारो हो सारो काज सहू; वीनतडी अवधारो हो परगटा पास पहू. ४ आदर करि आवै हो लोक तिलोक तणा; प्रभुजीनै [व]धावइ हो गावइ सुजस घणा. ५ अणतेडी आवै हो नवनिधि सिद्धि सहू; परभव सिव पांमै हो केवल-लाभ सही. ६ पुरव पुनाइ हो प्रणम्या पास धणी; सुख दीयै सदाइ हो जिनसुखसूरि भणी. ७ ॥ इति श्रीस्तंभनपार्श्वनाथस्तवनं ॥ ६. श्रीरंगकुशल-रचित स्तम्भन-पार्श्वनाथ-स्तवन सदा आस मुझ पूरवइ पास सामी, प्रभो चरण-सेवा करुं सीस नामी; इणइ कलिजुगइ एकलमल विराजइ, प्रभो थंभणपुरठिय गुणहि गाजइ. १ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ ॥ ढाल ॥ भरतइ सुप्रसिद्धी वाणारसि पुर सार, प्राणतथी चवि करि अवतरीयउ सुखकार; अससेण-कुलंबर-रजनीकर-सम गुण-ठाण, पटराणी-वामा-उयरइ हंस-समान. २ पोस-पढम-पखि दसमि-दिनइ जनम्यउ प्रभु पास, नील-वरण तनु सहतउ ओ पूरइ मन-आस; छपन कुमरि मिलि सूय-कम्म करि जिन-गुण गावइ, मेरु-सिखरि सब इंद्र जइ जिननइ न्हवरावइ. ३ ॥ दोहा ॥ पंच रूप करी निरखतउ, धारति प्रभु-सिरि छत्त; मात-पासि मूकी करी, निय निय ठामइ पत्त. ४ ॥ ढाल ॥ कमठ कपट सठ तप तपइ ओ, तिहां पहुता प्रभु पास; जलता अहि-जुग देखि करि, काढि मंत्र दिय तास; पउमावइ धरणिंद पद, पामी पूरइ आस, पास तणी सेवा करइ अ, तिणि घरि लील-विलास. ५ अनुक्रमि जोवन पामि परणि प्रभावती, संसारिक-सुख अनुहवी ओ; तीस वरसनइ अंति अवसर जाणावइ, लोकंतिक सुरवर भवी अ; देइ संवच्छर-दान दीक्षा आदरी, पोस बहुल इग्यारसी ओ; संजमधर वरधीर अचल अकंपित, सुरगिरिनी परि महरिसी ओ. ६ कमठ-असुर मेघमाली, वरसावइ घटा काली; जल आव्यउ नासा-नाली, धरणिंद-आसण चाली. ७ ततखिण धरणिंद पधारी रे, प्रभुनउ उवसग्ग निवारी; तिहां नृत्य करइ पउमावइ रे, मन-सुद्धइ जिन-गुण गावइ; विरहइ महियलि सामि, नव निधि प्रभुनइ नामि; ओ सेवइ सदा अ, तिणि सुख-संपदा ओ. ८ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ जान्युआरी- २०१९ चडीय संमेतगिरि सुद्ध आतम धरी, करीय संलेहण मासभत्त, छेदीय कम्म अड क्षय करी जिनवरू, आसय सुक्ख सिवपुरीय पत्त; अजर अगोचर अमर अक्षर परं-परमपद निम्मलऽणंतनाणी, सिद्ध अलेख अरूपी निरंजन, निरुपम गुण इकतीस प्राणी! ९ इणि परइ थंभणपुरइ भेट्यउ पास थंभण जिणवरो, घन-नील-रुचि-तनु नाग-लंछन काय नव कर मनहरो; श्रीकनकसोम मुणिंद सहगुरु परम महिमा-सागरो, तसु सीस रंगकुसल सुजंपइ सदा संघ-सुखाकरो. १० ॥ इति श्रीस्तंभनक पार्श्वनाथस्तवनं समाप्तम् ॥ ७. मुनि-गुणसौभाग्य-रचित थम्भण-पार्श्वनाथ-स्तवन वंदीउ वंदीउ रे खंभनयरनो राजिउ, ___ थंभण पासजी रे बहु गुण गेह वीराजीउ; ज्ञान दरिसण रे सूरिजनी परे दीपउ, वर संयम रे करिय कर्म-दल जीपतउ. १ रूअडउ सोहइ रे वामा-कूखिई हंसलउ, जन-मन मोहइ रे सोभागी कुंअर भलउ; परिणावि रे बल करी कूअरिं प्रभावती, ___ परिहरि राजरिद्धि रे लोग त्यजी हूआ आयती. २ जसु सेवइ रे सूरवर नरपती राजीउ, गजपति-गेलि रे चालइ जिन-पति राजीउ; जिनजी राओ रे सूरपति, गुरुहिं वखाणीओ, त्रीभूवन सारे रे थंभण पास सू जाणीओ. ३ धरणिन्द्रराजिई रे पास जिणेसर संथुणो, गणधरदेवि रे सूत्र मझारि वखाणीओ; पालइ जनजी रे आण खरी तुह नीगली, कवीअण भाखइ रे ते भवीअण आस्था फली. ४ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ अनुसन्धान-७६ सिरिविजयदानसुरींद गीरूआ सूरि-गुणि करी दीपता, संतोष करी भगवंतजी मद मोह रिपू बल जीपता; तसु सीस-लेसिंइ गूणसोभागिई थुणिउ पास जिणेसरू, संवत सोल नवोतरे सिरिकरणसाधू कृपाकरू. ५ ॥ इति श्रीथंभणपार्श्वनाथस्तवनम् ॥ (गुजराती जैन संघ - कलकत्ता - १०३४) ८. वाचक-शुभवर्धन-रचित स्थम्भन-पार्श्वनाथ-विनति अरि-थंभण थंभण श्रीपास, सेवक-जननी पूरइ आस; दुर्जन दुर्जननइ तुं संहरइ, ध्याता जन आपद निस्तरई. १ थंभण पास आस सवि पूरि, चाड पिसुण जणनइ तुं चूरि; वईरी सवि लेजे निर्वंश, कमलापतइ जिम कीधुं कंस. २ . थंभण पास दुष्ट निर्दलई, जिम मृगेंद्र आवी मृग मि(गि)लइ; दुष्ट सवे ऊतारइ माण, कमठासुर जिम भंजइ प्राण. ३ निराधार साधारु देव, थंभण पास तणी करूं सेव; संकट विकट नसाडइ दूरि, अंधकार जिम ऊग्यइ सूरि. ४ इम तवीउ थंभण पासनाह, धरणिंद्र-पुमावइ तणु नाह; सिरि खंभनयरि जिणि किय निवास, शुभवर्धन वाचक पूरि आस. ५ ॥ इति श्रीथांभणापार्श्वनाथ वीनती ॥ ॥ सं. १६२४ वर्षे मौनइग्यारसिदिने श्रीकुमारगिरौ बुधवारे लिखितानि एतत्पत्राणि ॥ (ला.द. विद्यामन्दिर - ६२६८) ९. थम्भण-पार्श्वनाथ-विनति वरसह लाख इग्यार, इंद्रि पास जिण पूजीया; कोइ न ‘जाणइ पार, आगइ ओ अणागता. १ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ नव दिण सातइ मास, श्रीरामि आराहीआ; थंभण सामी पास, सार करे जे माहरी. २ कान्हड थंभण पासि, आराध्या एकमनि; वरसह साठि सहस्स, पूज्या लेइ द्वारिका. ३ सहस इसीइ प्रमाण, वासिगि राजा पूजिया; कांती तणां वाहण, ऊपरि रहीयां पास जिण. ४ वाहण अव्यांसात(अव्याघात?), थंभावइ थांभणा धणी; हुइ असंभम वात, धनदत्त तिहां ध्यानि रहउं. ५ ध्यान तणइ मझारि, श्रावक तिहां सामिणउं लहइ; आवि सेरसि णगरि, सायर माहिथी सामिणी. ६ सामिणी कहीउ वात, धनदत्त तू ध्यानि अछइ; काचा तांतण सात, मेल्हिन आपुं पास जिण. ७ मेल्हया तांतण सात, धनदत्त धीरउ हूउ; हुई पयालिहि वात, पास जिणेसर जाइसि. ८ टलवलिआ सवि नाग, नागिणि करती न उच्छणां; दइन सामी-पाग, वासिगराउ वलगी रहिउ. ९ दीधा सामी-पाग, पास जिणेसर आपणा; बोलाव्या सवि नाग, उछविहि आव्या घणाउ. १० पाणी माहि प्रमाण, सामिणीअं साचउं कहिउं; धनदत्त रहइ अहिनांण, पदमावतीअं पूरीओ. ११ पदमावतीअ पास, आप्या तिहां आणी करी; हऊआ वाहणि वास, परहण पाछा वालीयां. १२ सीघलदीपह माहि, चाल्या लेइ पास जिण; कांती पहुतां विहाणि, आठे पहुर आराधतां. १३ पहुता नयर मझारि, कांतीय लेइ करी; प्रणमइ छइ नर-नारि, सांन्हा बइठा बइसणइ. १४ उछव करइ अबाह, पास जिणेसर सामीअ; अ(आ)व्या ओ जगनाह, आगइ आदि पूजीया. १५ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अनुसन्धान-७६ नागार्जनि ओ नाह, रसनइ कारणि आणीआ; कांती हुई अणाह, थानक पूजइ पास जिणु. १६ सेढी-तडि निधान, आणी मेल्हा जोगी; विश्व माहि मे प्रधान, द्रष्टि सीधी कनकसिद्धि. १७ थंभण नाम प्रमाण, सामि! तम्हारउ त्याहां थकउ; नायणि रहिइ अंहना(?), पालितसूरिहिं पूरिअं. १८ किवली गा इह ज्ञान, दीधउ सामी पास जिण; दुगध झरइ मध्यानि, पवित्रणु पूठि आविउ. १९ गाइह पडिउं देठि, नाठी गाइ दिसा मही; खूती खरीअ ज हेठे, मुख दीसइ तुम्ह पास जिण. २० वरसह पंच सतानि, जाखह ना(सा?)मि पूजिआ; अभयदेव गुरु ज्ञानि, प्रगट ज हुआ पास जिण. २१ पास! पाप हरेसि, छोडी न सामी माहरा; तं पछि छोडेसि, मया करीनइ मू रहइ. २२ थंभण थिरउं विभासि, कलियुग साचउ तुं धणी; पडिआ संकाट] पासि, छोडि न सामी सामला. २३ कूडी कलिहि मझारि, साचउ सामी थंभणउ; जो सेवइं संसारि, पातक जाइं पापीयां. २४ जीवति जीवई काई, जे जिणवर जाणइ नहीं; जिम आव्या तिम जाइ, मुधि न जाणइ सामिनी. २५ हियडा हाथ ज जोडि, नवकारि नमियइ घणउं; संकट भंजइ कोडि, अरिहंतह आराधतां. २६ आराधइ एकवांरा, जिणवर ओ जोइ करी; ते(त)ऊ तरइ संसारि, मन-सुधि मानउ घणउ. २७ पूजंति पार्श्वनाथ, हियडइ भाव धरेवि जे; ते नर हुइ सनाथ, थंभण स्वामी सेवतां. २८ पायालिहि परिमाण, महियलिहि मानइ घणउं; सिवपरि तुं ज जाण, पास जिणेसर थंभणा. २९ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ ३१ लांछणडइ धरणेंद्र, सामिणि साहिज चउं करइ; बइठा जे जोगींद्र, सर्वज्ञ सामी थांभणा. ३० संसारि विसम कलाप, दीसइ सामी पासजिणं; फेडइ भव-दह-ताप, सयल संघ रक्षा करइ. ३१ सुर-नर करइ नितु सेव, चरण-कमलं तुम्ह पामीअं; पास जिणेसर देव, संख न लाभइ सई धणी. ३२ सिद्धि-बुद्धि तणा दातार, वीनतडी अवधारी; संकट-भंजणहार, कामिक तीरथ पास जिण. ३३ पास तणउ परमाण, पढइ गुणइ जे सांभलइ; तीह घरि नितु सुविहाण, चिरकालिइ चाइओ भणइ. ३४ ॥ श्रीथंभणपार्श्वनाथवीनती समाप्त ॥ १०. थम्भण-पार्श्वनाथ-स्तवन (अपूर्ण) पय पणमिय सयल जिणिंद देव, देवासुर मानव लहिय सेव; परमाणंद-दायग घुणुंअ हेव, थंभणपुर-मंडण पास देव. १ पाप-तिमिर-निवारण-विमल-हंस, वर-वामादेवी-उअर-हंस; आससेण-नरेसर-कुल-वतंस, दीपाव्यु जेणइ इक्खुवंस. २ वाणारसी नयरी जसु जम्म, जय भंजिय-दुज्जय-मोह-चम्म!; जय निज्जिय-दुज्जय-अट्ठ-कम्म!, पयडीकिय-सुहकर-विमल-धम्म!. ३ जय निज्जिय-दुज्जय-मयण-बाण!, कमठासुर-दुज्जय-दलिय-माण!; अंगीकिय-जण-गण-पवर-आण!, भविअण-मण-भाव-जाण!. ४ जय जण-कमलागर-सरय-चंद!, जस सेव करइ मुणि-राय-विंद; जय भंजिय-माया-वल्ली-कंद!, जय केवलनाणी! वर-दिणिंद!. ५ जस सेव करइ धरणिंद राया, पदमावती सेवइ जसु पाया; जय सयल-सुरासुर-मणुअ-राय!, जस सोहइ निम्मल नील काय. ६ भव-सायर-तारण-पवर-जाण!, सुर-मानव पत्त(भ?)णइ गुणह गाण; सुख-दायग! नायग! गुण-निहाण!, सेवकनइं आपउ विमल ठाण. ७ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अनुसन्धान-७६ ॥ ढाल | राग देशाख । जे भविअण जी पास जिणेसर मनि धरइ, ते भविअण जी दुत्तर भव-सायर तरइ; पास-नाम जी भविअण जे हियडइ धरइ, अय महाभय जी सातइ ते दूर करइ. ८ भय पिहिलु जी रोग तणुअ ज जाणीइ, भय बीजु जी पाणी तणुअ वखाणीइ; भय त्रीजु जी आगिनउ चउथु सीही तणु, भय पंचमु जी हाथी केरु ते गणु. ९ भय छठउ जी दुट्ठ ज चोर तणु भणु, भय सातमु जी विरी तणु अजहुँ घुटुं; ओ महाभय जी सातइ उपद्रव नवि करइ, जे भविअण जी पास-नाम नति मनि धरइ. १० पास-नामइं जी संकट विकट सवे टलइ, पास-नामई जी मन-वंछित संपति मिलइ; पास-नामई जी दुरगतिना दुख सवि टलइ, पास-नामई जी असुभ करम सघलां गिलई. ११ पास-नामइं जी ज(जा)किणि साकिणि नवि नडइ, पास-नामइं जी... (ला.द. विद्यामन्दिर - ६१३९) ११. श्रीब्रह्म-रचित स्तम्भनक-पार्श्वनाथ-स्तवन सकल-सुंदर जिन-गुण सोहइ अ, भविक लोक तणां मन मोहइ अ; प्रभु दया-रस-पूरण दीसइ ओ, निरखतां मन-पंकज विकसइ ओ. १ पहुवि पूरव-दिसि अति गहिगहि, जणणि-वामा-उदरि उदय लहि; गगन-मंडलि कुलि आससेणनइ, चडत-तेजि सोहावइ लोकनइ. २ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ सहिस अक अठ्योत्तर लख्यणइं, किरण-रूपई सोहइ पूरणइं; कुमत-पाखंड-घुअड-त्रास अ, सुजस-तेजई दह दिसि वास अ. ३ झलहलइ नितु केवल-मंडलइ, दुरित-मोह-अंधार सहु टलइ; कुगति-तारा-तेज हरइ सही, अधिक ऊंची पदवी प्रभु लही. ४ उदयवंत सदा जन-मनि गमइ, ऊपरि संग कदा नवि आथमइ; सुगुण-श्रेणिइं नितु ऊंचउ पडइ, असुभ सहु तणइ वसि नवि पडइ. ५ करम-चोर तणां बल टालइ अ, भविक-लोक प्रभाति निहालइ अ; हरइ सीतल-पातक-टाढडी, खय गई अगन्यान निशा वडी. ६ धरम-वाणी कानि सुणावओ, तेह ज सुद्ध प्रभा जगि ठाव; ओह ज अचरिज मुझ मनि भावओ, भविकना भव-ताप समावओ. ८ सुजन-मानस-कमल जगावइ अ, मुगति-पंथी पंथि लगावइ अ; भविक-कमल-विकास तिणि करइ, मन-संदेह-तिमिर सवि हरइ. ९ सुधर-धीरिम-मेरु चिहुं दिसिई, प्रभु विहार करइ नितु मन-रसइ; बिहूं परइ धर्म-वाणि ज जन करइ, सुकृत-लाभ अनंतउ आदरई. १० इसिउ अदभुत दिनकर वंदीई, सुगति-संपदसिउं चिर नंदीइ; इकमना प्रभु निसिदिनि ध्याइअइ, सयल वंछित जेहथी पाईअई. ११ जिन-गुण-स्तव दिन प्रति जे करइ, चिति अढार इ अक्षर संभरइ; सुगुरु संगति परि सघली गूहिइ, विविध वंळि(?) ते निश्चइ. १२ नवि लहइ कलि-कंदलि आपदा, स जिसि पामइ नवनिधि संपदा; चरण-लंछणि विसहर भणीइ, गुण अनंते प्रभु वखाणीइ. १३ करइ सेवा धरणिंद फणपती, नमइ वैरोट्या पदमावती; विकट संकट कोटि सदा हरइ, प्रभु-सुमूरति दीठइ मन ठरइ. १४ दीइ वंछित सुर-मणिनी परइं, जिन आराहउ अतिघण आदरइ; [...] १५ ॥ कलश ॥ इम सकल-सुख-कर पाप-तम-हर पास जिणवर ध्याअइ, भल-भाव आणी मधुर-वाणी स्वामिना गुण गाईअई, Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ मधुकर तणी परि प्रेम मनि धरि चरण-कमलई लागीइ, कहइ श्रीब्रह्म रंगिइं अचल संगई सदा सेवा मागीई. १६ ॥ इति श्रीस्तंभनकपार्श्वनाथस्तवनम् ॥ (ला.द. विद्यामन्दिर - १२२१) १२. श्रीसौभाग्यसूरि-शिष्य-रचित स्थम्भन-पार्श्व-स्तवन हां रे प्रभु वामा-नंदन जग ज्यो, तुं छे अनोपम दीनदयाल, थंभण पासजी; हां रे प्रभु-मुखडं तेजें दीपतुं, जांणे पुनम-चंद विसाल. १ थं० हां रे विकसित पंकज पांखडी, सोहे आंखडी अतीहें रसाल; हां रे तुझ नयणे हलपती तणा, तरे पाषाण जलधी मझार. २ हां रे अभयदेवसूरिंदना, तुझ नयणे (न्हवणे) नाठा रोग; हां रे ज्योगेंद्रे रस-सिद्धि करी, पांम्यो नीत-नवला संयोग. ३ हां रे अंतरयामी मनतणा, तुझ महिमा मेरु-समान; हां रे दिलभर नेक नीहालीयें, लहीइं त्रण-भुवन-सनमान. ४ हां रे प्रभु-दरीसण-सुखडी चाखीनें, मूझ हेल पडी जिनराज; हां रे पूरण सुख पांम्या वीना, हवें पलक न छोडुं पाय. ५ हां रे तुझ सेवा भणी माहरें, कांई रढ लागी छे जोय; । हां रे हवे मुझ सम त्रिण जगत में, अधिको नही सुखीयो कोय. ६ हां रे भोली भगते रीझवू, नीरवहेवो सुगुण-सनेह; हां रे सौभाग्यसूरीचा सीसनें; प्रगटें सूख आतमगेह. ७ ॥ इति स्थंभनपार्श्वजिनस्तवनं संपूर्णम् ॥ "OOOOOOOOOOO १३. श्रीकल्याणविजय-शिष्य-रचित पोसीना-पार्श्वनाथ-छन्द सरसति समरी कवि-जन-गुरुणी, वर-विद्या-रयण-रोहण-धरणी; पोसिणापुर वर पास तणी, गाउं कीरत महिमा य घणी. १ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ जान्युआरी- २०१९ अश्वसेन-नराधिप-वंश-मणी, चित-चिंतित-पूरण-देव-मणी; मानव-मन-मोहन तुहि जयो, तुझ मुख-शशि देखित हर्ष भयो. २ कलि-युग-मरुमां सुर-तरु सरिखो, फिरतां फिरतां में तुंहि नीरख्यो; हरख्यो मनमें परख्यो जब में, पायो साचो साहिब अब में. ३ सुर असुर नरेसर भमर परें, तुझ चरण-कमल नीत रमण करें; केशर चंदन घनशार घशी, नर नारी पुजे प्रेम हशी. ४ भविअण-कमलाकर-सूर समो, प्रह उठी प्रेमें पास नमो; भव-भावठ-भंजन तुहि मिल्यो, तिणे सयल मनोरथ मुझ फल्यो. ५ धन तुझ जननी वामारांणी, जीणे जनम्यो जीन बहु-गुण-खांणी; चंपक-वरणी जन-मन-हरणी, धन रांणी प्रभावति तुझ घरणी. ६ जस मन तुझ ध्यांने पूर (ध्यांन मयूर?) रहे, तस पातिक-पन्नग न रहे; सहजें मन-वंछित तेह लहें, अहनिश जे नर तुझ ध्यान रहें. ७ गुर्जर-धर-गोरी-भाल-तिलो, संखेश्वर-पास जिणंद भलो; मालव मगसी जन-मन-हरणो, मेवाडें नवपल्लव सूगुणो. ८ फलवधि फल-दायक मरुदेशें, नवखंड नमो सोरठदेशें; पूरव रावणसिंणगार यथा, राअदेश पोसिणो पास तथा. ९ खिला खंतिला रंग वली, तुझ मंदिर नाचे ललीय लली; कांमनी कणयरनी कंब जीसि, ताहरा गुण गाओ हसिय हसी. १० तुझ कीरत धवली जगत फिरें, नीसूणी सूर मानव चित्त ठरे; धरणीधर अहनिश सेव करें, पद्मावति संपद सकल करे. ११ संकट सघलां तुझ नांम टलें, तुझ नांमें लच्छि य आय मिले; तुझ नांमें नासें रोग सवे, दोहिल नांवें तुझ नांम भवे. १२ दीन दीन दोलत चढती करज्यो, सेवक-संकट सघलां हरज्यो; वीनति कहुं कर जोड घणी, तुं स्वामी सबल वीवेक-धणी. १३ जय वामा-नंदन मुनि-पवरो, जय भवियण-वंछित-कल्प-तरो; श्रीकल्याणविजय-गुरु-सीस कहे, जे सेवे ते नवनीधि लहे. १४ ॥ इति श्रीपार्श्वनाथछन्दः सम्पूर्णः ॥ (ला.द. विद्यामन्दिर - १८०३) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ अनुसन्धान-७६ १४. पार्श्वनाथस्तुति श्रीपार्श्वनाथं प्रणमामि देवं, देवासुरैर्वन्दितपादपद्मम् । पद्मावती-कल्पित-निर्विकल्पं, कल्पद्रुमाभं धरणेन्द्रपूज्यम् ॥१॥ ये प्रातिहार्य-कलिता कलि-ताप-मुक्ता, मुक्ताफलोज्ज्वल-यशः-परिपूरिताशा । मुक्ति प्रति प्रतिभवं भवनाधिनाशा, नासामितानहमहं दशमेव सिद्धयम् (?) ॥२॥ त्रिपदिवदतिबीजो मूलसिद्धान्तमूलो, गणधरमि(म)तिसंस्थिस्कन्धबन्धोपमागः ।। विटपिवदनयोगः पत्रपुष्पप्रकीर्णः, शिवसुखफलदः स्यात् श्रीश्रुतज्ञानवृक्षः ॥३॥ क्षुद्रोपद्रवरोगशोगहरिणी दारिद्रविद्राविणी, नागव्यग्रकरा फणत्रयधरा देहप्रभाभास्वरा । पातालाधिपतिप्रिया प्रणयनी चिन्तामणी देहिनां, श्रीमत्पार्श्वजिनेशशासनसुरी पद्मावती पातु वः ॥ ॥ इति श्रीपार्श्वनाथस्तुति ॥ (ला.द. विद्यामन्दिर - १६१५२) १५. श्रीजिनसुखसूरि-रचित गोडी-पार्श्वनाथ-स्तवन ॥ ढाल - लुंगी ल्याज्यो रे अहनी ॥ गुण गाज्यो रे, गुण गाज्यो रे... गोडीपुर-नायक लायक जिन-गुण गाज्यो रे... १ वामाजी हो नंदन वंदन नेह लगाज्यो रे... २ केसर कर धराय कचोलकि अंग रचाज्यो रे... ३ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ ३७ नव नव प्रभु आगलि नाटक नाच नवाज्यो रे... ४ मन-मोहन सोहन मूरति ध्यान धराज्यो रे... ५ सुख-कारण तारण समकित इम उपाज्यो रे... ६ जिनसुखसूरि कहै जिनजीनी जात्र जाज्यो रे... ७ ॥ इति श्रीगोडीपार्श्वनाथलघुस्तवनं ॥ * * * C/o. अतुल कापडिया ए-९, जागृति फ्लेट, पालडी, अमदावाद-७ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ अनुसन्धान-७६ स्तम्भतीर्थसत्क राजीआ-वाजीआ श्रावकनां सुकृतोतुं वर्णन करती भाषा-रचना (अपूर्ण) - सं. गणि सुयशचन्द्रविजय मुनि सुजसचन्द्रविजय पुरातत्त्वविद् जिनविजयजीए घणां वर्षों पूर्वे "प्राचीन जैन लेखसंग्रह" पुस्तकना बे भागनुं सम्पादन कर्यु हतुं. ते पुस्तकना बीजा भागमां तेमणे खम्भातना चिन्तामणि पार्श्वनाथ प्रभुना प्रासादना बे शिलालेखोने प्रकाशित कर्या हता. तेमांनो पहेलो शिलालेख काळा पाषाणपट्ट पर कोतराएलो हतो, जेमां मुख्यत्वे वि.सं. ११६५मां खम्भातमां श्रीचिन्तामणि पार्श्वनाथ प्रभुना जिनालयना निर्माणनी तेम ज वि.सं. १३५२मां ते ज जिनालयना जीर्णोद्धारनी विगतो नोंधायेली मळे छे. ज्यारे बीजो शिलालेख पू. प्र. कान्तिविजयजी म.ना हस्तलिखित प्रतसंग्रहमांथी तेमने मळ्यो जेमा चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालयनी प्रतिष्ठा वि.सं. १६४४मां राजीया तथा वाजीया - ए बे श्रावकोए कर्यानी नोंध मळे छे. जिनविजयजी ए लेखनी विगत त्यां नीचे मुजब टांके छ : "मूळ लेख क्यां आगळ आवेलो छे ते कांइ ए प्रतिमां लखेलुं नथी. परन्तु लेखमां आपेला वर्णन उपरथी समजी शकाय छे के ते खम्भातना चिन्तामणि पार्श्वनाथना मन्दिरनो होवो जोइए. आ लेखनी उपरनो (पहेलो) लेख पण चिन्तामणि पार्श्वनाथना मन्दिरमा ज आवेलो छे. परन्तु ते तो आना (बीजा लेख) करतां बहु जूनो जणाय छे. तेथी जणाय छे के आ (बीजा) लेखमां जणावेलुं चिन्तामणि पार्श्वनाथ- मन्दिर उपरना (पहेला) लेखमां सूचवेला मन्दिर करता जू, होवू जोइए. आ (बीजा) लेखमांनी हकीकत प्रमाणे तो स्पष्ट जणाय छे के ए मन्दिर नवीन ज बांधवामां आव्युं हतुं." आम जिनविजयजीना मत मुजब ते बन्ने शिलालेखो बे जुदा जुदा जिनालयना होवानुं स्पष्ट थाय छे. आपणे अहीं ते अंगे विचार करता पूर्वे तो बीजा शिलालेखनो सार जोईशुं. शिलालेख-सार : कविए काव्यनो प्रारम्भ प्रभु पार्श्वनाथ तेम ज महावीरस्वामी भगवाननां नोंध : हाथपोथी पर "श्रीहीरसूरीश्वरजी महाराजनां धर्मकृत्योर्नु वर्णन" एवं शीर्षक जोवा मळे छे. परन्तु कृति जोतां उपरनुं शीर्षक बांधेल छे. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ स्तुतिपद्यो द्वारा कर्यो छे. त्यार पछीना त्रीजा पद्यमां कविए प्रभु वीरनी शिष्यसन्ततिनुं वर्णन करी, चोथा-पांचमा पद्यमां आ. श्रीजगच्चन्द्रसूरिजीनी परम्पराना आ. श्रीहेमविमलसूरि तथा आ. श्रीआणन्दविमलसूरिजीना क्रियोद्धारनी विगतो रजू करी छे. हवे पछीनां बे पद्यो पू.आ. श्रीविजयदानसूरिजीना शिष्य आ. श्रीविजयहीरसूरिजीनां प्रशंसाकाव्यो छे. बादशाह अकबरना निमन्त्रणथी पू.आ. श्रीविजयहीरविजयसूरिजी फतेपुरसिक्री पधार्या त्यारे तेमनाथी प्रभावित थई सम्राट अकबरे करेला सत्कार्योनी नोंधो ८ थी १२ पद्योमा छे तो १३मा पद्यमां सूरिजी वडे प्रतिबोधित लोंकागच्छीय ऋषि मेघजीना शिष्यत्वनी वात गुंथाई छे. त्यार पछीनां ९ पद्यो विजयसेनसूरिजीना गुणवैभवने वर्णवता गुरुस्तुतिनां अन्तिम पद्यो छे. पछीनां ६ पद्योमा कविए गंधारना श्रावक परीख राजीया तथा वाजीयानी वंशावलीनुं तेम ज गंधार छोडी खम्भात स्थिर थतां तेमनी वधती सौभाग्यलक्ष्मीनुं स्वरूप वर्णव्युं छे. धर्मकार्योमां तत्पर ते बन्ने श्रावको वडे कराएलां सत्कार्योनी वर्णना माटे कवि त्यार पछीनां २८ पद्यो फाळवे छे. आ वर्णनमा मुख्यत्वे वि.सं. १६४४मां आ. श्रीविजयसेनसूरिजीना वरदहस्ते ४१ आंगलनी श्रीचिन्तामणि पार्श्वनाथ प्रभुनी तेम ज वीर प्रभुनी प्रतिमा प्रतिष्ठित थयानी विगतो आलेखाई छे. तो ते सिवाय जिनालयनी सुन्दरताने वधारतां अन्य २५ जिनबिम्बो, १२ स्थम्भो, ६ द्वारो, ७ नानी देवकुलिकाओ, २ द्वारपाळनी मूर्तिओनी वर्णना पण त्यां वर्णवाई छे. ते ज रीते जिनालयमा २५ पगथियां भूगर्भमां ऊतरतां भोयरामा ३७ अंगुलप्रमाण आदिनाथ प्रभुना, ३३ अंगुलप्रमाण महावीरस्वामीजीना तथा २७ अंगुलप्रमाण शान्तिनाथ प्रभुना जिनबिम्बनी तेम ज त्यांनी शोभा वधारती नानी नानी २६ देवकुलिकाओ, गणेश (पार्श्वयक्ष?), २ द्वारपाळ, ४ चामरधारी, १० हाथी अने ८ सिंहाकृतिओनी पण अहीं नोंध कराई छे. काव्यमा प्रान्ते कविए पोतानी गुरुपरम्पराना, शिलालेख पर लेख लखी आपनारना तेम ज कोतरी आपनारना नामोल्लेखपूर्वक ते शिलालेख- समापन कर्यु छे. उपरोक्त लेखमा उल्लेखित संवत् आदिना आधारे ज जिनविजयजीए ते बन्ने चैत्योने जुदां कल्प्यां छे. जो आपणे तेमनी दृष्टिए विचारीए तो शिलालेखना ३९मा पद्यमां कविए "व्यधायि चिन्तामणिपार्श्वचैत्य" ए पदथी, तेम ज कृतिना अन्तमा लिखित "प. वाजिया प. राजिया नामसहोदरनिर्मापित-श्रीचिन्तामणिपार्श्वनाथजिनपुङ्गवप्रासादप्रशस्ति" ए वाक्य द्वारा नवा जिनालयना निर्माणनो निर्देश कर्यो होवानुं जणाय छे. परन्तु अहीं नवं एटले तद्दन नवु एवो अर्थ करवानो छे के नवं Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ एटले जीर्णोद्धार करी फरी ऊभुं करेलु एवो अर्थ समजवानो ते प्रश्न तो ऊभो ज रहे छे. जो के हमणां थोडा समय पूर्वे खम्भातना अमरशाळाना ज्ञानमन्दिर हस्तलिखित विभागमांथी "श्रीहीरसूरीश्वरजी महाराजनां धर्मकार्योनुं वर्णन" नामनी एक अपूर्ण हस्तप्रत मळी, जे प्रतमां खम्भातना चिन्तामणिपार्श्वनाथ प्रभुना जिनालयनी तेम ज शेठ राजीया-वाजीयानां सत्कार्योनी केटलीक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक नोंधो हती. ते प्रतमांथी ज उपरोक्त बाबतनो खुलासो मळ्यो. अहीं ते बाबतना उल्लेख साथे ते कृतिनो पण परिचय अमे आपीए छीए. प्रस्तुत कृतिनो सार : प्रस्तुत कृति अपूर्ण होवा छतां ऐतिहासिक दृष्टिए खूब ज महत्त्वनी छे. कविए कृतिनी शरुआतनी ५ ढाळमां तेमज छठ्ठी ढाळनां ७ पद्यो सुधी चिन्तामणि पार्श्वनाथनी स्तवना आलेखी छे. जो के आ स्तवना शब्दथी स्वतन्त्र रचना भले होय परन्तु भावथी कहो के अर्थथी ते उपरोक्त संस्कृत शिलालेखनी अनुवादात्मक रचना ज छे. कविए अहीं शिलालेखनां पद्योने आंख सामे राखी गाथाक्रम मुजब ज कृतिनुं गुर्जर पद्यस्वरूप विकसाव्युं छे. विशेषमां कविए "सूरिजीनी देशनाथी प्रभावित थई राजीया तथा वाजीया - ए बे श्रावकोए आदरपूर्वक नवं जिनालय मंडाव्युं" एवा भावनां पद्यो द्वारा नवा जिनालयना निर्माणनी स्पष्टता करी छे. त्यार पछी ते ज ढाळनी आठमी गाथाथी कविए खम्भातना ते बे शेठराजीया तथा वाजीयानां सत्कार्यों पर विशेष प्रकाश पाथरवानो प्रयत्न करवा ते बे शेठे भाणोजी नामना गृहस्थने कशुं आप्यानी, नारंगा पार्श्वनाथनी प्रतिष्ठा कर्यानी तेम ज जिनालयना भोयराने कहलबंध (?) कर्यानी विगतो नोंधी छे. तो ते ज गाथाना त्रूटकछन्दवाळा पद्यमां ते शेठना गृहजिनालयमां मणिरत्नना चोवीसवट्टा (चोवीसी)नी तथा पित्तळ-कनकना पंचतीर्थी शान्तिनाथ प्रभुनी प्रतिमा स्थाप्यानो पण त्यां उल्लेख कर्यो छे. त्यार पछीनी गाथा ते बन्ने शेठ वडे निर्माण करायेला गोहा बंदर पासेना बांदोडइ गाममां नेमिनाथ तथा करहेडा पार्श्वनाथ प्रभुना प्रासादना, गंधारना नवपल्लव पार्श्वनाथ प्रभुना प्रासादना तथा भेजा गामना ऋषभदेव प्रभुना प्रासादनिर्माणना नामोल्लेखवाळी छे. आ ज गाथामां कविए ते श्रेष्ठिओ द्वारा कुल ७ चैत्यो निर्माण करायानी तथा जीर्णोद्धारमां पण तेओ वडे घणुं द्रव्य खरचायानी विगतो आलेखी छे. ढाळना अन्तिम पद्यना पूर्वार्धमां कवि आ बन्ने श्रेष्ठिओ वडे राणकपुरनी दक्षिणे चौमुख स्थपायानी तेमज अन्य पण आवा सेंकडो जिनबिम्बो प्रतिष्ठित करायानी नोंध करे छे तो उत्तरार्धमां श्रेष्ठिओ वडे साते क्षेत्रमा खर्चाता द्रव्यनी, अठ्ठाइ आदि Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ पर्वाराधनानी, तेमज संघयात्रा कराव्यानी विगतो आपवा पूर्वक ढाळनुं समापन करे छे. हवेनी छेल्ली ढाळ कविए 'जावड समरी उद्धार' ए देशी रागमां ढाळी छे. आ ढाळमां मुख्यत्वे कवि वडे प्रतिष्ठा प्रसंगे करायेला व्यवहारधर्मनो उल्लेख करायो छे जेमां, प्रतिष्ठानी कंकोत्रीओ मोकली महाजनने तेडाववं, गुरु भगवन्तोने पधराववा, प्रतिष्ठानिमित्ते सुवर्णमुद्रानी लहाणी करावी, अमारिनी उद्घोषणा कराववी, स्वामिवात्सल्य करवा इत्यादि व्यवहारधर्मनी वातो कविए आलेखी छे. आ ज ढाळना आठथी अग्यारमा पद्य सुधी कवि ते श्रेष्ठिओनी राजकीय बुद्धिप्रतिभानुं वर्णन आलेखे छे. जहांगीर वडे ते श्रेष्ठिओ परतकालपति(?)ना देशमां मोकलाया त्यारे त्यां पण तेओए ते राजाने खुश करी, अमारि-पडह वगाडावी लोकोने धर्मनो मार्ग बताव्यो. अहीं ११मा पद्यमां करेली कविनी नोंध मुजब ते श्रेष्ठिओए करावेली अमारिनी आज्ञा कृतिकारना समय सुधी ते गाममां पळाती हती ते बीना विशेष नोंधपात्र छे. त्यारपछीनां पद्योमां कविए ते श्रावकोए करेलां तीर्थयात्रा, सुपात्रदान, पौषधशाळा तथा दानशाळा निर्माण, अनुकम्पा, शत्रुजयादि ५ तीर्थोमां चैत्यनिर्माण, ज्ञानभण्डार-सर्जन तथा जीर्णोद्धारनां कार्योनी सामान्य नोंध आपी छेल्लां ४ पद्यो द्वारा कृति-रचना समये प्राप्त थती चिन्तामणि पार्श्वनाथ प्रभुना जिनमन्दिरनी तत्कालीन अवस्थानुं वर्णन रजू क£ छे. कविनी नोंध मुजब ते समये जिनालयना भोयरामां स्तम्भन पार्श्वनाथनी, ऋषभदेवनी, शान्तिनाथजीनी, धरणेन्द्र तथा पद्मावतीनी तथा यक्ष-यक्षिणीनी प्रतिमा बिराजमान हती. जेनी संवत् १७८५मां जीवीबाईए पूजा पण करी हती. जो के अहीं सागवटा पाडाना आ जिनालय, वर्णन करतां शेष पद्यो प्रत अधूरी रहेवाना कारणे अप्राप्य होई कृतिनाम अस्पष्ट रहे छे. तो कर्ता, तेना रचनासमय विशे पण काव्यमांथी कशुं जाणी शकातुं नथी. जो के जीवीबाईनी पूजा कर्यानी संवत् परथी कृतिनी रचना त्यार पछी ज थई होवानुं निश्चित थाय छे. प्रान्ते, प्रस्तुत कृतिनी जो सम्पूर्ण हस्तप्रत प्राप्त थाय तो कृतिनी शेष विगतो पर प्रकाश पडे. सम्पादनार्थे प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रतनी नकल आपवा बदल खम्भातना अमरशाळा जैन ज्ञानभण्डारना व्यवस्थापकश्रीनो, प्रो. कीर्तिभाईनो तेम ज मनुदादानो खूब खूब आभार. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ अनुसन्धान-७६ श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ।। ॥ ढाल - शासनदेवीय पाय पणमेविय गाइसू रिषभ वीवाहलो ए - ए देशी ॥ सकल मंगल तणां नंदनवन घणां, सींचवा पुष्कर-जलधरू ए, पास चिन्तामणी कामित-सुरमणि, पूरवा भविजन जयकरू ए, पास जख्य जेहनो शांम नि शुभमनो, परताय पूरण परगडो ए, देव धरणिंद पदमावती जस पदि, सेव सारइ चितें परवडो ए त्रूटक अति वडा परता भुवनमांहि ठाम ठामइं दीपता, तेहना चरण-सरोज प्रणमी कर्म सविनइं जीपता, दीपतुं शासन वलीय जेहनुं वर्धमान जिणंदमुं, जागतुं तेहनुं दूसम मांहिं तेज जिम दिणंद- १ जेहनु उत्तम गौतम गोत्र छइं इंद्रभूति ज वडा गणधरू ए, सोहमसामि छई पंचम गणधर पाटि थापइ तस जयकरू ए, निग्रंथ बिरुद आठ पाट लगइं ते चल्युं कौटिक बिरुद नवम सूरिजी ए, चंद्रगच्छ बिरुद थयुं पनरमी पाटिथी प्रगटिउं चंद्रसूरि थकी ए. बेटक सोलमइं पार्टि बिरुद बीजु पणि कयुं वनवासथी, पांत्रीस पाटि लगइं तेह चाल्युं पूर्ण प्रवचनवासथी, वडगछ नामइ बिरुद छठं कर्तुं त्रेतालीस पट लगई, महाराज-राज-राणइ बिरुद दीधुं महा-तपा इति सहु वगई २ ॥ ढाल || राग - गोडी ॥ जंबूद्वीप मझारि - ए देशी ॥ चिमालीसमई पाटि, जगतचंद्रसूरीसर, तपा बिरुद जिणें धारीउं ए १ संवत बारने मानि, वरस पंचासीइ (१२८५), तिहांथी जगी जस विस्तर्यो ए २ पंचांगी अनुसारि, किरियां साचवइं, - थाप उथाप न जेहनइं ए ३ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ ४३ पणयालीसमई पाटिं, श्रीदेवेंद्रसूरि थया, धारक बहुय प्रवचन तणा ए ४ कर्मग्रंथनई भाष्य, प्रकरण बहु कर्यां, विधि सामाचारी वली ए ५ इम बहुविधई थया सूरि, पाट-परंपरा, शासननइं दीपावता ए ६ अनुक्रमई सगवन पाटि, थया सूरीसर, श्रीआणंदविमल वडा ए ७ कीधो निर्मल मार्ग, किरिया उद्धरी, शिथिल-पंथ जिणि अपहर्यो ए ८ तपा बिरुद जिणि वरू, कीबूं उज्जलं, __ पूरव मुनि ओपम लहइ ए ९ ॥ सर्व गाथा - ११ ॥ ढाल - ३ ॥ कंत [त] माखू परिहरो - ए देशी श्रीविजयदानसूरीसरू, तस पटि प्रगट्या दिणंद महाराज, अढी लाख जिण-बिंबनी, करी प्रतिष्ठा सुखकंद ॥ १ धन धन साधु परंपरा तस पदि पटि पूर्वाचलई, उदयो अभिनव भाण महाराज, श्रीहीरविजयसूरीसरू, केतां करुं हुं वखाण ॥ २ धन.... संवत सोल उगुणच्यालमइं (१६३९), साहि अकब्बर राणि महाराज, फत्तेपुरमा तेडिया, पाउधार्या गुरु गुणखाणि ॥ ३ धन... दर्शनना सवि पूछीया, धर्म तणा आचार महाराज, पंच महाव्रतनो कह्यो, आगम-अर्थ उदार ॥ ४ धन... निर्दोषी परमारथी, पंच प्रकारि शुद्ध महाराज, नाम' थापनारे द्रव्य भाव थी, मुद्रादिकई अविरुद्ध ॥ ५ धन... ते देव तस वयणइं चलइ, निःस्पृह साचा वयण महाराज, ते गुरु धर्म अनाशंसथी, कर्म करई सवि खीण ॥ ६ धन... Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अनुसन्धान-७६ इणि परि याम अढी लगइ, कीधी धर्मनी गौष्ठि महाराज, श्रीअकब्बर साहेजी, कहइ तुम धर्म विशिष्ठ ॥ ७ धन... षणमासि जीव अमारिनो, पडह वजावइ ताम महाराज, डामर सरनां मूंकावीयां, जाल सकल सुखकामि ॥ ८ धन... जे(जी)जीओ कर वली मूंकीउ, मृतक तणो वली द्रव्य महाराज, आपि अभख्य मांसादिक म(घ?)णां, ते मूक्यां थई भव्य ॥ ९ धन... देश अढारिं थापीयां, अमारि तणां फुरमान महाराज, श्री पजूसण महा पर्वनां, बार दिवसनई मानि ॥ १० धन... श्रीसिद्धाचलतीर्थनो, कर मूंकाव्यो जेणि महाराज, लुंकापति ऋषि मेघजी, सीख थया जिण वंदण ॥ ११ धन... उद्योतविजय नाम थापीठं, मेघजी ऋषितुं आपि महाराज, जगतगुरु बिरुद थापीओ, श्री साहिइं गुरु तुं निःपाप ॥ १२ धन... त्रिण चोमासां तिहां करी, कर्यो शासनि उद्योत महाराज, तपा बिरुद अजूयालीउं, काढी कुमतनी छोति ॥ १३ धन... ॥ सर्व गाथा - २४ ॥ ॥ ढाल - ४ ॥ राग - केदारो ॥ कपूर होइं अति ऊजलू - ए देशी ।। तस पदि पट्ट-धुरंधरू रे, श्रीविजयसेनसूरिंद, जे कलियुगमां सरस्वती रे, समवडइ बिरुद अमंद रे १ भविका! प्रणमो एह मुणिंद, जिम होइ परमाणंद रे, भविका... [आंचली] श्रीशाहिजीइं तेडावीया रे, ते गुरुनई निज पासि, भट्ट निशाट परि कर्या रे, यज्ञ ते नरकना वास रे २ भविका... मास षटक लगई तेहनो रे, वाद थयो साहि हजूर, जीति थई जिन-मत तणी रे, वागां मंगल तूर रे ३ भविका... बिरुद सवाई-जगतगुरु तणुं रे, दीधुं धरी उल्हासि, पूरव पत्र फरमान सवे रे, आव्यां श्रीगुरु पासि रे ४ भविका... गौ वृष महिष मेषादिका रे, पशु हणवाना नेम, श्रीसाहिजीइं आपई कर्या रे, कीधा जंतुनइं खेम रे ५ भविका... Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ ते गुरु विहरता जयवंता रे, पावन करइ भूपीठ, तेहनइं उपदेशइं थयां रे, धर्म-करणी उत्कृष्ट रे, कहुं सुणयो ते मीठ रे ६ भविका... जलधि-तटइं मनोहर अछइं रे, बंदिर श्रीगंधार, लखमी-लीला-विलासथी रे, सुरपुरीनइं अनुकार ७ भविका... तिहां श्रीश्रीमाली कुलिई रे, व्यवहारी वसइ छेक, परीख आलणसी नामथी रे, वारू विनय विवेक ८ भविका... परीख धनु सुत तेहनो रे, वेहलणसी तस पुत्र, मोहणसी सुत तेहनो रे, सुत समरसी पवित्र रे ९ भविका... अर्जुन परीख सुत तेहनो, भीमजी अंगज तास, न्याय-निपुण जस बुद्धि छ; रे, लालू घरणी तास रे १० भविका... परीख जसाओ सुत जेहनो रे, जिम सुरपतीनइं जयंत, धर्म सुपर्व वाहला घणां रे, शोभा [ता]स महंत रे ११ भविका... जसमादे तेहनी प्रिया रे, जिम लक्ष्मी हरि गेहि, विधिपूर्वक सवि आचरइ रे, पुण्य कर्म बहु नेहि रे १२ भविका... अनुक्रमइ बेहु सुत तस थया रे, वजीओ प्रथमन नाम. राजीओ बीजो जाणीइ रे, मानुं बे अर्थनई काम रे १३ भविका... सोभागदे पहिला सुत तणी रे, धणीयाणी गुणखाणि, कमलादेवी अपरनी रे, बेहु बंधु स्त्री अभिराम रे १४ भविका... साह वजीया सुत मेघजी रे, मोटइ मनि दातार, धरमी मर्म लहइ भला रे, इम जेहना परिवार रे १५ भविका... वारू लज्जा सहरमां रे, करता पुण्य-व्यापार, साचवतां सुख भोगवइ रे, ग्याता गुण-आगार रे १६ भविका... ॥ सर्वगाथा - ४० ॥ ॥ ढाल - ५ ॥ एकवीसानी ॥ हवइं आवइ रे अनुक्रमई तिहांथी संचर्या, सवाई-जगतगुरु-बिरुदधारी तपागछ अलवसरू, वंदिया तेहना चरण-पंकज पाप टालइ कर्मना, देशना निसुणइं भाव आणी जाणी पुण्यना मर्मना Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अनुसन्धान-७६ तिहां पूज्या रे प्रणम्या बहु हर्षइ करी, प्रभावना रे साहमीवछल दिल धरी, तिहां मधुरी रे भाषइ गुरुनी देशना, दिल आणी रे सुणइ श्रावक देश-देशना. त्रूटक देशनां मांहि नृपति संप्रति आम नृप कुमर नरिंद ए, श्रीविमलनई वस्तुपाल तेजम भीम आभू आणंद ए, श्रीधरणसाह उछाह साथइ कर्या करणी धर्मनां, प्रासादनां संघाधिपतिनां करी तीर्थ प्रभावना. ३ संघवी रतनजी रे कर्मासाह प्रमुख बहु, गुणवंता रे तीर्थ-प्रभावक ए सहू, ईम निसुणी रे हरख्या मनमां अति घणां, मनि चिंतइ रे ए करणी सवि आपणु. बेटक खांपणुं धननइं एह सोढुं छतइ सुठामि न जोडीइ, कांम-भोगई खरचीइ धन ते पुण्य फलनई वोडीइ, उपदेश धारी चित उदारइ करी धर्मे थापना, स्थंभतीर्थे अनेक शुभ करी नाम अजूयाल्यां बापना. ४ बिहु भाईइ रे चैत्य अतिहिं आदर करी, मंडाव्युं रे जाणी अभिनव सुरगिरी, मांहिं थाप्या रे श्रीचिन्तामणि पास जी, सिरइं सोहइ रे सात फणां सहवास जी. त्रूटक आस पूरई मनह चिंतित दिइ जिम चिन्तामणी, तेहथी अधिक प्रभाव जाणी पास नाम चिन्तामणी, एकतालीस(४१) अंगुल प्रमाणइ प्रभो मूरति पेखीइ, सात फण मिसि सात भुवननां तिमिर-टालण लेखीइ. ५ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ ४७ बीजु देउल रे वीर जिणेसरनुं कडं, तेत्रीस (३३) अंगुल रे तास प्रमाणइं तनुं धर्यु, मूरति ऋषभनी रे सातत्रीस (३७) अंगुल माननी, श्रीशांतिनी रे मूरति मुनिगुण (२७) अंगुल माननी. त्रूटक एह मूरति भूमिघरमां बनावी बहु हेजसूं, श्रीपास थंन(भ)ण भुवन-मंडण बिंब सूरिज तेजसूं, पंचवीस किरिया-गमन हेतइं मनु पंचवीस सोपान छइ, भविक जनना पाप सघलां प्रभो दर्शनथी गछइ ६ प्रभो पासथी रे मंगल मूर्ति पंचवीस छई, मनु भावनी(ना) रे पंच महाव्रतनी रुचई, सात भुवनना रे सातइ भयनइं टालवा, मनु थाप्या रे विघनहरा गणपति हवा. त्रूटक: हवी सात देवकुलिका मनु विमान सात ऋषि तणां, प्र[भु] सेवानई काजि आव्यां दिउ लोकोत्तर सुख घणां, yहरामा भाव सघला इम बनाव्या बहु पर्रि, सागवट्टा पाडामांहिं संप्रति महिमा विस्तरइ. ७ देरे भाणोजीनइं आपीया, नारंगो रे पासजी पासे थापीआ, भला भांतिइ रे कहलबंध कयुं भूहरु, भविजननां रे देखीनइ चितडां ठर्या, बेटक कर्यु निज घर- देहरास[र] बिंब तिहां मणि रयणनां, चोवीसवट्टा पंच तीरथ प्रमुख पीतल कणयनां, शांतिनाथ जिणंद थाप्या घर तणइं देहरासरई, नित नवा मनोरथ करइ मनमां वित्त शुभ चित्तइं वावरइ. ८ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ x अनुसन्धान-७६ बांदोडइ रे गोहा बंदिरनइ पासे छइ, तिहां देउल रे दोइ कराव्यां मनि रुचइ, एकइ नेमिजी रे बीजइ करहडो पास जी, सवि भवि जनना रे वंछित परइ खास जी. पास श्रीनवपल्लव केरुं गंधार बंदिरमा कर्यु, भेजा गामइं एक देउल ऋषभदेवइं परवर्यु, सात भुवननई भूषण सरिखा सात प्रासाद कारावीया, जीर्ण-उद्धार तो बहुत ठामइ वित्त परिघल वावीया. ९ दखिण पासई रे चोमुख एक राणकपुरइं, भराव्युं रे बिब एक हर्षइं करी, इम बहुविध रे बिंब भराव्यां आदरई, वली साहमइ रे वित्त संख्या कहो कुण करइ. त्रूटक : भरइ पुण्य-भंडार इति परि सात खेत्र समारता, अठाइ प्रमुख अनेक पर्वइ पुण्य-प्रकृति आराधता, आबू अनई शेजेज गौडी प्रमुख तीरथ यातरा, श्रीसंघपतिनां बिरुद धरीनइं कीधी अति वड यातरा. ॥ सर्व गाथा - ५० ॥ ॥ ढाल - ६ ॥ जावड समरी उद्धार - ए देशी ॥ हवइ चिंतइ बेहु भाई, करीइ प्रतिष्ठ सजा(वा?)ई, लिखी कंकोतरी सघलइ, साधर्मिक जन मेलइ. १ गुज्जर-धर वली बंदिर, अनेक महाजन परिकर, खंभनयरइं मनि भावइ, वली गछराज तेडावइ. २ श्रीहीरगुरुना पट्टोधर, श्रीविजयसेनसूरीसर, शतारथी सुखकंद, गीतारथ बहु-वंद. ३ संवत सोल चिमालीसइ, (१६४४) वर्षे शुभकर दिवसइ, जेठ सुदि बारसि गुरुयोगइ, सवि शुभ लगननई जोगइ. ४ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ बिंब प्रतिष्ठा करावी, ............. ..............., कंचनमुद्रा लहणी. ५ पडह अमारिना घोषइ, साहमी-जन सवि पोषइ, बहु परि इम जस लीधो, तीरथ ओछव कीधो. ६ रयण-मणि-बिंब थापइ, देहरासरि दुख कापइ, इम चिहु खंडि थया चावा, बिहु भाई सम ठावा. ७ अनुक्रमइ साही जहांगीर, भेली हियडानुं हीर, परतकालपति देशइं, मोकलई बेहु भाई सुविशेसइं. ८ तिहां पणि धर्मनी वात, कीधो बहु अवदात, जीव-अमारिना वाजा, वजडावइ घणा ताजा. ९ परतकालपति हरख्यो, कहइ तुम सम कोइ न निरख्यो, आमिष त्याग कराव्या, धर्मना मार्ग बताव्या. १० आज लगई तस देशइ, आण तणा छइ गुण वेशइ, बहुमानइं इहां आवइ, खंभनयरनइं सोहावइ. ११ करी सिद्धाचल यात्र, पोष्या बहुविध पात्र, उपाश्रय पोषधशाला, विरचावइ दानशाला. १२ उद्धरइ दीननई दुखीआ, सकतिइं कीधा ते सुखीआ, निज धन ठाम ठामइ आपइ, तीरथ साहायनइं थापइ. १३ श्रीसेजेज गिरनार, तिम वली धरणविहार, दीव बंदिरनइं गि(गं)धार, धनना विरचइ विहार. १४ ज्ञानना भ(न)व भंडार, समराव्या वली सार, इम बहु कीधी ए करणी, कीर्ति न जावइ ए तरणी. १५ ॥ सर्व गाथा - ६५॥ संप्रति मँहरमां अछइ, श्रीथंभणजी पास, ऋषभदेवनइं श्रीशांतिजिन, बेठा छइ बेहु पासि. १ सतर पंचासी (१७८५) वरिसमां, आणी अधिक प्रमोद, जीवीबाईइ जुगतिसूं, करी पूजा विविय विनोद. २ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० अनुसन्धान-७६ धरणराय पदमावती, तेहना दीसइ पट्ट, शासनना जख्य जख्यिणी, करइ सदा गहगट्ट. ३ सागवटा पाडामांहि, यात्र करइं भवि लोक, पूजइं प्रणमई भावसूं, मली महाजनना थोक. ४ शांम - श्याम परताय - परचा चल्युं - चाल्यु वगई - बोलवू अनाशंस - कामनारहित याम - समयनुं माप प्रहर मणां - (?) छोति - छोतरां निशाट - निशाचर छेक - दक्ष खांपर्यु - खांपण शब्दकोश सोढुं - ? गछइ - जाय छे. हवा - हता कहलबंध - ? साहमइ - सामैयुं समारता - सज्ज करवू सजाई - ? शतारथी - शतार्थी, १०० अर्थ १ श्लोकना करी आपे ते लहणी - लाहणी, प्रभावना Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ श्रीविबुधविमलसूरि-कृत पूजाकाव्यो - सं. शी. जैन मन्दिरोमां पूजाओ भणाववानी एक प्रणालिका छे. तेमां साधारण रीते ८ प्रकारनी ८ पूजा होय छे. दरेक पूजाने आरम्भे दूहा, अने अन्ते काव्य तथा मन्त्र बोलवानो नियम छे. सामान्य रीते पूजाना रचनार कवि द्वारा ज ते काव्यो रचाय छे. ते संस्कृतमां होय छे. पण्डित शुभ-वीरे रचेली ६४ प्रकारी पूजामां आठ आठ पूजाना आठ जोडा छे. तेमां दरेक पूजाने अन्ते बे-बे काव्यो बोलाय छे. ते काव्यो पूजाना दरेक जोडामा प्रयोजातां होय छे. आ काव्यो अत्यारे तो अशुद्ध छपाय छे ने बोलाय छे. आ काव्यो कोना बनावेलां होय? एवो प्रश्न क्यारेक मनमां थया करतो. हमणां, थोडां वर्ष पूर्वे, एक मुद्रित प्रति हाथमां आवेली. तेमां तपागच्छनी 'विमल' शाखाना साधु-कविओए बनावेली केटलीक रचनाओ हती. तेमां आ पूजा-काव्यो पण हतां. ६४ पूजामां जो के २-२ काव्य बोलाय छे, परन्तु आमां तो ते पैकी १-१ ज काव्य जोवा मळे छे! आनो शो उकेल ? आनो उकेल ए के ८x२=१६ पैकी प्रथम क्रमे बोलातां ८ काव्यो आ. विबुधविमलसूरि-रचित छे, अने बीजा क्रमे बोलातां ८ काव्यो स्वयं पूजाकर्ताएशुभवीरे बनावेलां होय एम मानी शकाय. प्रथम क्रमे बोलातां ८ काव्यो घणां अशुद्ध रूपमां मळे छे ने बोलातां रहे छे. प्रस्तुत वाचनामां ते शुद्ध रुपमा उपलब्ध होवाथी अत्रे पुनः प्रकाशित करवामां आवे छे. मुद्रित प्रतिमां आ काव्योने "अष्टप्रकारपूजागर्भितश्रीजिनेश्वराष्टकम्" एवां नामे ओळखाववामां आवेल छे. तेना कर्ता श्रीविबुधविमलसूरि महाराज छे, जे विमलगच्छना प्रायः १९मा शतकमां थयेला एक विद्वान् आचार्य छे. विशेष विगत हाल हाथवगी न होवाथी आपी शकाती नथी. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ ६४ प्रकारी पूजानां काव्यो ॥ अथ श्रीमत्तपागच्छाचार्यश्रीविबुधविमलसूरिविरचितम् ।। ॥ अष्टप्रकारपूजागर्भितश्रीजिनेश्वराष्टकम् ॥ ॥ द्रुतविलम्बितवृत्तम् ॥ जिनपतेर्वरगन्धसुपूजनं, जनिजरामरणोद्भवभीतिहत् । सकलरोगवियोगविपद्धरं, कुरु करेण सदा निजपावनम् ॥१॥ सुमनसां गतिदायिविधायिनां, सुमनसां निकरैः प्रभुपूजनम् । सुमनसा सुमनोगुणसङ्गिना, जन! विधेहि निधेहि मनोऽर्चने ॥२॥ क्षितितलेऽक्षतशर्मनिदानकं, गणिवरस्य पुरोऽक्षतमण्डलम् । क्षतजनिर्मितदेहनिवारणं, भवपयोधिसमुद्धरणोद्यतम् ॥३॥ भवति दीपशिखापरिमोचनं, त्रिभुवनेश्वरसद्मनि शोभनम् । स्वतनुकान्तिकरं तिमिरं हरं, जगति मङ्गलकारणमान्तरम् ॥४॥ शिवतरोः फलदानपरैर्नवै-वरफलैः किल पूजय तीर्थपम् । त्रिदशनाथनतक्रमपङ्कजं, निहतमोहमहीधरमण्डनम् ॥५॥ अगुरुमुख्यमनोहरवस्तुनः, स्वनिरुपाधिगुणौघविधायिनः । प्रभुशरीरसुगन्धसुहेतुना, रचय धूपनपूजनमर्हतः ॥६॥ सुरनदीजलपूर्णघटैर्घनै-घुसृणमिश्रितवारिभृतैः परैः । स्त्रपय तीर्थकृतं गुणवारिधि, विमलतां क्रियतां च निजात्मनः ॥७॥ अनशनं तु ममास्त्विति बुद्धितो, रुचिरभोजनसञ्चितभाजनम् । अनुदिनं विधिना जिनमन्दिरे, शुभमते! बत ढौकय चेतसा ॥८॥ अष्टप्रकारां मुनिनाथपूजां, यो देहधारी विदधाति नित्यम् । अर्हत्पदं प्राप्य स याति मुक्ति, तत् पूजय त्वं विबुधेश्वरेशम् ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ बालचन्दमुनि-कृत शीखामणबत्रीशीछन्द - सं. साध्वी समयप्रज्ञाश्री व्रजभाषा अने मनहरछन्दमां रचायेली आ “शिखामणबत्रीशी" नामक कृतिमां मानवभवने सफळ करे तेवा लगभग २०थी वधु मुद्दे शिखामण अपाई छे. 'शिखामण' ओ जो के, दुनियानी ओक ओवी चीज छे के जे विना मूल्ये मळती होवा छतां ते लेवी/सांभळवी प्रायः नापसंद होय छे. ओटले, आम जोइओ तो कोइपण कर्ता माटे 'शिखामण' - ओ पडकाररूप विषय गणाय. छतां, अहीं कविले आ कृति माटे ज विषय पसंद को अने अन्य कृतिओनी जेम आ पण लोकभोग्य बने ते रीते आनी रचना करी छे अ आनन्दनी वात छे. अहीं देव-गुरु-धर्मना स्वरूपवर्णनथी प्रारम्भीने मानवभवनी दुर्लभताने समजावी छे. कल्पवृक्ष, चिन्तामणीरत्न व. उपमाओथी अने ओळे न गुमाववानी वात करी छे. आनुषंगिकपणे गर्भावस्था, वृद्धावस्था, आयुष्यनी अस्थिरता, संसारनी निःसारता जेवी बाबतोने वणी लीधी छे. संसारनां पांच मुख्य पापो हिंसा, जूठ, अस्तेय, अब्रह्म ने परिग्रहने त्यजवानुं तेम ज तेना प्रतिपक्षी अभयदान, सत्य व. पांच गुणोने जीवनमा आदरवार्नु जणाव्युं छे. एवी ज रीते क्रोधादि ४ कषायोने छंडवानुं समजावी छेल्ले दान, शील, तप, भावरूप धर्मनो प्रभाव/उपादेयता वर्णवीने पोतानी वात पूर्ण करी छे. प्रथम अने अन्तिम कडीना उल्लेख मुजब आ कृतिनी रचना संवत १६८५मां अमदावाद नगरे मुनिश्री गंगदासजीना शिष्य मुनि बालचन्द द्वारा थई छे. आ 'शिखामणबत्रीशी' वाचकोने/तमने पसंद आवशे. केम के, कविले आमां "ट्रंकुं ने टच" वाळी शैली अपनावी छे. वली, घणे ठेकाणे ओ वातोने पुष्ट करतां जाणीतां दृष्टान्तोनुं पण निर्देशन कर्यु छे. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ अनुसन्धान-७६ श्री अरिहंतदेव देव करि जाणी, जाकें क्रोध नही मूर, मान-माया-लोभ दूरि, कर्म कीए चकचूरि, जिन मोह नाणीइं । जाकुं नमें इंद-चंद, सुरिंद-मुणिंद-वृंद, नंत है गुणहिं जिणंद, त्रिभुवन मानीयें । जाकुं हइ अनंतज्ञान, देत हइ मुगतिदांन, अहनिस ताकुं ध्यान, मनमांहिं आंणीइं । भणे मुनि बालचंद, सुणो भविकवृंद, श्रीअरिहंतदेव देव करि जांणीइं ॥१॥ अजर अमर परमेसरकुं ध्याईइ, सकल पातिकहर, विमल केवलधर, जाकुं वास सिवपुर, तासुं लव लाइयै । नाद-विंद-रूप-रंग, पाणी(णि) पाद उतमंग, आदि अंत नहीं भंग, जाकुं नहीं पाइयै । संघेण संथांण जाण, नही कोइ अनुमान, ताहीकौं करत ध्यान, शिवपुर जाईयै ॥ भणे मु० ॥२॥ तरणतारण गुरु तारें भवपार ए, पांचें इंद्री संवरत, नवविध ब्रह्मव्रत, धरत त्यजत नित, क्रोधादिक च्यार ए । महाव्रत पंच धार, पालई है पंचाचार, सुमति गुपति सार, मात जयकार ए । ऐंसें गुंणइं गुरु होई, षटकाय पालई जोई, गौतम उपम सोइ, मुगतिदातार ए ॥ भणें ॥३॥ जगि एक जीवदया धर्म सुखदाई है, धर्महीऋद्धि-वृद्धि, धर्मही” नव-निधि, धर्मही” सयल सिद्ध, बहु जीव पाई है। धर्मही” देवलोक, धर्महीतें सहु थोक, ईहलोक-परलोक, धर्म ही सखाई है । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ ५५ ताकुं नमें सुरवर, नरवर बहु पर, धर्महीसुं जेण नर, एक लव लाई है ॥ भणे० ॥४॥ उठ उठ धर्म कर सोवई मुढ कहा रे, दुतर सागर तर, कोई तट पायकर, सोवै तिहां निंदभर, फरि आवै इहा रे । संसारसागरमांहि, जाकुं आदि-अंत नाही, भ्रमत-भ्रमत तांहिं, पुदगल जिहां रे । काठो हे मानवभव, नीठ मुढ पायो अव, सोवै मत खीण लव, चेतकर ईहां रे ॥ भ० ॥५॥ सुरतरु काटकर आक वावि तेह रे, चिन्तामणि पाय कर, मुढ ताकुं परहरै, काच ग्रहै रंगभर, तासुं करैं नेह रे । गजपति वेच करि, सो तो मुढ लेत खर, पावै नांही फेर-फेर, मुंह परें खेह रे । महामुढ कोत सोइ, कामभोगरत्त होइं, हारे है रतन जोई, मानुषको देह रे ॥ भ० ॥६॥ उतमको संग कर नीच संग टालकइं, देखहु सागर संग, खारी होत महागंग, नींब भी चंदनगंध, चंदनधु भालिकै । जात खीर होत नीर, ताकौं मिल जसो वीर, सो भी ठर जात खीर, निज गुण गालिकै । पात्र विणा तारे वार, टालें रक्त कुविकार, तुंबभेद भए च्यार, भिन संग चालकै ॥ भ० ॥७॥ घडी-घडी मुढ तेरो आउ-जल जात है, कारिमउ कुटंब एह, काहेकुं धरत नेह, हारे है मनुष्यदेह, फेर क्यौं उपाय है । माय-ताय घर-बार, पुत्र-बहू परिवार, आवे नही तोरी लार, जासौं मन लाय है । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ अनुसन्धान-७६ एक हित सीख सुनि, धर्म करि एक मनि, मानवभव रतन, काहेकौं गमाय है ॥ भ० ॥८॥ उदमद कहा भयो करत क्यों न ग्यान रे, उपजत गर्भवास, वस्यो सवा नव मास, नरक ही ओपम जास, दःख अहिठांण रे । अठ कौडि सोइ होमि, चांपै को रोम-रोम, आठ गुण प्रतिलोम, गर्भदुःख जाण रे । अब तउ जनम पाय, संसार की लागी वाय, फरि क्यौं रह्यो लोभाय, तुं तो है अजाण रे ॥ भ० ॥९॥ जरा दुरि जब लगि तब लगि जग रे, जरा जब आये लग, लाल परि मुख मग, दंत गए सब भग, डगमग पग रे । जरा आई गई बुद्धि, नांहि रहि कछू शुद्धि, रोग लागइ विध-विध, जरा परो धिग रे । कह्यो कोई माने नही, दुःख धरें मनमांहि, जोबनकी दिश गई, उठि धर्म लगि रे ॥ भ० ॥१०॥ यम को विश्वास नांहि मुढ तुं संभाल रे, काहें भूलें देख भाल, चेतउ क्यों न प्राणी लाल, ग्रहिस्यें दुर्जनकाल, बाल ही गोपाल रे । सरग-पाताल जाय, ओषध-भेषज खाय, करइ बहू दाय-पाय, तो हि ग्रहिस्यइ काल रे । घटत-घटत जात, पल-घडी दिन-राति, आउखउ गलत भ्रात, करत जंजाल रे ॥ भ० ॥११॥ संसार असार है सार एक धर्म रे, संसार असार एह, दीसत प्रभात ते(जे)ह, सांझ समै नांहि तेह, काहे पड्यो भ्रम रे । कहा करै मेरो-मेरो, सगो नांहि कोई तेरो, जीव एकलो फिरे, भुंचै नीच कर्म रे । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ ५७ संसार सागर घोर, खाणि भ्रमैं जीव ठौर, कीधौं नांहि सर्म [...] रे ॥ भ० ॥१२॥ आप समो राखउ प्राण हिंसा दूरि टालिकइं, हिंसा इह अनरर्थ खाणि, हिंसा तिहां पाप जाणि, जीवहिंसा छोडि प्राण, राग-द्वेष गालिकें । हिंसा हितें रोग-सोग, खांण-पीण हीण भोग, बहू दुःख सहइ लोग, हिंसाहीतई भालकें, सयंभुम चक्रवर्ति, देखउ जमदगपुत्त, सातमी नरग पत्त, हिंसाहीतई भालकें ॥ भ० ॥१३।। अभयदान षटकाय-जीवनकुं दीजीयइ, अभयदान वडो धर्म, टालें हे दुकृत कर्म, उ रहै मिथ्या भर्म, काहेकौं जे कीजीयै । देखउ राख्यो पारपति, मेघरथ नरपति, सींचाणाकुं कहइ नृप, मेरो मंस लीजीइ । अभयदान दीयउ तिन, चक्रवति हूउ जिन, जिन शांतिनाथ दिन-दिन, त्रिभुवन पूजीइ ॥ भ० ॥१४॥ काहेकुं बोलत इह जूठ निराताल रे, झूठी भाषा माहादुष्ट, पापहीकुं करइ पुष्ट, लोक सहु करइ षष्ठ, तुं तो है लबाड रे । झूठाबोलउ कहइ लोय, मानें न वचन कोय, तीरयंच होत सोय, आगम संभाल रे । देखो वसुराजा भोर, मीसर वचन बोल, सातमी नरग घोर, गयउ करी काल रे ॥ भ० ॥१५॥ विमल वचन सहू सुखकार है, विमल वचन भण्य, सुखदाई सहू जन, जानुकि सुनत कन, अमृतकी धार है। सिध जे साधक नर, ताकी विद्या सिध कर, संसेवित मुनिवर, सत्य जग सार है, Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ सत्य थई पावक जल, महोदधि होत थल, दुष्ट [...] विष विषधर अपहार रे ॥ भ० ॥१६॥ चोरी कोई करो मत चोरीथी विनाश रे. चोरीइं लिइ राजदंड, मारि करि सतखंड, गाधि चडि शिरमुंड, फेरवत तास रे । मारि मारि करि जन्न, आरत करत मन्न, राजन ततखिन, देत गलें पास रे । देखउ अभंगसेन, चोर वध पायउ तेन, कुटंब सहित जेन, कीयउ नरकवास रे ॥ भ० ॥१७॥ पाईए अमरपद दत्त व्रत पालतइं, देखउ हो अमडसीस, संख्या वीसी पइंत्रीस, ज्येष्ठ मासे एक दिस, पंथ शिर चालतइ । त्रिषा लागी परबल, पीयो नांहि गंगजल, व्रत पाल्यउ निरमल, दुषणके टालतइं । सातसें काल करी, हूया महर्द्धिक सुर, साखि लाभइ इणि परि, आगम संभलतई ॥ भ० ॥१८॥ म म करि म म करि परनारी संग रे, परनारी देखि करी, कटाक्ष नयण भरि, आपद पावत नर, दीपकुं पतंग रे । खिणमात होत सुख, देखइ भवशत दुःख, करत विषय विष, सूरतिको भंग रे । फिट फिट करइ लोइ, अजस-कीरति होइ, रमणि कारण जोइ, होत मोटा जंग रे ॥ भ० ॥१९॥ शीलव्रत पालउ जिम शिवपुरि जाइए, शीलहीतई नमइ देव, सुर नर सारइ सेव, शीलवंत नित्यमेव, देव हीयूं ध्याईइ । देखउ हो सुदरसण, शील पाल्यो एकमन्न, सीलहीतई त्रिभुवन्न, जस गुण गाईयइ । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ सीलथई संकट टलई, संपदकुं आय मिलइ, जउ समकित भलइ, तउ किहां पाईयइ ॥ भ० ॥२०॥ अति घण परिग्रह दुःख ही कुं हेत हे, कोइ नर नरपति, चलत्त परनमत्त, परिग्रह देखि मित्त, साथ नांहि लेत हइ । देखउ क्युं न ब्रह्मदत्त, सयंभुम चक्रवर्त्त, सातमी नरग पत्त, सूत साखि देत हइ । खान-पीन भाईबंध, पाप चढइ तोरइ कंध, काहे मूढ होत अंध, हीय कच्छू चेत हइ ॥ भ० ॥२१॥ संतोष करत जीव नित सुख पायहइ, संतोष करत नर, दुःखको सागर तरि, परम आणंद घर, ततक्षन आय है । देखो धुं कपिल मुनि, संतोष करत जिन्नि, पायो हइ केवलधन्न, धन्न गुणगाइ हैं । जिनवर गणधर, मुनिवर संतोष करि, [...] शिवपुर जाय है ॥ भणइ० ॥२२॥ क्रोध हइ अनरथ मूल क्रोध दूरि छोडि रे, क्रोधथई नरक जाय, वाघ-सिंघ-सर्प थाय, क्रोधहीतें भ्रम लाइ, भव कोडाकोडि रे । क्रोधहीतें प्रीत जाइ, क्रोधहीतई विष खाइ, क्रोध बहु दुःखदाय, जीव आणि खोडि रे । क्रोधकी उपनी झाल, जूओ समैं ततकाल, करि राखउ आलमाल, पीछा मन छोडि रे ॥ भ० ॥२३॥ खिमा करउ भरपूरि म म करउ रीस रे, खिमाहीसुं वैर जाइ, दुसमन लागइ पाइ, त्रिभुवन जस थाइ, सही विसावीस रे । देखो धुं गयसुकुमाल, खिमा करि क्रोध मारी संसारको पायउ पार, वंदु निसदीस रे । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० अनुसन्धान-७६ राय परदेशी धन्न, खिमा करी एकमन्न, देवलोक पायउ तिन्न, पूरे हई जगीस रे ॥ भ० ॥२४॥ काहेकुं करत हइ मूढ अहंकार रे, लक्ष्मी तउ नांही थिर, आत जात फिरि फिरि, जुव्वण भी जात खिर, तुं तो हइ गमार रे । जाहीकुं करत गर्व, सोइ विउ जात सर्व, पावइ नांही ओही दर्ता, सोतो वार वार रे । राव हीतइं रांक होइ, रांक हीतइं राव होइ, थिर रहि नांहि कोइ, अथिर संसार रे ॥ भ० ॥२५॥ म म करि गूढ माया कूड ही कपट्ट रे, मायाथई नरक घोर, मायाहीतइं होत ढोर, मायाहीतइ पावइ जोर, दुःखहीतई घट्ट रे । जउ करत परद्रोह, मंडत कपट मोह, आपकुं सो खणि खोह, काहे होत जट्ट रे । हियइ कछु चेत करि, माया-मोह परिहरि, संसार सागर तरि तई तो पायो तट्ट रे ॥ भ० ॥२६॥ सुख होत लोभवसि करत्त करत्त रे, लोभहीतइं राति-दिन्न, चिंतइ मेलु-मेलुं धन्न, दुःख होत लोभ मन्न, धरत्त-धरत्त रे । जोरइ धन्न रुल्ल-रुल्ल, आयु घट्टइ पल्ल-पल्ल, जात यु अंजल जल, झरत्त-झरत्त रे । सुभुम प्रमुख भुप, करते जे दोरधूप, छोडि गए लोभ कूप, भरत्त-भरत्त रे ॥ भ० ॥२७॥ लोभ मुढ कहा करइ देत कुं न दान रे, दान शिवसुखदाय, दानथई दालिद जाइ, घरइं नवनिधि थाइ, मांने राय-रांण रे । दान देवू चित्त लाय, दानें धनवृद्धि थाइ, जइसई वाडी कूप गाय, होत वर्द्धमान रे । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ देखो धुं सुमुख जन्नि, प्रतिलाभ्यो महामुनि, कुमर सुबाहु तिन्न, रूपको निधान रे ॥भ० ॥२८॥ बडो व्रत व्रतमांहि शीलवत जांण रे, सागर आगरमांहि, सयंभु उदधिमांहि, वडो दान दानमांहि, अभय जुं दांन रे । चंद्र ग्रह-गणमांहि, ब्रह्मलोक कल्पमाहि, वडो ग्यांन ज्ञानमांहि, केवल युं ज्ञान रे । अरिहंत मुनिमांहि, मनोरम्य गिरांमांहि, वडो ध्यान ध्यानमांहि, शुकल युं ध्यान रे || भ० ॥२९॥ भवकोडि-कृतकर्म तपहीतइं टालीइ, तपथई वंछितफल, होत जीव निरमल, तप दावानल, कर्मवन बालीइ । देखु धन्नो अणगार, दुक्खर तपकार, छोडिकें बत्रीस नारि, जेन व्रत पालीइ । सागर तेत्रीस वर, हूउ अनुत्तरसुर, जाकि गुण रूप जल, आतम पखालीइ ॥ भ० ॥३०॥ भावहीतई होत सिद्धि भाव हइ प्रधान रे, बहुविध व्रत लीध, तप करि दांन दीध, भाव विना नांहि सिद्ध, होत फलहांनि रे । शुभ भावइ भावि जेह, भवनिधि तरह तेह, पाउ युं मुगति गेह, भरत राजान रे । मरुदेवी मात धन्न, दुक्खर तप विण, शिवपद पायो जिण, ध्याइ शुभ ध्यान रे ॥ भ० ॥३१॥ धर्म इह मंगल-मूल धर्महीतुं सेव रे, धर्म हइ कल्पवृक्ष, देखउ जातइ परतक्ष, भोगवइ हइ लोक लक्ष, सुख नित्यमेव रे । धर्म कइ उत्तम फल, जाति कुल रूप बल, विकट-संकट टलें, जात ततखेव रे । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अनुसन्धान-७६ धर्मइं दुकृत दहइ, इंद्रादिक पद लहइ, धर्मे शिवसुख [...] कहंत देव रे ॥भणइ० ॥३२॥ महाणंद सुखकंदरूप छंद जाणीइ, श्रीरुपजीवगणि, कुंयर श्रीमल्लमुनि, रतनसीह यशधणी, त्रिभुवन मानीइ । विमल [शा]सन जास, मुनि श्रीगंगदास, हस्त दीख्यत तास, बत्रीसी वखाणीइ, बाण-वसु-रस-चंद [१६८५], दीवाली मंगलवृंद, अहम्मदावादेंद, रंग मनि आणीइ ॥ भणइ० ॥३३॥ ॥ इति श्री छंद सम्पूर्णम् ॥ or m 3 कडी १ मूर = मूळ २ संथांण = संस्थान ३ सुमति = समिति ५ दुतर = दुस्तर ६ कोत = केम ९ उदमद = उन्मत्तना अर्थमां १४ पारपति = पारेवो अघरा शब्दो कडी १५ निराताल = नराताळ / सरासर १८ वीसी पइंत्रीस = ७०० २५ विठ = वंठेल २६ खणिखोह = क्षोभ २७ रुल्ल = रोळवू २७ दोरधूप = दोडधाम C/o. शशीकान्त दोशी A-1005, शत्रुजय टावर अडाजण पाटिया सूरत-७ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ गूढा-प्रहेलिका-समस्या-हरियाली - ४ - सं. उपा. भुवनचन्द्र जूना जमानामां हाथपोथी-नोंधपोथी (डायरी) जेवं हतुं नहि; रसिकजन के विद्वानोने जे नोंधी राखवू होय ते छूटां (प्रकीर्ण) पत्र, गुटका, नानी-नानी चबरखी वगेरेमां अने क्यारेक तो अन्य प्रतना अंते खाली जग्या होय त्यां लखी राखता. स्तवन, सज्झाय, दूहा, स्तोत्र वगेरे रचनाओ सर्वप्रथम कागळना टूकडाओमां लखाती. आवा टूकडा पण प्रकीर्णपत्रोनी पोथीओमां सचवाता रह्या छे. आवी रचनाओनी प्रतिलिपि पण घणीवार थवा नथी पामती. तेथी ए रचनानी एक मात्र प्रति ज बची होय एवं बने. उत्तम कक्षानां स्तोत्रो वगेरेनी एक ज प्रति मळी होय एवं जोवा मळे. आम प्रकीर्णपत्र, गुटका वगेरे अप्रगट रचनाओनो मोटो स्रोत बनी रहे छे. गूढा, हरियाली जेवी रचनाओ मुख्यत्वे आ स्रोतमांथी मळे छे. क्यारेक आवी रचनाओ, २-४ पत्रोनुं संकलन पण मळी आवे. आवा स्रोतोमांथी एकत्र करेल गूढा आदिनुं एक चयन अहीं सम्पादित करीने मूक्युं छे. प्रहेलिका - षोडश नयनसरोजा-न्यष्टौ मुखपङ्कजानि पादौ द्वौ । पञ्चदश यस्य जिह्वा जीवद्वयमस्तु वः सिद्ध्यै ॥ [ कीस पयं अवरोलं गामं किंकारणेण धणइड्ढे । सुहडो कीस न गिणइ खग्गं समरंगणे पडिउं ॥ [करहीनं] अंब-जंब-अंबिलीए लगइ, करणे केले द्राख न लगइ । लग लग कहतां किमइ न लगइ, मा मा कहतां घणेरु लगइ ॥ [होठ] जलसुय तस सुय तास सुय, तस वल्लही म मंडि । पिय अक्खइ धण अग्गलि, कइ छंडिसि कइ छंडि ॥ [वेढि (वेड,कलह)] अहि-नउलाण य नेहो, जो नेहो मूसय-बिडालस्स । दीव-पयंगयनेहो, सो नेहो अम्ह तुम्हस्स ॥ [अहि-नकुल = सर्प अने महादेव; मूषक-बिडाल = उंदर अने गणेश; दीव-पयंग = द्वीप अने सूर्य] Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ अनुसन्धान-७६ नारीद्वयं यत्र नरास्त्रयो हि, शृङ्गद्वयं पुच्छयुगं च यत्र । नवाधिकं नेत्रसहस्रयुग्मं, दशैव पादा दिशतात् स राज्यम् ॥ [ ] ग्राम उद्वसितः केन, केन रक्ताः पयोधराः ।। आम्रफलं सुपक्वं च, कथं खादन्ति मानवाः ॥ [करपीडनेन] आद्येन हीना लघुमानरूपा, मध्येन हीना प्रविभासमाना । अन्त्येन हीना कृशदुर्वहा स्यात्, सम्पूर्णनाम्नी भवतां मुदे सा ॥ [भारती] गोवाहनस्य प्रभवस्य वाहनं, तद्भोजनस्याऽशनसन्ततेः प्रभोः । तस्या अरिस्तस्य प्रभुशत्रुमाता, भवेद् गृहे सा हृदये च तत्पतिः ॥ [लक्ष्मी-विष्णु] अपदो दूरगामी च साक्षरो न च पण्डितः । मौनी संसूक्तिवक्ता च समुद्रो वारिवर्जितः ॥ [लेखः] वर्तुलं वृन्तसंयुक्तं सक्षीरं पत्रवर्जितम् । पतितं न भूमौ याति जानीहि किमिदं फलम् ॥ [कुचः] गूढा : राज काज गूण आगलो, भीतर चंगी देह, पीयु पधारो चोवटे, मोकल देजो तेह. [नारीयेळ] आभा सरीखो उजलो, तारा सरीखो घाट; मिरगानेणी मोलवे, गांधी केरे हाट. [काच] कूख कालो मुख उजलो, चले भोपाला संग; सुंदर दीसे सोभती, विचित्र उनका रंग. [हाथी] रातो फूल गुलाबरो, मांहि धवल चितरीया, चालो सखी सरवर जइये, नर बांध्यो अस्तरीयां. [लाल माटीनो घडो] काजल वरणो हे सखी, मीलीयो एक पुरुष; बोलणवालो को नहीं, रोवणवाला लख. [मेघ] जल जाइ थल उपनी, वनमें कीयो वसाव; पहेरण कसूंबल कापडा, काजल अधीक बणाव. [चीरमी/चणोठी] एक नारी नवरंगी चंगी, गूणवंति ते गोरी; मूरख सेती मुख न बोले, माथे बांधी दोरी. [पोथी] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ एक नारी नवरंगी, नव नाडा लटकावे; मरदा आगल बाजी खेले, वाही नार केवावे. [तांकडी] बालपने सबके मन भावे, बडा भया कच्छू काम न आवे; कह दीया उसी का नाम, कहो अरथ कै छोडो गाम. [दीया] पथर सुतकी पूतली, वन सुतको घरवास; जे जीयारे मन वसे, ते तीयारे पास. [तरवार] नव लख जाया नव लख पेट, नव लख रमे वडला हेट: चींतवू ओर जणूं, काल पडे जद केता करूं. [तीड] सरवर भरियो खूब जल, सुंदर बेठी पार; सरवर सूको सुंदर गइ, सुरता करो विचार. [दीवो] नानको नगर, फूल को फगर; सुपारीयारो सुकाल, पानरो पड्यो दुकाल. [केरां] धुर कारतीक फागण बीच, जलरो लीजे छेह; पीयू पधारो परदेशमें, मोकल दीजे तेह. [कागल] अणी तीखी मूख वंकडा, सूखा पंख जीसा; पीयू पधारो परदेशमें, लाइज्यो आप इसा. [पाननुं बीडूं] सुको लकडो हे सखी!, में फल लागो दीठ; खावे तो जीवे नहि, जीवे तो नीठ नीठ. [बरछी] चीहूं नारी नर नीपजे, चीहूं नरे नारी होय; हे नर होवे पाधरो, गंज न सके कोय. [दौत?] पांच पगे हाथी चले, पथरवरणी काया; इण गाथानो अरथ सुणायने, पग उपाडो भाया. [काचबो] एक नारी नवरंगी चंगी, पहेरे नवरंग साडी; नाक फाडन फूली घाली, चारे चंग उघाडी. [सोय] अरध नाम दरबार को, वर कागद को तात; सो तूम हमकू दीजीये, सो होवे दीनानाथ. [दरसन] राधावरके कर वसे, अक्षर पंच लखसोय; आदको अक्षर छोडके, बचे सो हम कू देय. [सु-दरसन] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ शीवसूत माता नामके, अक्षर चार धरेय; मध्यको अक्षर छोडके, सो तूम हमको देय. [पा(र)वती] धरम तणो जे सार छे, उपरांठो धरजो; परदेशां जावो जरां, थें म्हानें करजो. [याद] आद दहे अंत दहे, मध्य रहे इण मांय; तुम दरसन बीन होत है, तूम दरसन ते जात. [दरद] गोर शीखरो नीपजे, उर मंडन जे होय; सो तो कांइ न साधीयो, जिम जीवित सो कोय. [?] हाल हालवो भूइ पातली, लीखनहार सुजाण; हाथै वावे मुखे लूणे, तेना करे वखाण. [अक्षर] चंचल रुख अनेक फल, फल फल जूदा नाम; तोड्या पछे पाकसी, कहो उन रुख को नाम. [चाकडो, कुंभ] बिन पगल्या परवत चढे, बिन दांतां खड खाय; हुं तूने पूर्छ हे सखी, ए कीस्यो जानवर जाय. [अग्नि] समुद्र कांठे नीपजे, बीन माली फल होय; छत्तीसांको सायबो, सखी पारे होय तो जोय. [लूण] जल बिन वधे वेलडी, जल वधे कुमलाय; जो जल नेडो करे, जडा मूलसुं जाय. [तृषा] गगन सिखा मारीए, परदेशां मेले भेट; वाणीया ब्राह्मण खावे कालजो, इणको संसो देवे मेट. [केरी] आठ पाव दोय पेट हो, मोरा उपर पूछ; इण गूढानो अरथ कहो, नहिंतर केने राखो मूंछ. [तराजू] एकने पग एक हे, एकने पग चार; सारो जगतनो ढांकणौ, पंडित करो विचार. [कपास, झींडQ] शाम वदन मूख मोर, रहे कुंजवन मांय; माथे वांको मूगट है, वो श्रीकृष्ण नाय. [वेंगन] मूख काली अंग उजली, सुंदर बहु सरुप; ओढन पीली पामरी, माथे नहि केस अनुप. [कलम] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ सोल सहस शीष है, नेत्र बतीस हजार; चोखट सहस चरण है, पंडित करो विचार. [चंद्र] सुख सरोवर बहोत जल, कमल अनंत अपार; उन जल कमल न निपजे, पंडित करो विचार. [?] कागदसे कटका करे, मन सुं झोला खाय; राजा पूछे राणीने, यो किस्यो जनावर जाय. [?] बाप बेटो एक नाम, बेटो फिरे गामो गाम; बेटे जाइ बेटी, जीकी धूल लपेटी, बेटी जायो बाप, जीको पून्य हे न पाप [आंबो] नीचे सरवर उपर तता, बिचमें लंबक लंबा है; चलो चलो नर देखन जावां, उसका नामपे पेला है... [होको] अंग गरम मूख चरचरा, फूल सुगंधि वास; बलिहारी उस रुखने, समूदा बीच रही वास. [लविंग] च्यार शीस बीच खोपरी, सामवरण शीरकोर; मंगो मोल मंजूसमें, श्रोता करो विचार. [लविंग] तंबा सुत रिपू तास गुरु, ता भखको अश्वार; ता जननी पत आभरण मख, तस सुतसा(सों?) जूहार. [रामने जुहार] अजा सहेली तास रीपू, ता जननी भरतार; ता का सूत का मीत्रकू, समरो वारंवार. [श्रीकृष्ण] नेन अढार खट चरण, तीन भुज जीव चार; रसना ताके नव भइ, सुरता करो विचार. [?] करको बाजो कर सूणे, सरवण सुणे नहि तांह; अरथ करो छ मास लग, कहे अकबर साह. [नाडीनो धबकार] समस्यामय स्तवन - कवण पातालि निवसंति नरनइं सदा, स्यउं घणउं भाखियइ जिणवरिइं परखदा; भुजगगति किणि हुइ सयल जगि सुखकरो, कवण परचक्रना भीम जण भय हरो. १ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ कवण डाहउ सदा आपणउ द्यइ नही, जीपिवउ कवण संसारि साचउ सही; धर्मनी गोठि कहि मूरख स्यउं ग्रहइ, जगत्रना जीवनी उपमा कुण लहइ. २ वाणियउ भमत व्यापारि वंछइ किस्यउं, रायनइ रिद्धिनइ वृद्धि आपइ किस्यउं; जीवनउ घातक जीवनउं स्यउं हणइ, जीव उपगारनइ हेति गुरु स्यउं भणइ. ३ रवि तणउ क्षेत्र स्यउं विष्णु-आयुध किस्यउं, जीवना वृंद जलमांहि बहु जल किस्यउं; सुरतणउ वास जे तासु स्यउं भाखियइ, खीरनउ सार स्यउं जाणि जगि राखियइ. ४ वणसइ नीपनउ मधुर सुर कुण करइ, सत्रुनइ जीपिवा किसउं एकठ सरइ; हरि तणी घरणी कुण धरणी मंडल कही, एहनउ भाव डाहउ कहउ को लही. ५ ओली इकवीस बि-बि अक्षर मंडियइ, तेहनउ आगिलउ अक्षर छंडियइ; प्रथम अक्षरि लहउ नाम जगि जेहनउ, तेहनइ समरणि पाप क्षय देहनउ. निरमल वाणी भवीयण जाणी सेवकनी तुम्हि मनि धरउ, वसु अंबर कलसमि अहनिसि नमि नमी लीलई भवसायर तरउ. इति वीतराग स्तवन उकेल : १. नाग ६. गल ११. णीति १६. तिमि २१. उमा २. गर्व ७. रिपु १२. प्राण १७. नाक ३. उरि ८. छल १३. साता १८. थर ४. रिखि ९. जल १४. दिन १९. वंश ५. नग १०. लाभ १५. संख २०. दल Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ आ शब्दोना प्रथमाक्षरथी वाक्य बने - नागउरि नगरि छजलाणी प्रासादि संतिनाथ वंदउ. हरियाली - (१) जिणि विणु जगमांहि विष्णु न ब्रह्मा, जिणि विणु नर नहु नारी, जिण विण पवन न पाणी न पुहवी, जिणि विण तरु न संसारि, विदुर विचारियइ हो, सुधउ जिनकउ धर्म; न्यानहीण न पामइ तिनकउ, न लहइ तिनकउ मर्म... विदुर० १ जिणि विणु जिणवर गणधर नही, जिणि विणु बोध न साध; जिण विणु मोह न माया ऊपजइ, सोइ अर्थ मई लाध... विदुर० २ जिण विणु सिद्ध न साधक शंकर, जिण विणु माइ न बाप; तिणि करि कलह कलंतर वाधइ, जिण मांड्यउ जगि व्याप... विदुर० ३ द्रव्य-भाव भेदइ करि राखइ, जे नर-नारी आज; हापराज वाचक इम बोलइ सरस्यइ तेहना काज... विदुर० ४ [ ? ] (सागरचन्द्रसूरि ज्ञानभण्डार, क्र. ८६/१३४२ पार्श्वग. जै. संघ, खम्भात) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० अनुसन्धान-७६ (२) (राग : धन्यासी) चेतउ ओक पुरुष दोइ नारी रे, मई पेखी पुहवी मंजारी; ते तउ नरि नर सरसी नाथी रे, दोइ चालइ सरसी साथी. १ कहु कहु हरियाली सारी रे, कुण पुरुष कवण ते नारी; दोइ सउकि समाणी दीठी रे, ते तउ कलह करती मीठी. २ सिर फूमतडी फुरकावइ रे, नाचती अवर नचावइ; जव संपइ थाइ सोई रे, तव नयणि न जोवइ कोइ. ३ गंगाजल सरिखी गोरी रे, बिहुं वसवा ओक ज ओरी; ते जाण सरिसीं गोठिं रे, रस अमीय निज होठिं. ४ ओ तु लाख कोडि लखवारी रे, पुत्र प्रसवइ बालकुंयारी, बटकंती लाड गहिली रे, बिहुं सरखी छई साहेली; लावण्य समय कहइ सोइ रे, लहु जाण होइ ते जोइ. ५ (बे चरण खूटे छे) [ ? ] (प्रकीर्ण पत्र) C/o. जैन देरासर नानी खाखर-३७०४३५. जि. कच्छ * * * Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ जान्युआरी- २०१९ गढा-प्रहेलिका-समस्या-प्रहेलिका-हरियाली - ५ - सं. उपा. भुवनचन्द्र समस्या प्रकारनां काव्यो लोकप्रिय तो छे ज, कविप्रिय पण छे ज. महाकविओए पण समस्या तथा समस्यापूर्ति जेवा प्रकारो पर कलम चलावी छे. समस्याने मळतो आवतो एक काव्यप्रकार छ – कूटकाव्य. व्याकरण अने शब्दकोशना प्रखर ज्ञानने प्रदर्शित करवानो अवसर एमां पूरो मळे, साथे सामे पक्षे श्रोता-वाचकना ज्ञानने आह्वान पण ए द्वारा आपी शकाय. बौद्धिक व्यायाम अने बौद्धिक आनन्द पण एजें एक जमापासुं गणाय. चित्रकाव्य माटे पण आम कही शकाय. महाकाव्योमा एकाद सर्ग आवा कूटकाव्य / चित्रकाव्यनो रचवानी एक परिपाटी ऊभी थई गई हती. परवर्ती काळे अपभ्रंश अने देश्य भाषाओना चरिउ, प्रबन्ध अने रासा जेवी कृतिओमां पण प्रहेलिका अने समस्याओने स्थान अपातुं रह्यु. लोककविओए तो आ प्रकारने खूब चगाव्यो छे. कूटकाव्य अने चित्रकाव्य विद्वद्भोग्य छे, ज्यारे समस्या / प्रहेलिकामा सामान्यबुद्धि-सामान्यज्ञान अने कल्पनाशक्तिने कामे लगाडवानी थाय. ह.लि. ग्रन्थालयोनी प्रकीर्ण पत्रोनी पोथीओमां विखराएली आवी समस्यागूढा-प्रहेलिकानो एक संचय अहीं प्रस्तुत छे. प्रहेलिका - अपूर्वोऽयं मया दृष्टः, कान्ते कमललोचने । सौमध्ये यदि जानासि, भवामि तव किंकरः ॥ [ ] काहमस्मि गुहा वक्ति प्रश्नेऽमुष्मिन् किमुत्तरम् । कथमुक्तं न जानासि कदर्थयसि किं सखे! ॥ [ ] पण्डितस्य सदापायं संसारपरिवर्धने । जिनेन्द्रवचने यस्य तस्य जन्म निरर्थकम् ॥ [ ] लावण्यं क्व नु योषितां नभसि के संचारमातन्वते । केषामुच्चतरा भवन्ति निनदाः कस्यां शशी शोभते । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ अनुसन्धान-७६ केषु स्वं प्रकटीकरोति भगवान् सीतापतिः पौरुषं मत्प्रश्नोत्तरमध्यवर्णविलसन्स्त्वां पातु सीतापतिः ॥ [स्वपुंसि, उडगाः, दरीणां, राकायां, रक्षस्सु] [पुण्डरीकाक्षः] कः खे चरति का रम्या, को ध्येयः किं विभूषणम् । को वन्द्यः कीदृशी लंका, वीरमर्कटकम्पिता ॥ [वी, रमा, ऋ, कटक, पिता] के रक्षन्तु गवां गणं गतधनप्राप्तौ च किं जायते, खे गच्छन्ति च के क्व रुद् गजकटान् भिन्दन्ति के वै बलात् । बालायाः कथमंशुके क्व रमते ना कासु सिद्धाः स्थिराः मत्प्रश्नोत्तरमध्यवर्णरचिताच्चाशीः समुज्जृम्भताम् ।। [गोपालाः, कौतुकम्, पत्रिणः, रिपुषु, तरक्षाः, कौसुम्भे, सुन्दर्याम्, दरीषु, पातु त्रिपुरसुन्दरी] देवराजो मया दृष्टो वारिवारिणि मस्तके । भक्षयित्वार्कपत्राणि विषं पीत्वा क्षयं गतः ॥ [ ] रम्ये वसन्तसमये वद किं तरूणां किं क्षीयते विरहिणामुरगः किमेति । . किं कुर्वते मधुकरा मधुपानलुब्धाः कीदृग् वनं करिवरास्त्वरितं त्यजन्ति ॥ [दलं, बलं, बिलं, कलं, दवविकलम] को निर्दग्धस्त्रिपुररिपुणा कश्च कर्णस्य हन्ता, नद्याः कूलं विघटयति कः कः परस्त्रीरतश्च । कः सन्नद्धो भवति समरे भूषणं किं कुचानां, किं दुस्संगाद् भवति महतां मानपूजापहारः ॥ [मारः, नरः, पूरः, जारः, परः, हारः, मानपूजापहारः] अगजामातृजामातृ-पुत्रपत्राशनान्तकृत् । भ्रातृभर्तृसुतस्यारेः सूतो वो दुरितं हियात् ॥ [अगजा = गौरी; मातृ = मेना; जामातृ = शिव; पुत्र = षण्मुख; पत्र = वाहन(मयूर); पत्राशन = गरुड; भ्रातृ = भाई (गरुडनो भाइ अरुण); भर्तृ = स्वामी (सूर्य); सुत = पुत्र (सूर्यनो पुत्र कर्ण); अरेः = शत्रु (अर्जुन); Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ सूत = सारथि = कृष्ण]. सहसगो-दोसहसगो बार-अट्ठ-चउदसगो। एसो रक्खतु वो देवो इगगो दुगो तिगो वा ॥ (गो = आंख)(इन्द्र-शेषनाग-कार्तिकेय-ब्रह्मा-अग्नि-शुक्र-विष्णु-शंकर) केशवं पतितं दृष्ट्वा द्रोणो हर्षमुपागतः । रुदन्ति कौरवाः सर्वे हा हा केशव! केशव! ॥ __(क = पाणी, शव = मड,, द्रोण = मगर, कौरव = कागडा) पठितः सर्वशास्त्राणि, गर्वं वहसि पण्डितः ।। वारमध्यं न जानासि, कथितोऽपि चतुष्पदः ॥ [वानर] मोमारामममादंदो-हनगदलयाभषाः । एते यस्य न विद्यन्ते तस्मै भगवते नमः ॥ rमो मा रा म म मा दं दो 1 । ह न ग द ल या भ षाः । आद्येन हीनं जलधावदृष्टं मध्येन हीनं भुवि वर्णनीयम् । अन्तेन हीनं धुनुते शरीरं तन्नामकं तीर्थपतिं नमामि ॥ [शीतल] पानीयं पातुमिच्छामि त्वत्तः कमललोचने! । यदि दास्यसि नेच्छामि नो दास्यसि पिबाम्यहम् । [दास्यसि । दासी + असि] पयस्विनीनां धेनूनां ब्राह्मणः प्राप्य विंशतिम् । ताभ्योऽष्टादश विक्रीय गृहीत्वैकां गृहं ययौ ॥ [धेनु + ऊना] अपदो दूरगामी च साक्षरो न च पण्डितः । अमुखः स्पष्टवक्ता च यो जानाति स पण्डितः ॥ [पत्र] नरनारीसमुत्पन्ना सा नारी देहवर्जिता । अमुखी कुरुते शब्दं जातमात्रा विनश्यति ॥ [चपटी वगाडवी] ब्राह्मणस्य महत्पापं सन्ध्यावन्दनकर्मभिः । कृत्वात्मरिपुसंहारं जैना यान्ति शिवालयम् ॥ [हे ब्राह्मण! स्य] Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अनुसन्धान-७६ स्थले जाता जले स्वैरं याति तेन न पूर्यते । जलप्रतारणी नित्यं वद सुन्दरि! का त्वसौ ॥ [नौका] गूढा - जे मध्ये गंगा वसे, जटा विराजे शीश; नेत्र त्रण पण शंभु नहि, ऊंच छतां नहि ईश. [नारियेळ] केवलज्ञानी केवली देखे चौदे राज; जे न देखे केवली, ते में दीर्छ आज. [स्वप्न] नर उपर एक नर चडे, तेह उपर एक नारी; ते परखो तमे पदमणी, पूछे राजकुमारी. [पाणीनी हेल] पशु नहीं पण चार पग, एक वांसो बे शीश; बालक तेहना पेटमां, जाते षंढ कहीश. [घोडियुं] उत्तम कुलथी ऊपनी, करी तातनो घात; पितामहने परणीने, बेटीए जायो तात. [वृष्टि-वर्षा] चंदपिता कहा रहत है, सारंग तीय करि वामु; सो भोरि सभामें आनिके, अबही मिलावू श्याम. [?] एक गाम दोइ वाणिया, दोइका एक नाम; डील सात (?) मुखि (?) साचला, जाणे लखमण-राम. [?] थलि ऊपनी जलमां वसइ, जलचर जीव न खाइ; जीवह कारण बापडी, खणि आवइ खणि जाइ. [नाव] वागडुं छांडी वासि पइर्छ, मूल विचि सुं पेढुं; पाणी पीइ ढूंढण खाई, दीस ऊगति भूखिउं थाइ. [मूसल] ऊजल वजल जेजल मेहा, मोरइ प्रीय आणी आप्या नेहा; मोरे प्रिय मांग्या तेहा, जंबूद्वीप मांहि नथी एहा. [करहा] आदि अक्षर विण जग जीवाडइ, मध्य अक्षर विण जग संहारे; अन्त्य अक्षर विण सवि कहि मीठउं, सखी में तुज नयणे दीठउं. [काजल] हरिवदनी हरिलोचनी, हरिलंकी हरिगात; हरि ऊपरि हरको लीये, हरफरसनको यात. [ ] Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ दधिसुत आली बदन पर, सोभासू लहकंत; मानो - - सकंदर, पंथा मनह करत. [] गिरिसुतापति दीकरी, ते सुत वेरी तास; जो जाण तो जाणजो, माहरो छे थे पास. [ ] एको सजन में कीओ, नवरंग वाडी माहे; देख्यो पण चाख्यो नही, होंस रही मन माहे. [ ] ऊभो नर निद्रा करे, झाकळ-तडको खाय; जेने मस्तक मोती नीपजे, खा तूं मोरी माय. [जुवारनो ढूंडो] चार वेतनुं पूतलं, मुख लोढाना दंत, नारी साथे नित रमे, कहो विमासी कंत. [सांबेलुं] दिसि दूणी रसखंडजुत, बाण मिलावो सोई; तिणमैं हमकू राखियो, कृपा रावरी होई. [ ] इन्द्र आसण नासिका, तासु तणी अनुहारि; तसु भख मेरे प्राहुणो, आवागमण निवारि. [ ] अजासुतरिपु पाउं नही, बासुत न सुहाइ; ता कारण धन दूबली, जागत रैण विहाइ. [ ] करि शृंगार कामनि चली, सारंगसुत ले हत्थ; जलसुतभख वैरी भया, सव शृंगार अकयत्थ. [ ] नर ऊपर नर चढे, नर ऊपरि चढे नारी; नारिइं नर फेरविउ, कहो भोज विचारी. [गोफण] एक पुरुषनी असंभम वात, नारी तेहने लई जाई भात; न सकइ चावी न सकई गली, भात लइ जाय पाछी वली. [ऊखल (खांडणी)] एक पुरुषनी असंभम वात, वांसे लाकड चढ्यां सात; दीसे जीवे रातें मरे, ते पुरुष में दीठो परे. (झांपो) एक नारी वनगहनि ऊपन्नी, खाइ पीइ सूई निरन्नी; परोपकार कारणि आप छेदावइ, मूरख सरसी गोठि न भावइ. [लेखण-कलम] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ अनुसन्धान-७६ एक नगरीइं अचंभो देख्यो, बापे बेटो जायो, जब जायो तब नाल न काटियो, साथि लागो आयो. [ ] तरुणां मांहि तरुणा सरखो, बूढा मांहि बूढो; अबंध शाहकी नगरी मांहि, एह अचंभो दीठो. [ ] रातो दीठो जिवारे, हीयडो हरख्यो तिवारे; चांपी घाल्यो जिवारे, बरकी पाड्यो तिवारे. [ ] पढमक्खर विणु जगसाधार, मध्यक्खर विणु जग संहारइ; अन्त्यक्षर विणु सहु मीठउ, एह अचंभउ नयणे दीठउ. [काजल] सारे कामे जता हता, मँडी रांडे भाळ्या, तले पाणी ऊपर देवता, वचे घाली बाळया. [तमाखू-होको] जेहने कामे जती हती, ते रह्यो हतो ताकी; माहरी केडे बे जणा, तेणे कोरी राखी. [वरसाद] सायर संदेसो पाठवे, चंदा मित्त जुहार; हूं तुज टालु खंपणुं, तूं मुझ टाले खार. [ ] पाणी पीती दूबली, तरसी माती होय, करण हरीयाली पाठवे, पंडित विचारी जोय. [ ] दधिसुत रूवे दंत विना, कर बिन जूरे हार; एक रा रूवे नेन विना, महाराज करो विचार. [ ] वदन अष्ट कर दोय जीह पनरह वखाणूं, षोडश नेत्र सहित चलण का अंत न जाणूं; केई चलण रहें गुप्त केई में परगट दीठा, किणही जीह विष वसे किणही रस वसे सु मीठा; दोई देह एक पूंछडी सु कवि मल्ल इम उच्चरे, सुप्रसन्न देव तुमकुं सदा अरथ एह पंडित लहे. [ ] पातलडी सु पीयार, कि सर वसइ, सर वसइ तो चकवी, ना रे, ओ वा खंची चलइ, खांची चलइ तो नावि, ना रे, वाउडि वाउडि लगइ, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ जान्युआरी- २०१९ वाउडि लगइ तो अग्गि, ना रे, ओ वा लोही चलइ, लोही चालइ तो नाग, नाग न, आगि न, नाव न, चकवी पिण म जोई, ए हीयाली अर्थ कहि, बूझई विरला कोई. [ ] पुरुष एक प्रचंड पाइ पांगुलो सिरि पखइ, पग चालइ पारकई आंखि-मुख अवरां आखइ, रुधिर-मंस-नह-रोम, अथ अंगुलीए ऊणो, जीयासं जडी जाइ, आप तसु न हुवइ अकूणो, घांटाथी छूटी लगइ, ग्रहे पुरुष ऊभो गलइ, सो सहि जक्ष-राक्षस नहि, कहइ क्षेम सो कुण नर लहइ. [ ] पंच चरण खट मेखल चरणो पांच नचावि पुठि कीय, तिण अवसरि इन्द्र आप पाघसो अनंत सुरापति दान दीय; मुंहि मंजार उरजि सो ईश्वर, काछि गुरु गंगेव(य) जिसो, पूरो पुत्र-कलत्र परिवारई, कहि ना ऐसो जोगी किसो. [ ] पढम अक्षर विणु ल-स माहिलु, बीय क्षर विणु पुप्फ पाछिलु, 'नहीं भलु' छु त्रीजि करी, चुथा विण भाषा आसुरी, च्यारि एकठा मेली जोई, ... ... ... ... ... ... ... [श्री नवकार] नारीए मली नर नीपायो, नर वली ऊंची डाले वलीयो, नर फीटी नरवाहण थयो, नारीनुं छंडी नेह, जाणवी होय तो जाणज्यो, जेहने दाडे पडी वेह. [ ] महीसुत कंठ वलुद्धओ, दधिसुतन आकार; कीसा(?) सुत दीठै मरे, पंडित करो विचार. [ ] एक नारी डूंगर वसै, बीजी नगर मझार; त्रीजी पखाणे नीपजी, चोथी नगर मझार; करण हीयाली पाठवी, राज भोज अवतार. [ ] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ अनुसन्धान-७६ हरियाली तो तेने कहीइं, जेहनइ हियडइ सान; एक पुरुष में जातो दीठो, तेहनइं पूछडीइं त्रण कान. [तीर] नदी किनारे वेल के वेलने पान नहीं, मृग चरी चरी जाय के मृगने मुख नहीं; धनुष-बाण चडाय के धनुषने पणछ नहीं, मारनार सुजाण के (एने) हाथ के पग नहीं. [ ] गुरु-शिष्य समस्यापूर्ति "चेलाजी बैठो” इति गुरुवाक्यम् । शिष्यो वक्ति प्रत्युत्तरम् - बैठा ऊठी ऊठी बैठा बैठ-ऊठ जग दीठा, रावलयोगी भिक्षा मागे रामरसायण मीठा. १ पुनर्गुरुः वक्ति "जायो" शिष्यः प्रत्यु० - जायो सेई जाय रहेगो जीमें केसा संसा; विछुरणवेला मरण दुहेला, कहां होयगा वासा. २ पुनर्गुरुर्वक्ति “सोचो" ततः शिष्यः प्र० - सूता सेई घणा विगूता, जाग्या यांही पाया; काया हिरणी, काल आहेडी, हम देखत जग खाया. ३ पुनर्गुरुः - "मरो" ततः शि० - हम ही मरणां तुम ही मरणां, मरणां सब संसारा; धन धन जती-मुनीसर मरणां, गुरुजी परला ऊतरे पारा. ४ पुनः गुरुः - "कुट्टन" ततः शिष्यः - कुट्टन होय सो मनकुं कुट्टे, रामरसायण निसिदिन लूंटे; जिस कुट्टनके हिरदै राम, तस कुट्टनकुं सात सलाम. पुनः गु० "ते घरवारी है" ततः शि० - Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ घरवारी होय सो घरकी जाणै बाहिर जाती घरमैं आणै; काया [घरका] भंजन करणा, उस योगीकू जरा न मरणां. [ ] प्रहेलिका - सतावीसै सात त्रिण तेरे तेत्रीसै, चोसठ चउदे च्यार पंच पनर छत्रीसै; सोले सहस छपन बार बावन बत्रीसै. नव दस आठ अढार एक एके एकवीसै; ओगणपचास छनूए, एक एकोत्तर अभिभूय, घर पर वैताल कहे, एता रख्या करो तूह. [नक्षत्र, वार, भवन, यक्ष, तेत्रीस क्रोड देवता, योगिनी, विद्या, वेद, पांडव, तिथि, राग, कला, ५६ क्रोड यादव, मेघ, वीर, लक्षण, ग्रह, अवता(?), पर्वत, वनस्पति...] गजविषधर इकनाम मज्झ रकार बिंदसंयुक्तं, वीझी(?) पढमक्खर [रहिया] सो अवरल (?) अम्ह-तुम्हस्स. [नाग, नारंग, रंग] लक्षण विस्व रतन तिथि, सज्जन कहा लिखी बात; ग्रह-नक्षत्र बेह(?) उनमहि, ऊठि जपत है प्रात. [ ] घरमां हाथीओ नाइ-धोई, हाथीने पहिरावू साही, जिम जिम घालिई तिम तिम रोइ, घाल्या पछी साहमुं जोइ. [ ] लंकलपेटण सीतहरण, नहीं रावण, नहीं राम; सहीजसुंदर मांगियो, मोकल देज्यो स्वाम. [कपडो] उर विन खुर, खुर विन तास विन(?) हीयाविहूणो हंस; सब जीवांको जीव है, रोम-चामडी-मंस. [पाणी] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ चार मिल्या चोसठ हस्या, वीस रह्या कर जोड; एक सो बासठ तरपत भई, चतुर करो निचोड. [बे व्यक्ति मळया, त्यारे चार आंखो मळी, ३२-३२ दांत हस्या, वीस नख भेगा थया; १६२ तृप्त थया (?)] C/0. जैन देरासर, नानी खाखर-३७०४३५, जि. कच्छ, गुजरात. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ हरियाली - सं. उपा. भुवनचन्द्र प्रकीर्ण पत्रोना संग्रहमांथी ७ हरियालीनां पत्रो मळी आव्यां. भण्डारन नाम लखवानुं रही गयुं छे. त्यार पछी नीतिविजय ज्ञानभण्डार - खम्भातमांथी पण ५ हरियालीनी सं. १७०२मां लखायेली प्रत मळी. आ रचनाओ अप्रगट जणाय छे. प्रथम ३ अने १२मी हरियाली कवि केसीकृत छे, बाकीनी 'सेवक'कृत छे. 'सेवक' उपनाम हशे. बन्ने कविओ विशे माहिती मेळवी शकाई नथी. रचना २००-२५० वर्ष जूनी जणाय छे. हरियालीना उकेल ह.प्र.मां न हता, अमे शोधीने आप्या छे. हरियालीओ जैन कवि-मुनिओनां विद्या-विनोदनी नीपज छे. उपाश्रयोमां पण बौद्धिक आनन्द केवो जामतो हशे तेनो संकेत पण आवी दिमागी कसरत करावनारी कृतिओ आपी जाय छे. (१) (राग : रामगिरी) चरण विना ते चिहुं दिशइ, गुणवंताजी, चालइ सहूनइ वाहइ, बुद्धिवंताजी; त्रिण लोक माहलइ कामिनी, गुणवंताजी, कोय नही तस साहइ, बुद्धिवंताजी. अणतेडी ते भामिनी, गुणवंताजी, सहूनइ घरि ते जाइ, बुद्धिवंताजी; धनवंतनइ पीडइ नहीं, गुणवंताजी, साधुनइ पीडा न थाइ, बुद्धिवंताजी. अगिन भय तेहनइ नहीं, गुणवंताजी, पण वाघिण नवि होइ, बुद्धिवंताजी; राम राम ते ऊचरइ, गुणवंताजी, जेहनइ वलगइ सोइ, बुद्धिवंताजी. ते विण काइ न नीपजइ, गुणवंताजी, जगमां तस बंधाण, बुद्धिवंताजी; Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ केसी कहइ कुण कामिनी, गुणवंताजी, जोइ कहियो जांण, बुद्धिवंताजी. ४ [भूख] (२) (राग : मेवाडउ) चंपक वरणउ रे दीसइ नाहलउ, कंठिइ मोतीनउ हार; नारी पासइ रे सेजि चढी सूइ, पालइ ब्रह्मव्रत भार... १ ए हरीआली रे चतुर विचारयो... बि नारी वचि पडीउ बापडउ, पाछल त्रीजीनूं साल; तांणी बांध्यो रे बंधन आकरइ, नरना कुण हवाल... ए हरीआली... २ अन्न न खाइ पाणी नवि पीइ, पण दूबलउ नवि थाइ; पदमिनी मोहइ रे मोहिउ नाहलु, नारी विण न सुहाइ... ए हरीआली... ३ सुकिण बेहु रे दमोदमि रहइ, नीज प्राणेसर पाशि; केसी बोल[इ] रे कहउ ते दंपती, भाखउ रदि विमाशि... ए हरीआली... ४ । [बे आंख अने नाक?] (धन धन धन्नो अणगार... ए देशी) बंधन च्यार माटी पड्या, नीपनी पदमिनी एक रे; नारी उपरि नारी चढइ, ए कहउ कुण विवेक रे एहनउ अरथ ते प्रीछयो... १ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ नीलज नारि नागी थइ, चढी बिसइ सभा मझारि रे; लोक सहूइ जूइ तेहनइ, नवि धरइ लाज लगार रे... एहनउ... २ मूख विण मुंगी रे भामिनी, अवर पाइ बोलावइ रे; प्रीतडी पंडितसिउं करइ, मूरखथी दूरि जावइ रे... एहनउ... ३ मुनिवर तेहनइ आभडइ, संघटउ तुहइ न थाइ रे; केसी कहइ ते कामिनी, देख पाप पुलाइ रे... एहनउ... ४ [चार दांडीनी ठवणी?] (राग : सारिंग महलार) उज्जल वरणउ नाहलु रे, गोरी सामलि बि नारि; कामिनी न देखइ कंतनइ रे, कंत न देखइ नारि, सुगुण नर, समझइ एह विचार, तस देऊं साबासी सार, वली आपू एकावली हार, मीठडां करूंअ अपार... सगुण० १ नारी विण नर नवि रहइ रे, नर विण न रहइ नारि; छेहडा बंध्या बेहुना रे, पण छइ बालकुंआरि... सगुण० २ नर नारीथी ऊंपना रे, छोरु च्यार नइ साठि; मातपिता देखइ नही, अरध अरध स्या माटि... सगुण० ३ ते नरनारी नवि मरइ रे, जउ जाइ काल अनंत; अरथ कहिउ कांइ एहमां रे, समजइ ते बुधिवंत रे....सगुण० ४ धरम करी जे आदरइ रे, ते नरनारी जेह; सुख संपति ते पामस्यइ रे, सेवक उछव गेह... सगुण० ५ [दिवस अने रात] (५). (राग : मलहार) मोहनगारी सामली, एक नाह्नडी नारी; माटी मोटउ केडिइ पडिउ, जोयो रदि विचारी... ए० १ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ए हरीआली जे कहइ, तेहनी बुद्धि सारी; अवधि देउं मास च्यारनी, कहइयो निरधारी... ए० २ खात्र पाडइ ते कामिनी, नीज नाह बंधावइ; माटी बीजु वली ते करइ, तुहि लाज न आवइ... ए० ३ ते नारी सारीखा वली, म म थायज्यो जाण; सेवक संगति साधुनी, करयो जिनआण...... * ( ६ ) - अनुसन्धान- ७६ (कपूर हुइ सूंदरता नारी अछइ रे, बि पखी दीपइ सार; मोहनगारी सामली रे, सहूनइ करइ उपगार... पंडितजी कहियो एह विचार, वली देउ मास बार, पंडितजी ए देशी) समझइ तस बुद्धि सार, पंडितजी कुण कही इसी नारि, पंडितजी, कहियो० १ पांख अछइ नही पंखिणी रे, नहि तस चांच लगार; पांख हलावि कामिनी रे, नही तस ऊडवा अधिकार... पंडितजी, कहियो० २ आंखि मीची उघाडतां रे, लाख जोयण लगि जाइ; चतुर हुइ ते प्रीछयो रे, परमारथ कहिउ माहि... पंडितजी, कहियो० ३ रुपवती नइ गुणवती रे, ते नारी सुकुमाल; जण जण साथइ प्रीति करंता, को न दीइ तस आल... पंडितजी, कहियो० ४ अन्न पान वस्त्र भूषणां रे, तेहनु न करइ संग; पाणी माइ सदा रहि रे, वहितइ हुइ बिरंग... पंडितजी, कहियो० ५ पुन्य हुइ जेहनइ पाधरूं रे, तेहनइ निरमल नारि; ए० ४ [सोय-दोरो] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ सेवक जन इम वीनवइ रे, पुन्यइ सुख संसारि... पंडितजी, कहियो० ६ [आंख] (७) (चूनडीनी देसी) प्रीउ संघातइ रंगभरि रमतां, प्रेमि करी लपटाणी रे; माहरू नाह करी जाणंती, प्रीऊडइ नवली आणी रे... नाहलीया आपु मुझ सुख नाहलीया, ए अरथ उकैली दीजइ रे चतुर तणा मन रीझइ रे... नाहलीया० १ वाहला काजि गभा मइ सेवी, घणा दिवस परिमाण रे; नाहलीइ नेटि नेह न जाण्यो, प्रीउडो थयु अजाण रे... नाहलीया०२ सरसी बिठी सरसी ऊठी, कदही विनय न चूकी रे; सरसी सुख भरि सज्या सूती, तु सांमी का मूकी रे... नाहलीया० ३ घणी रमणिसिउं जे हुइ रातु, ते तु प्रेम न जाणइ रे; ते नारीनइ जे वश करइ, सेवक तास वखाणइ रे... नाहलीया० ४ [छाया] (८) ते गिरूउ : ए देशी सामलवरणी नइ नाह्रडली, नारि अपूरव दीठी रे; तेहनु माटी छइ वनवासी, धणी तणइ मुखि बिठी रे... पंडित० १ पंडित कहियो ए हरीआली, जउ हूइ बुधि सारी रे; नहीतरि जाणा जोसी पूछउ, कां रहउ रदि विचारी रे... पंडित० २ पातलीउ नाह नारी सरिसउ, परनइ हाथइ खेलइ रे; नाह देखंता राचइ परसिंउ, तुहइ नाह न मेहलइ रे... पंडित० ३ नगुणासिंउ वलगी रहइ नारी, सुगुण साथइ न बाजइ रे; रगत पीयंती नरणी कहावइ, ए तस ऊपम छाजइ रे... पंडित० ४ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ ते नारीनइ धरमी मूंकइ, साधु वचन आराधइ रे; सेवक जंपइ जिनवर जपता, रधि वृद्धि सुख वाघइ रे... पंडित० ५ [तलवार अने तेनी मूठ?] (९) च्यार नारि माटी मिली, माटी नीपनउ सार... रंगीले आतमा ते माटीनइ सहू इछइ, तुहि सील वृतधार... रंगीले आतमा० १ मांटी विण घट नवि चालइ, मांटी विण नवि रंग... रंगीले० कोइ इछइ कोइ भोगवइ, नवि थाइ सीलनउ भंग... रंगीले० २ मांटी विण ते नवि सरइ, जे संसारी होइ... रंगीले० एक जागइ नवि पांमीइ, बीजइ सघलइ जोइ... रंगीले० ३ ते माटी नानिउ मोटउ, भूमि वशइ खइ जोइ...रंगीले० विधिसिङ तेहनइ जे वरइ, ते अजरामर होइ... रंगीले० ४ तीरथंकर तेहनइ वंछि, मोटा वली अणगार... रंगीले० चक्री मोटा छत्रपतीं, वंछइ जे झूझार... रंगीले० ५ ए हरीआली ते कहइ, जेहनइ बुद्धि विशाल... रंगीले० सेवक जन जय जय नंदा, झूमखडानी ढाल... रंगीले० ६ [?] (१०) राग - रामगिरी चिन्तामणी चिन्ता - ए देशी एक प्रीउ नइ पांच पदमिनी रे, चंद्रवदनी नउ धरि चाल रे; रंगभरि ते सरिसउ रमइ रे, नव नवा भोग रसाल रे... १ नारी विण को दीसइ नही रे, न करू नारी खलखांच रे; घणी थोडी दीसइ त्रणि लोकमां रे, एक बि त्रिण च्यार पांच रे...नारी० २ नारी रमि नारी जिमइ रे, नारी गंधइ गंध विशाल रे; नारी जूइ नारी सूणइ रे, नारी करइ नर चित्त चाल रे... नारी० ३ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ घर नवि चालइ नारी विना रे,सुख दुःख नारीथी पाय रे; नारी वशि हुइ जेहनइ रे, तेहनइ अखय सुख थाय रे... नारी० ४ नारी हरीआली प्रीछ्यो रे,नथी पोष्यो मन नुराग; नारी नथी एक थानिकइ रे, सेवक कहइ धरम माग रे... नारी० ५ [आत्मा अने पांच इन्द्रिय] (११) सजनीनी देशी कहउ रे पंडित कुण ते नारी रे, हवडा कहियो अथवा विचारी रे; बि खंडयइ करी नारी पूरी रे, कर चरण करी तेअ अधूरी रे... कहउ० १ कान नही तस आंखि विहूणी रे, नाक विना पण नारी उणी रे; नारी सरसी नारी माहलइ रे, कोइ इक नबलु पुरष ते झालइ रे... कहउ० २ मूढइ खाइ पेटइ काढइ रे, खाती खाती बूंब ज पाडइ रे; तेहनू कढिउं सहू को झाडइ रे, तेहनी बूंब ते सूणीइ पाडइ रे...कहउ० ३ ते तु नारी पापइ पूरी रे, हिंसा करवइ नही अधूरी रे; तेहनइ छंडइ श्री अणगार रे, सेवक वंदइ वारंवार रे... कहउ० ४ [अनाज दळवानी घंटी] Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ (१२) राग : गुडी एक नर बहू नारि, नारी नरनइ मारइ; देखइ सघला लोक, कोय नही तस वारइ... १ मारीतु ते नाह, पग विण उडी जावइ; पापिणी पूठइ धाइ, मारती मारती लावइ... २ एणी परि सघली नारि, विण अपराधइ कूटइ, चीथडीउ ते नाह, नवि नारीथी छूट[इ]... ३ ते कुण नारी नाह, कहियो रदि विचारी; केसी कहइ वरस बार, अवधि दीधी छइ सारी... [?] [बाइ मटु पठनार्थं, सं. १७०२][नीतिवि. खम्भात] * * * Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ बे बारमासाओ - सं. रसीला कडीआ प्रस्तुत बन्ने बारमासीओ लिप्यन्तर करवा माटे मने आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर, श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबामांथी उपलब्ध थई छे. हस्तप्रत नं. HP - 6031 Page 1 (AB) प्रथम बारमासीनो क्रमाङ्क छे. बीजी बारमासीनो क्रमाङ्क छे - हस्तप्रत नं. HP 6035 Page 2 (13A-14B). आपणे जाणीओ छीओ के मध्यकालीन साहित्य-स्वरूपो पैकी बारमासी साहित्य फागु अने रासा पेठे जैन साधुओ द्वारा सारा प्रमाणमां खेडायुं छे. पियुनी गेरहाजरीमां प्रियतमाना बारेमासना विरहनी व्यथा अमां निरूपित थई होय छे. सामान्य रीते आ वर्णन श्रावण मासथी शरु थाय छे. प्रायः बारमासीना विषय लेखे जैन मुनिओओ स्थूलिभद्र-कोशा तथा नेमनाथ अने राजीमती-राजुलनां पात्रो पसंद कर्यां छे. विरह अन्ते संयमदीक्षामा परिणमी, मोक्षगामी बनतां, काव्यमां चूंटातो करुणरस शान्तरसमां परिवर्तित थाय छे. प्रस्तुत बन्ने कृतिओ, नेम-राजुलने अनुलक्षीने प्रथम कृति दूहा अने ढाळना मिश्र स्वरूपे रजू थई छे. ते मल्हार राग (दूहामां) अने धनरा चाल्ही ओ देशीमां (ढाळमां) बद्ध थयेली छे. ३५ कडीना आ स्तवनना अन्तनी कडी कळश स्वरूपे छे. तेमां कर्ताना गुरुओनां तथा कर्तानां नाम अपायां छे. तपागच्छना श्रीविजयदयासूरि जेनी कीति महिमण्डल (पृथ्वी) पर राजा समी छे अने वजीर समा शोभता श्रीअमृतविजय जेना गुरु छे तेवा शिष्य लक्ष्मीसुख आ कृतिना कर्ता छे. कृतिनी प्रारम्भिक ६ कडीओमां – राजुलने आंगणे नेमकुमारनी जान आवी छे अने ते शणगार सजीने, पियुने जोवा, सखीओ साथे उत्कण्ठित बनीने राह जुओ छे. तोरणे पधारेला नेमकुमार आ समये पशुओनो पोकार सांभळे छे. संसार तेमने असार जणायो. तोरणेथी ज पाछा फरी, गिरनार तरफ प्रयाण करे छे. राजुल आ समाचार जाणे छे. पोते जाणे छेतराई होवानी लागणी अनुभवे छे. हवे पछीनी प्रत्येक ढाल तथा दूहा श्रावण मासथी अषाढ मास पर्यन्तनी कुदरतनी जीवन पर पडती असरो साथे पोताना विरहने गूंथती राजुलना मननी अभिव्यक्ति छे. अन्ते गिरनार पहोंची, तप करी, ते मोक्षगामी बने छे. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ १७ कडीनी बीजी बारमासीमां जान के पशुओना पोकारनी वात नथी, राजुल गोखमां बेठी छे अने पोताने चोरीने लई गयेला यदुरायने (नेमने) मनावीने, पाछा लई आववा ते पोतानी सखीओने जणावे छे. त्यार बादनी प्रत्येक कडी क्रमशः श्रावणथी शरु करी, मास प्रमाणे कुदरतनी विशिष्टता अने पोतानी विषम परिस्थिति आलेखी, १४ कडी पर्यन्त विरही अवस्थाने वर्णवे छे. १५ अने १६ मी कडीमां तेने अडवाणे पगे चालीने, वालमनुं नाम जपती जपती गिरनार पहोंचती दर्शावी छे. त्यां ते संयम लइने, कर्मनो नाश करी, शिवमन्दिरनी वासी बने छे. अन्तिम कडीमां रचनाकारनो नामोल्लेख छे. आ कृति वाचक हरिचन्दना शिष्य जिनचन्दे रची छे. बन्ने कृतिनी भाषा राजस्थानी-मारवाडी जणाय छे. प्रस्तुत कृतिनी ९मी तथा १२मी कडीमां त्रीजं चरण लखवानुं रही गयु जणाय छे. लहियानी भूल थई जणाय छे. १३मी कडीना चोथा चरणमां बे-ओक पदो लखवानां रही गयां छे. मूळ प्रत मळे के आवी अन्य प्रत मळे तो कृति सम्पूर्ण बने. मध्यकालीन गुजराती साहित्यना बारमासी स्वरूपमा उमेरो करती आ बन्ने कृतिओनुं लिप्यन्तर अहीं प्रस्तुत छे.. ॥ दूहा राग - मल्हार || समरु माता सारदा, प्रणमुं गुरुदेव पाय गुण सघलो मुझ ज्ञाननो, विवरो दियो व(ब)ताय ॥१॥ जासु पसाय नेमनी, बारामासी विसेस भणसुं हूं भक्तै करी, मे मीठो उपदेस ॥२॥ जांन सबल सझी यादवे, परणवा राजुल प्रेम उग्रसेन घर उमंगी, पउधार्या प्रभू नेम ॥३॥ सहीय समांणी साथणे, सोल सझी सिणगार जोवै निज प्रीतम भणी, राजुल राजकुमार ॥४॥ तोरण मुख आया तदा, पसुकी सुणी पुकार करुणा करी जिन ईम कहै, ओ संसार असार ॥५॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ पसू छोडावी पाहड दिस, वाल्यो रथ तिवार । वात सुणी राजल वदै, कीधो स्युं किरतार ॥६॥ (ढाल - धण रा चाल्ही ओ देशी) नाह जिन जावो गिरनार हो, नेम नगीना छयल छबीला हो मुझने छेतरी . नव भव नेह संभार हो, ने० अबलानी मांनो हो वीनती अतरी ॥७॥ दूहा : श्रावण वरसै सरल है, गरजै मोर मल्हार __ वादल झबकै वीजली, भोगी सुण भरतार ॥८॥ ढाल : मांनो साहिब मुजरो हो, ने० परण औछाह हो प्यारा पदमणी गंभीर गुणरा गंज हो ने० कठिण थइयै हो कहीं इसी घणी ॥९॥ दूहा : भर भादु घुरै गयण, गहिरो तांण गोस चढीय घटा पपीयो चवै, जयुं जयुं वाधे जोस ॥१०॥ ढाल : भरमिय पहिलो भूली हो, ने० आडंबर जोवा हूं ऊभी रही। मेली जावो सौ समूली हो, ने० कपट अहवो हो को जाण्यो नहीं ॥११॥ दूहा : आसोजै आस्या करूं, सीप चाहे जिम स्वात सोल कलाथी शसी(शी) दहै, सरसः सरदकि रात ॥१२॥ ढाल : जोडै पंखी सजोडा हो, ने० रुडि पालै हो निसदिन अकठां सनेही थोडा हो, ने० छेह देवा हो न कीजै ते भवा ॥१३॥ दूहा : कृपा करो अब कातीइं, वली मनो चाडो वाट दिवस वडो दीवालीया, सुखनी कीजै साट ॥१४॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ ढाल : पावस रित पीयारी हो, ने० सेज अमारुं हो फूलडे अति सही हेडि मुंको हीयारी हो, ने० वरग मोटाना हो वहिजै चित्त चही ॥१५॥ दूहा : चिहूं दिस सीत चमकीयो, आयो आगणमास चाहुं चंद चकोर जयुं, अंगन पूरो आस ॥१६।। ढाल : परपीडा पीछांण हो, ने० वडपणि जगमै ते खरो अग्वड(ह?)ण चिंत म आंण हो, ने० गरज्यौ होवै हो जेहनो गुण करे ॥१७॥ दूहा : घट रूपी घरमै वसो, सज्जन सुगुण सदैव अस पडै जाडा पोसमै, पंथ निहालु पीव ॥१८॥ ढाल : मुझ नैठ मधी छै जाया हो, ने० सा लगै नही हो मंदिर ओकली कंपै कोमल काया हो, ने० वोल्यो तसु हावै हो केहनो हृदय वली ॥१९॥ दूहा : माहै अंबा मोरीया, वल्लभ आवि वसंत अबीर गुलाल अरग जै, राजवी फाग रमंत ॥२०॥ ढाल : दिन ओ नणंदीना वीरा हो, ने० सास विचलै हो नित पुत्त सांभरै पंजर ऊपजत पीर हो, ने० मंग तुमारो हो मेल्यां किम सरै ॥२१॥ दूहा : फागुण वाये फगफगे, फूल्या बहूत पलास होली खेलण हुँस छै, अविधारो अरदास ॥२२॥ ढाल : यौवन जोरै आयो हो, ने० दोई न्यारा हो नाठा किम रहो यादवकुल थे आव्या हो, ने० दोषी रे भरमावै हो वाले भमति दहो ॥२३॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ दूहा : चूप करि निज चितमै, गोरी पूजत गोर वनराय विकसी सहू, कोयल कहो कत जोर ॥२४॥ ढाल : तेलसः चूआ तिलक हो, ने० भंजन निवार्यो हो अंजन यांमनी हसे सहीया हलवाक हो, ने० मेलो दीजै हो शीघ्र मोटा धनि ॥२५।। दूहा : तन तापै तरुणी तणो, वासर वध्यो वैशाख महक्यां चंपा मोगरा, दाडिम केला दाख ॥२६॥ ढाल : इण भव तेरो आधार हो, ने० अवर वरेवा हो अमनै आखडी त्रीयानो तातो जमार हो, ने० प्राणनै राखै हो जिमतिम पाकडी ॥२७।। दूहा : जगजीवन ईण जेठमे, जाझी ओवत झाल वहिला आंण वधावीइं, प्रेम सरोवर पाल ॥२८॥ ढाल : संदेसा न विवहार हो, ने० वांक वालेसरा हो अमने स्युं अछै वनितानी न करी छो वाहर हो, ने० प्यारे भरोसो कुण करसी पछै ।।२९।। दूहा : आसाढे इंद्र उमाहीयो, धरहर वरसै धार । हद हरीया कानन हुआ, सज्यो भूमी शृंगार ॥३०॥ ढाल : चतुर चोमासा नै वृद हो, ने० जुगत वणावा हो जोईजै तेतली सासु सिवा नै सुनंदा हो, ने० ओलग धारो हो साहिब तेतली ॥३१॥ दूहा : विदा लि बापनी, गई राजुल गिरनार स्वामि पासे संग्रहो, सतीइं संयम-तार ॥३२॥ ढाल : करी तपस्या, काया कसी, सषरो पाल्यो वीरल तेम पहिली नारीइं, लही मुगति री लील ॥३३॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ चौपन दिना रे अंतरै, आसो अमाविस जांण पांम्या मुगत ज पांमसै, श्री नेम निरवाण ॥३४॥ ॥ कलसा ॥ तपगछ राजा, वडदिवाजा, श्रीविजयदयासूरिसरो महिमंडले जस कीर्ति वाधी, पुरवै परछया खरो तस सीस वृधि वजीर सोभै, अमृतविजय श्री मुज गुरौ व्रणव्या मै नेम राजुल, लक्ष्मीसुख जय वरौ ॥३५।। ईति स्तवन २. नेमनाथजी रो बारमासो (राग : केदारो) गोखि बेठी राजुल गोरी, सखी वात सुणो मोरी यदुराय चल्यो मुझ चोरी, तुम जाय मनावो दोरी, लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥१॥ पुरवली प्रीत संभालि, मुझ घर आवो रथ वाली तुम्ह करो रमत वाली, ईम बोलई राजूल बाली, लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥२॥ सखी श्रावण महिने माति, वीजलडी झबुकिं राति घनघोर सुणी दिनराति, प्रीतम वीण मुझ फाटी छाति, लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥३॥ सखी भादरवई सरोवर भरियां, सब धेनु चरई वनहरियं इण रतें पीउडे परहरीइं, राजूल रोदन घर भरियं, लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥४॥ आसो म(मा)स ठामि आली, गीत गाइं रंग रसाली रजनी सोइ अजूआली, नाह वीण मुज थाई विकराली, लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥५॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ सखी कार्तिक मासि दीवाली, संयोगि होई रुलीआली नवरंग्गी पीली फालि, प्रीउ वीण सीसेव सुणली (?), लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥६॥ प्रीउडा परदेश न भमीइं, घरनां भोजन जिमीइं मनरंगि रंग्मती रमीइं, मिगसीर का दिन इम गमिइ, लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥७॥ पोस मास [स]खीउ वाटडीयां, जोइ अं(आं)ख हुई रातडीय दीन नाइं सखी वातडीयां, नाह वीण न जाये रातडीय, लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥८॥ माह महिनि मनि धरी नेहा, प्राणनाथ पधारे गेहा ----------, मुझ टाढि कंपि देहा, लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥९॥ फागुण साजण रंगरोली, भरी लाल गुलाबकी झोली. खेलें सखियां मली टोली, प्रीय विण किम खेलुं होली, लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥१०॥ चैत्र चंपाकी माला, सुंदर सुगंध विसाला निज कां(क)ठि वदें वरमाला, नीरु विण लागि जिम जाला, लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥११॥ वैशाखि लाहो लीजइं, अंबा कातलीयां कीजई ................, शीतल साकर भेलीजई, लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥१२॥ जेठ मासि जेठ दीहाडा, खेली खलि भरी जल टाढा प्रीय विण पुरव दिश..................... मुझ गाढा, लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥१३॥ सखी मास आषाढ जु आया, आकासि मेह उम्हड्या जग जीवरा बहु सुख पाया, मोरा प्रीतम हजअ न आया, लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥१४॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ राजुल घणुं विरह तपंति, वालंभनुं नाम जपंति अणुहणिया पाओ चलंति, गिरनारि गई वीलपंति, लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥१५॥ राजेमते नेमजो(जि)न पासें, संयम लेइ मनि उलासिं कदिक कर्म पणांसि, पोहती शिवमंदिर वासि, लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥१६॥ बावीसमे नेम जिणंद, पुरइं सुकसंपत्ति वृंद वाचक वर श्रीहरिचंद, तास शिष्य भणि जिनचंद, लाल प्रीतम प्रीतम करती ॥१७॥ ॥ इति श्री नेमनाथजी रो बारमासो सम्पूर्ण ॥ C/o. ८, जयामा सोसायटी, सेटेलाइट, मानसी सर्कल, अमदावाद-३८००१५ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ जान्युआरी- २०१९ अंजनासुन्दरी पवनंजय रास (खण्ड-२) । - सं. अनिला दलाल [अनुसन्धान-७५मां आ कृतिनो प्रथम खण्ड प्रगट थयो छे. अहीं तेनो द्वितीय खण्ड प्रगट करवामां आवे छे.] आदि सकति पय अणुसरी आणी हर्ष उमेद भवियण हित कारण भणी भणिसु कथा रसभेद. १ कवि चतुराई नित नवि नव नव कथा कल्लोल सांभळतां छतां चतुरां मनो(ने) आवइ अधिक कल्लोल. २ तिणि कारणि वड कवीयणे(णो) ग्रहज्यो गुण निज हाथ वाची जन संभलावयो सरलपणइ मनि साथि. ३ कवि सायर सरिखा कह्या गुणजल भरीया होइं पणि तटिनीजल आवतउ कदी न वर्जई कोय. कविनई गुण ग्रहीयां थकां अधिकी उपम थाई गजमोती गुण वेधीइ युवती कांठि धराय. संपतिनइ संयोग जे लहीइ दत्तथी सोइ कांने सांभळतां थकां गरथ न लागइ कोय. ६ पवनंजय अंजना तणो बीजो खण्ड उदार अकमनो कवीयण कहई सांभलिज्यो नरनारि. ढाल - प्रथम, मांनां दरजणनी राग – धन्यासी तिणि अवसरि लंका धणी रे राणो रावण नामि तेज प्रतापइं आकरो प्रगटी महिमंडल मांम रे... ८ लंकानो राजा करइ रे रण कोडि दिवाजा अभिमांनी रे राय जगत शिरइ अभिमानी रे... ९ लोक अवस्था आणता रे चूकवता चित्त फेरि ते ग्रह राणइ रावणइ पाय बाधी कीधा जेर रे... १० कृध्म(ष्ण) सवालाख दीवटी रे प्रगट करइ तजी रीस सोम सिघासण मांडिनई वर चामर ढालई सीस रे... ११ ॐ अw , कि दिवाजा Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ खेत्र खेडइ मंगल खडइ रे वाचई भृगु वेद बुध देखाडई आरसी ने शिव टालइ छलनइ छेद रे... १२ राह रहई खग फालिनई रे केत पखालई थाल पनोती पाणी गलई वली बारि करई रखवाल रे... लाख चोरासी जीवना रे घडतो घट विन्यान ते विधि तेना घरआंगणइ घरटी ले पीसइ धांन रे... १४ प्राणीनई संतापतो रे हुतो अथिर आधार ते यमउ रावणनई घरइ भइसो थइ आणनी(आणइ नीर?) रे... १५ नवदुरगा शुभ आरती रे ऊतारई ओक मन्न पवन बुहारइं आगणु रे रवि करई रसोई अन्न रे... १६ पोल ग्रही ऊभा रहई रे अक मना निसदीस सुधी खजमती सेवना सुर कोडि करई तेत्रीस रे... १७ ब्रह्मा प्रोहित थापीयो रे गणपति खर खेत्रपाल अगनि पखालई लूगडां रे इंद्र आणई फूल रसाल रे... १८ लाख ओक भाई भला रे बिभीषण कुंभकर्ण लाख सवा पुत्र सोभता रे इंद्रजित प्रमुख रतन्न रे... सहस बत्रीसानई शिरई रे रूपई अपच्छर रंभ। पट्टराणी मंदोदरी रे देवांनई छई दुरलंभ रे... दस मुख दीसई दीपता रे वीस भुजा परधान त्रीस सहस वर्ष आऊ रे अकवीस धणु तणु मान रे... २१ कोडि नवाणुंडं लगई रे राख्खसरा कुलरंग संजीवनी विद्या मुखे रणमाहि अति अणभंग रे... २२ भरत-त्रिखंड तणो धणी रे पदवी प्रतिवासुदेव नामइं त्रैलोक्यकंटकी सुर डरता सारइ सेव रे... समुद्र विचालइ सोभतउ रे राख्खसदीप रसाल जलमांहि जोअण सातसई आलगो अति दरि विशाल रे... २४ पहोलपणइ तेतउ अछइ रे जेतइ जलमांहि दूरि त्रिकूट पर्वत सुंदरू रे पाखलि जल खाई पूरे रे... २५ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ पहिलउ जोअण पांचसइ रे नवसई उच प्रमाण तिहां गढ लक सोहामणउ राणा रावणनो ठाण रे... २६ जैन शैव ग्रंथइ घणु रई (रे) रावणकू ध(छ?) विचार ते जोई मई भाखीउं जूठ साच तिहां गम्य पार रे... २७ ओक दिन रावण चीतवई रे बइठउ पुप्फ विमाण अणकीधई कोई अछइं मुझ सूधी आण प्रमाण रे... २८ तो हुँतउ ते वशि करुं रे नाखुं दूरि उथेडि धा(घा)उ नीसाण लावीउ चडीउं नवि कीधी जेडि रे... २९ दलबादल तंबू दिआ रे पुर बाहिर मेल्हाण मेलावानइ मोकल्या अह यदी राय जादारांण रे... ३० ओक दूत तेडी करी रे बोलई रावण राण प्रल्हादन राजा भणी वेगा बोलावी आण रे... ३१ तहत कहीनइ चालीयो रे लंकागढथी दूत पूर प्रह्लादन परिसरइ वेगो ते जाइ पहुत रे... ३२ राय प्रह्लादन तिणि समयइ रे बईठो जुडि दरबार दूत जाइ लेख मेलिने रे राजानई की जुहार रे... ३३ दूत देखी राय कहइ रे कुंण तुं कवण पठाइ हुं दूत रावण राणरउं तुह्म वेग करी बोलाइ रे... ३४ वयण सुणी राय हरखीउ रे दूतनइ डेरउ दीध ढाल प्रथम बीजा खंडरी कवियण जण पूरी कीध रे.... ३५ दहा हिव राजा उठ्क थइ दिवरावई रणभेरि सुभट कटक भेला थयां रहिया चिहुं दिसि घेरी... ३६ टोप जरह जूसण जूडी पाखरीया पवंग बत्रीसे आयुध सज्या जीपीजा इणे जंग... नालि हवाई हूंबकई गोफण गोला तीर सनथबध हुवा सवे वडवागीआ वजीर... Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अनुसन्धान-७६ मद फरता गलीओ वह सुंडाला सुचंग । धडकई रथ संपइ धूरा चांपइ सीस भुजंग... गयदल पयदल रथदलइ हयदल हणहणीया सेण चढी चतुरंगणी के पाला चढीया असू(स्व) चडी राजा संचरइ सुमहूंरत सुभवार तव पवनंजय आविनई आडो कीध जुहार... राज विराजो मालीपा साधो आतम काज चढ ऊतर करस्यां अम्हे बइठां न वधइ लाज... ४२ राय कुमरनइ ज्योग्यिता जांणी स्युंप्यो भार आप करई सूधई मनई श्रावक व्रत आचार... ४३ ढाल-२ : चोपाई हिव पवनंजय पहिरि सनाह आणीय अति घणुं अंग उठा(छा)ह बाप चरण प्रणमी शुभ मनेइ आवी सीख करई मा कन्हइ... ४४ माताई उहने दीधी आसीस पुत्र लहेज्यो प्रबल जगीस वहिला कुशले घरि आवज्यो वयरी जीपी सुख पावज्यो... ४५ अंजना थांभई ऊभी तिसई जाणुं प्रीउडो घरि आवस्यइ कटकाई छइ कोडि विघन विण मिलीयां किम रहस्यइं मन ४६ आस्या मोरी फलस्यई आज रंग घणो करस्यई नरराज अंतराय छूटेसइ कर्म भांजेसई सघलो मन भ्रम... ४७ परदेशनी विसमी भत्ति कुण जाणइ मिलवानी मत्ति माणस चिंतइ अवर प्रकार देव तणो विपरीत विचार... ४८ पय प्रणमी ऊठेस्यई मात वलतो मोस्युं करस्यइ वात इम चितवी तिहाथी अंजना महुल गई करि आसासना... ४९ प्रीउ वलतारी जोई वाट फूल पगरस्युं पथरी खाट सोवन थाल मोतिय भरी वधाविस्युं प्री उलट धरी...५० साम्हा जाओ लागिस पाय भलई पधार्या भीवनराय सूना मंदिरा वसा आज कोडि अम्हारां सीधां काज... ५१ ओहवा हृदय मनोरथ धरई बइठी प्रीउनउ चिंतन करइ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १०१ ऊठ्यो जणणीस्युं करी सीख चाल्यो मोटां भरतो वीख... ५२ साम्ही दृष्टि न दीध लगार ऊंचइ मुखि नीसर्यो कुमार दुष्ट मन करीनइ गयो कटकमांहि जई भेलो थयो... ५३ जोतां वाट थई बहु वार कांई थई नाव्यो भरतार तितरइ ईक आवी छोकरी बोली अति घण सासई भरी... ५४ विरह तणी वधाई दीध गयो कुमर विण सीखई कीध हवी कुमर नही किणरइ हाथि गयवर झाल्यउ न हइ बाथि... ५५ सांभलता नारी ततकाल व्याप्यो विरह थई विकराल आखडती रोती अडवडी मुर्छागत धरणी ढलि पडि... ५६ थई अचेतन नाठी आन पीधउ जाणे मदिरापान सीतल जल छाटीउं सरीर वीजणडे घालीयो समीर... ५७ मुर्छा नाठी बईठी थई गयो नाह किम कीजई भई हवी सठसुं न चलई जोर भीजई भेदई नही कठोर... ५८ बीजा खंडनी बीजी ढाल परी कीधी दुख विचाल कविअण कहई सुणयो नरनारि अति हठ कीधउ पवनकुमार...५९ ढाल - ३ : जति सहित दूहा (देसी : प्रभु आवागमननी लाल रे) छेहू देई नई गयो नीठर पवन कुमार अबला झूरे एकली नाखंती जलधार. ६० चालि- नांखई आंखइ आंसू धारा, जाणे तूटा मोतीहारा गलियां काजल नयणारां, दुख सालइ घट सयणारां... ६१ दूहा- साजनीयां सालइ घणुं मीठा मिश्री दूध ताप मिटइ मिलीयां थकां हियडउं हेजालू ध. ६२ चालि- हेजालू ध जीआ राहीआ घटसुं घट सुपी दीया चितथी सो किम ही न जाय जग जो फेरि मंडाइ. ६३ दूहा- जग मंडाई फेरनइ पडे न वेरी भत्ति सो किम सज्जन वीसरइ जिणसुं वेधुं चित्त. ६४ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अनुसन्धान-७६ ६७ चालि- चित्त अंतर जिणसुं वेध्यउं अपयशथी मन नवि खेध्यउ वीसरइ किम ते प्राणनाथ जीवीई मरीई तिण साथि...६५ दूहा- वज्र सरीखा रे हिआ दुख तणो करंड बीछडतां सज्जण थकी किम न हूउ सतखंड... ६६ चालि- सतखंड हूउ नही केम पूरउ राखी न सक्यो प्रेम रहीनई फल केहलाआ फटि रे फटि पथ्थरहीआ... ६६ दूहा- प्रीउ चाल्यो परदेसडिं धणि मेल्ही निराधार कह्यो कसी परि जीवीइं है है सरजणहार. चालि- है है सरजणहार अबलाने कवण आधार घटरी वेदन कुण जाणइ जसु विचइ सो पिछाणे... दूहा- चित्तविलूधा वल्लहा सहियो प्रेम न जाय पंजर मांहि पलेवणुं केही परि उल्हाई... चालि- उल्लवीजई किसी परि दाह विण मिलीयां तो विण नाह। मोरउ जीव घणु अपराधी तो मई अह अवस्था लाधी. ७० दूहा- काया कोमल वेलडी विण सिची कमलाय सीचि सनेही प्रीतिमां जिम नवपल्लव थाई... चालि- नवपल्लव काया थाई विरहानल दूरि पलाई सुख सेती सेज रमिजई मानव भव लाहउ लीजई.. दूहा- तन सरोवर प्रीति जल यौवन लहरी जाय झील सनेही हंसला जा सई कालि सुकाय... चालि– कालि सूकी सरोवर जास्यई अते जीव घणुं पछतासई रहिसई मनषाहि अधूरी कुण करसइ आस्या पूरी. ७२ दूहा- वहतो मो मन वल्लहा मोटो हरख पडूर दरसणरउ सांसउ पडो मिलणउ रहिउं दूरि...... चालि- रह्यो मिलणो दूरि सनेही कही अवगुण दाखो केहा । पिसुणांरई कहीई न य(प)तीजई जू न साच तिहां शिर दीजई. ७४ दूहा- वल्लभ गयुं विदेसडई काया रही यम झूरि सरज्यां लहीई आपणां जे वहि लिख्या अंकूर... ७५ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १०३ चालि- लिखिया जे वेही अंकूर कुण मेट सकइ अणुरा भोलो जीव करई विश्वासा भरियां नाखई नीसासा... दूहा- ओ नीसासो हे सखी मो वेरी बलवंत । जो ओ नाथइ पापीउ तनडुं दुख छूटंति... चालि- दुःखहूंती तो हू छूटुं विरहानल बलती खूटु मो सहियो प्रेम न जाई जीव आकूलव्याकूल थाई... दूहा- हाक लिहीउ हे सखी खोटउं अथिर सनेह ओकपखो करि नेहलउ काई जलावइ देह... चालि- नेह अकपखो करि भोली घट भीतर कांधई होली अकली बइठी तु छीजइ उणरउ मन कांइ न भीजइ. दूहा- पथ्थर भेदीजई नही जो घण वरसई बार पल्लव मेल्हई रूखडां जिणस्युं प्रीति अपार. चालि- जिण रूखसुं प्रीति अपार तिण दीठइ हो इकरार अणसहतां जीव उदासी जोउ पठर लोह विमासी... दूहा- नेह घणो अके मने अक तणे मन भंग जोज्यो सगुण पटतरो दीपक अनई पतंग. चालि- जोज्यो दीपक नेह पतंगा अकांगई दाझई अंग मच्छ जल विण अति दुःख आणी पिण पाणी प्रीति न जाणई ८८ दूहा- तिणि कारणि हे बहिनडी परिहर सोग विकार कर्म तणां फल पामूआं भोगवणां निरधार... चालि- फल कर्मतणां भोगवणां दुख सोग तणी करि जरणां अपनो मन हटकी लीजई संवेग तणो रस पीजई... समजावी मन वालीयो छोड्यो मन अंदोह लागउ अकमनो थ(घ)णो धर्म सरीसो मोह... चालि- लागो धर्म सरीसो मोह छोड्यो मद मच्छर द्रोह वीतराग हीआमां धारइ मिथ्या मति दूरि निवारई. दूहा- सती करई सुधई मनई किरिआधि पच्चखाण आलोअण तप आदरई सीस वहई जिनआण. दूहा Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अनुसन्धान-७६ चालि- जिनआण वहई निज सीस चित्त सूधो विश्वावीस देहरई मुनिसुव्रत सामि प्रणमई शुभ मन हितकामी. दूहा- बीजा खंड तणी भली त्रीजी ढाल रसाल । वेधक मन वेधी जस्यइ सांभलता ततकाल. चालि- ततकाल चतुर मन वेधई जीव माहि घणो अति खेधे कहई कवीयण जे उपगारी परदुखे दुखीया भारी. दूहा- कटक सहु भेलुं करी चढीउ कुमर उणाहि रथ उपरि सोभई धजा लहकंती दलमाहि. नयनाला बहू वाहला अटवी खोह अपार विशमां मारग लंघीआ तोरण गढ प्राकार. वहिलां दिनकर आथम्यो चंद्र करई सुप्रकास प्रथम प्रयाणइ ऊतर्यां मानसरोवर पास. तंबू डेरा ताणीआ अति ऊंचा आकाश ऊतारा कीधा तिहां गज रथ घोडालासि पागथियां पहिलपणइ सहू उतरीयो साथ चउकी हूंसीयारइ करइ गुरु जगदाले हाथी. काहल सब डरामणो भीषण अनई भयाल सुणतां कायर कमकमइ पेट ध्रसूकाइ] फाल. कुमर विचालई ऊतर्या पाखल फिरत कनात हेठलि जाजिम पाथरी दुल्लीचा विख्यात. सुंदर सोहई रावटी मुखमल केरा पाट सखर काथीपा चंद्रूआ माहि बिछाही खाट. आप कुमर पोढउ तिहां कपडकोट आवास अंतरजामि आपणा पासई मित्र खवास. बईठां सुख वार्ता करई गाहा गूढ विचार तिणि अवसरि के पंखीआ बोल्या रान गफारि. मित्र भणी पूछइ कुमर ओ पंखी कुण नाम राति समई बोलई जिके अटवी माहि अकाम. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १०५ १०६ १०७ १०८ सामीपे छई पंखीआ चकवा चकवी जोडि निशि वियोगी दिन मिलई दैवई दीधी खोडि. स्त्री विण नर न रही शकई नारी विण भरतार जामि फिरंतां निशि तणां ओम विहाइ च्यारि. सुणि मित्र आखउं वात सी आछी कहूं निगेम तुझथी ओ पंखी भला जे घट ओवडो प्रेम.. रंभा अपछर संदरी छंडी बाली वेश प्रीतम वेछई अेक क्षण अवडो कस्यो अंदेश. ईम सुणी कुमर विमासीउं साच कहई छई भाई मिली आq पाछो जई तउ मुझ सफल विहाय. चित्तस्युं चीतवी ऊठीयो मानी मित्र वचन्न अंतरायरो क्षय हूउ आणंद पाम्युं मन्न. १०९ ११० ११२ प्री० .. ११३ प्री० ढाल - ४ : सीआलारी (राग-मल्हार) कुमर तिहाथी आवीयो अति परछन मेडी आवास कि अंजना बेइठी मालीइं शोकातुर हे नांखइ नीसास... प्रीउ मोहे घरि आवीयो दासीइं दीध वधामणी दउडीने हे बाईनई दीध कि आयो प्रीतम आपणो तुझ सघली हे हवी आस्या सीध कि प्रीतम... धाईने साह्मी गई वधावई हे मोती भरि थाल कि भलइं पधार्या मालीले घरि वाध्यो हे आनंद विशाल... हार हीई रे नवलखो वधाई हे दीधी बगसीस कि दासी संतोषी घणुं मनवंछित हे पूरी सुजगीस... आई आयुध छोडीयां चढि बईठो हे हींडोला खाट दासी पवन झकोलिवइ पहिरीआ हे पीतांबर पाट कि... तेल सुगंधी आणीआ तिणसेती हे अभंगण दीध उन्हा पाणी कुमकुमा सुखदाई हे तिणि मज्जन कीध... ११४ प्री० ११७ प्री० Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अनुसन्धान-७६ स्नान करी निर्मल जलई कस छोई हे लेप्यो अंग वागा पहिरा सोभता कसतूरी हे तिणि मज्जन कीध... ११८ प्री० अगर तणा करी धूपणा वली थाप्या हे चंदणरा कुंभ फूल विखेरां पुहचता अति सुंदर हे आवई सोरंभ कि... ११९ रचीया कुमरी रंगस्युं सोभीता हे नवसत शिणगार छंदो प्रीउनो चालवई अति मीठा हे मानई मनुहार कि... १२० प्री० पल्यंग विछाही पोढीया पधरावी हे नारीनई सेज किंठ लगाई प्रीतिसुं हीयडास्युं हे वली गाढई हेजि... १२१ अरति अंग तणी गई रोमराई हे परगटीयो रंग कामागन बूझावीयो तस ठरीयां हे आठइ ही अंग कि... १२२ नीद्रई सेजइ लह्यां थिकां तन तपीयो हे जल शीतल धार के विछडीयां साजणथि लई सुख जाणइंहे तसु सरजणहार... १२३ प्री० चंदा तु म म आथमे जिम रजनी हे अधिकेरी थाई पर उपगारी थाय जे मुझ ओ खिण हे लाखीणी जाई... १२४ प्री० सुंदरी सुणी चंदो कहई जिस तुझनइ हे वल्लभ छई नाह तिम हू रोहिणिवालहठं सवि कइनेइ हे सारिखी चाह... १२५ प्री० कामिनी वली कहइ चंदनई रोहिणनई हे हूं सरीखी केम थे सुख दिन प्रति भोगवो मुझ मिलीयो हे राकां(रांका) गुल जेम १२६ प्री० वलतो चंद कहई ईस्युं तो अहवई हे म म भूलि भरुसि खाधीनई दोडई सहू अणखाधारी हे न थई हूंसि... १२७ प्री० सो तो साचउ तुम्हे कह्यउ खिण जो अनइ हे जलखीर प्रसंग परउपगारह कारणइ आपणइ हे दुखाडई अंग... १२८ प्री० प्रीवली कहई चंदा सांभले पान फोफल के चूनारउ भंग आप करीवई कटकडा नर परनई हे उपायई रंग... १२९ प्री० चंद कहई सुंदरी थारई मनि हे मो रहीयां लाह पिण का अक छई विरहणी तिणरई घट हे मो दीठा दाह...१३० प्री० वेल दिरीखी सहूं नही तिण कारणि मुझ सीख समापि संजोगिणि चढती कला तुझ होज्यो हे मुझ वचन सुधापि.. १३१ प्री० Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १२५ १३६ १३७ तउ वलतुं कामिणि कहई नयणांसु हई चंदानई जोई मन तुम्हारई जे अछई ते करज्यो हे नही पालई कोई... १३२ प्री० कुंण चंदो कुंण कामिनी आपईण पई हे ठामिई रंग रोल। कवि चतुराई प्रीछयो सांभलतां हे आवइ कल्लोल... १३३ प्री० ढाल भणी चोथी ईहां रंगि मिलीय हे नारी भरतार जे नर सुणस्यई भावस्युं नहि पामइ हे ते विरह लगार... दूहा विरह मिटउ कुमरी तणो शीतल थयो शरीर रोम रोम सुख उपनो विकस्यो अंतर हीर. वर-तुरणी संतोषस्युं मिलीउ गाढउ मन्न माहोमाहि रंग स्युं बोलई प्रीति वचन्न. कुमर चतुर दाहउ घणुं खेलई रंगउछाह दुख बारां वरसां तणो वीसरियो क्षण माहि. हसतां रमतां हरखस्युं प्रह विकसी सुप्रकास ऊठो कुमर उतावलो मेल्ही रंग विलास. पवनकुमरनिं चालतां रमणी झालई हाथ कुमर छोडावई ताणिनई तो वली घालई बाथ. हे सुंदरि तुं छोडि द्यई बोलई पवनकुमार कटक सहू आगहि खड्यो थोभणरी नही वार. प्रीतम तुझ छोडुं नही नयणां दीठों नीठ नेह न जाणइ वल्लहा लागो रंग मजीठ. सुकुभीणी संतोष करि रहियां न सरई आज रनमई ऊभा लसकरी कोडि अधूरां काज. क्षणि खोलई बईसई सूई क्षण मुख चुंबन देई चालणरां पगला भरई तिम तिम नयण भरेई. आप कुमर जल आंखिरउ लूहई पल्लव देह हरणांखी थई हरखसु सीख सउज्जम थेई. सिधावउजी सिधि करो पूरो थांकी कोड मन सुख तब पावसई जव तुझ मिलस्यइ जोड. १३८ १३९ १४० १४१ १४२ १४३ १४४ १४५ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अनुसन्धान-७६ १४६ १४७ सति कहई प्रभु माहरइ रतिसमइ छई आज अहिनाणी साची दिउ पूठ रहई जिम लाज. कुमर विमासइ चित्तमइ लोक बोक कहिवाई नामांकित निज मुद्रडी स्त्रीनई दीधी सांइ. सीख करी चाल्यो कुमर कटकइ भेलो थाई मित्र कहई संतोष सुं भलो कोउं तई बाइ. कटक सहू तिहांथी वहई चाल्यो चढी प्रभात ओकमनां थई सांभलो जे हूई वांसई वात. १४८ १४९ ढाल - ५ : प्रहसमइ सुधा साधू नमो निति - देसी (राग - वेलाउलि) । ईणि अवसर बहू पुण्य संपूरउ देवतणो को जीव रे आवी अंजना कुखि ऊपनो भोगसमई अतीव रे. १५० स्वात तणो जल जाणे जाम्यो सुंगती पेटि वंश रे अथवा मान सरोवरहूंती कूखई उपनो हंस रे. मास बेऊ लगी गर्भ धर्याथी चडती कांति देखावई रे । त्रीजई मासई दोहला पूंठिइ नारी रूप फिरावई रे. १५२ तिहांथी अनुक्रम अनुक्रम प्रगटई गर्भतणां अहिनाण रे पंडूर गाल नयण हेजालां सघलऊं आ संधाण रे. १५३ नाभि उदरपट सेती ढांकई उंचई सादी न बोलई रे पुरुष तणो परसंग लहीनई साम्ही दृष्टि न खोलई रे. १५४ खाधो पीधो अंग न लागइ क्षण बईसई क्षण सोअई रे। क्षणमई उठण परहउं नाखइं पेटइ साम्हो जोय रे. १५५ जिम जिम गर्भ वधई अति मोटो तिम तिम अधिको रंग रे भूइ थकी कर देई ऊठइ चलती मोडइ अंग रे. १५६ अहवइ अंग तणे आचरणे गर्भ हूउं परगट्ट रे । छांना न रहइ कोइक कमाया वट्ट अनइ अँट्ट रे. १५७ ईतरई ओक राणीरी दासी आविनई बेइठी पासि रे अंग तणां आकार लहीनई हीई अक विमासइ रे. १५८ ' नट र Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १०९ इणरी कूखई गर्भ ऊपनो दीसई छइ निरधारो रे कंत तणो सुख पण न दीठउ तो ओ कवण विचार रे. १५९ जाणांछां को कर्मतणइ वसि लंछण इणनइ आयो रे तिहांथी अणबोली ऊठीनई राणीनई संभलायो रे. १६० बहूई तुम्हारीई पदक नीपायो छे कुल कलंक चडायु रे नजरई निरखीनई साच पूछु किण विधि कर्म लगायो रे.१६० वयण सुणीनई सासु ऊठी जाई जोआं अंग रे फिट रे काम किस्योनई कीधो मुडायुं उत्तम अंग रे. १६१ निर्मल कुल शुचि दोस उपायो तई ओ कर्म नीपाई रे सघलो अहिलोज मारउ खोया फल नही पामइ काई रे. १६२ देश विदेशे वात वंचासइ लोक करेसई हासी रे उज्वल यशनई कालि कलाई ओ तुं किस्! अविमासी रे १६३ वडे वडीले राज दीवाणे ऊखाणो थास्यइ रे परीयारउं ऊतरस्यई पाणी जूंनी कीरति जासई रे. १६४ अहवा बोल कहीनई राणी ऊठी रोस भरांणी रे। जाती जाती अम विमासइ जण हासुं घरि हाणी रे. १६५ कहई हवइ किसी विधि कीजई अकई बुद्धि न सूझई रे । राय बोलाई भेद जणाव्यो जे गति सघली बूझई रे. १६६ दासी मेल्ही राय तेडायो सयल संकेत सुणायो रे राय सुणी दिल्लगीर थयो घणुं भंडो काम कमायो रे. १६७ तेडउ उहरी वहूनई पूछो वात तणो विरतंत रे । किणरे भेदई कारिज कीg मरम लही अकंति रे. बोलावी अंजना सिंहा आवी बइठी निश्चल मन्न रे लाज तणावी सूसरो बोलइ माठे दृढ वचन्न रे. १६९ अह अवस्था किम ऊपनी साच कहेज्यो अह्म रे । जीव सदाई कर्म तणई वसि दूषण को नहीं तुह्म रे. १७० सती विमासइ चित्त संघातइ वात पडी अवलंक रे साच कहीजई तूउं छूटीजई नहींतरि चडइ कलंक रे. १७१ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-७६ मातपिता साच मानयो वात कहूं सुविसाल रे पुत्र तुह्मारो महल पधार्यो पाम्यो भोग रसाल रे. १७२ चंपकमाली दासी पूछो जउ अह्म वयण न मांनो रे आगलि नाखी सोवन वीटी अह अहनाणी सानो रे. १७३ अहिनाणी साची ले दीधी पणि तसु चित्त न पावइ रे कर्म तणां फल अणभोगवी फिरइ आडांई आवइ रे. १७४ सासू सुसरउ चित्त विमासी पाछउ जंपइ ओम रे जावउ वहू थे मंदिर वसो वल्लभ वाह्यो प्रेम रे. १७५ वात सहू इणि खोटी बोली कामी साच न बोलई रे जूआरी सोनार धूतारउ कबही कपट न खोलइ रे. १७६ अहवो जाणी राजाराणी कहई केसी विधि कीजइ रे सयल कुटुंबनई दोस चडावई जउ से घरि राखीजई रे. १७७ तिणि कारणि घर बाहिर काढो वेग म लावउं वार रे पीहरिई दिस वलछई सारी मुको रान मझारि रे. १७८ ओम विमासीनई बोलाव्यो रथरउ खेडणहार रे जावउ अंजना वेहिल चडावी मूको दंडाकारि रे. जो पूछइ तो ओम कहेज्यो पीहरनइ पठावइ रे दासीनइ पासइ मेल्हेज्यो तिम करज्यो जिम नावई रे. १८० तहत करीनइं रथपति चाल्यो फिरी वयण न वाले रे चाकर कूकुर बे सारिखा जिम कहइ तिम हाले रे. १८१ पांचमी ढाल से बीजा खंडरी कहतां हीअडइ सालई रे कवि कह स सुणो नरनारी कर्मसुं प्राण न चालई रे. १८२ १७९ १८३ रथ जोतरिनई आवीयो अंजना केरइ बारि आवो रथि बइंसो तुझे म करो रीस्य लगार. सती कहइ खेडू प्रति कहिनइ किस्यो विनाण पीहरी तुह्मनई मेल्हिरयां राय तणी छई आण. १८४ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १११ १८६ सीस चडावी आगन्या मन समरी नवकार वहिल चडी बइठी सती दासीसुं निरधार. रथ खेडीने चालिउ अटवी माहिं पहूत्त जोअण बार तणइ पहइ दंडकारण्य प्रभुत. रथ खंचीनई ईम कहई हे सुंदरि रथ छंडि मूंकिसि हूं तुझनई ईहां बीजी कांई म मंड. ईम कहीनई छोडी सती एकलडी निरधार बीजी दासी बापडी त्रीजो सील आचार. पीहर मारग पाधरो वलीउ सोय वातइं(?) जाणई ति करिजे हिवई जे वली आवई दाई. १८७-८८ १८९ १९० १९१ ऊभनई राखे रायका सांकडी रे... ए देशी राग - मारु (ढाल-६) अबला मेल्ही वनमांई ओकली रे विण गुनही विण दोस सुख दुःख तिणरा कहउ कुण जाणसई रे मनमांहि सई सोस... कर्म न छूटइ को कृत आपणा रे जीवई कीधां जेह ईह भव पर भवरा विसुआं भला रे भोगविआं विण तेह... कर्म न... सतीय विमासई ईम बईठी थकी रे केही दिसि परीआण करतां चित्तनई रुडं संभवई रे ___जाईजई तिणि ठाणि... कर्म न... पीहर जातां किम सोभीजीई रे माथइ अपयश सूल आणीने इ परमेसरई नाखीयुं रे देव थयो प्रतिकूल... कर्म न... १९२ १९३ १९४ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अनुसन्धान-७६ १९५ १९६ १९७ फल फूल खाउं वनि भमति थकी रे पीउ न जरण नीर काल गमाडउं गिरि शिर झंगरइ रे सेवउं तापसतीर... कर्म न... ईम चितवीनई तिहांथी नीसरी रे दासी छई संघात आगल जातां दिनकर आथम्यो रे साम्ही आवी राति... कर्म न... साहमी छांहे छांहि मिली गई रे प्रगट्यो घोर अंधार रे सूझई आगल आदरइ रे ____वीजई ठेसि अपार रे... कर्म न... सावज वनमाहिं सोर घणा करई रे वाघ सिंघ विकराल रे हाड श्योतर प्रेत घणा हसइ रे बीहावइ दे फाल... कर्म न... सतीयइं पथ तिहांथी निवारीयो रे बइठी वडवृक्ष हेठि मूल मंत्ररउ समरण मांडीयो सधी समकित देठि... कर्म न... अणसण सागारी मनसुं करी रे सरणां कीधां चार लाख चोरासी जी(व) खमावीया रे' दुरगति फेडणहार... कर्म न... मनसुं भावई बारई भावना रे वली अढारह पाप थानक चीतारीनई परिहरई रे - निंदई अतिघण आप... कर्म न... १९८ १९९ २०० २०१ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ ११३ २०२ दोष विचारइ निशिभोजन तणा रे पनरई करमादान नियम चीतारइ दसचिउ आगला रे हीयडई अरिहंत ध्यान... कर्म न... अंग संकोडी तिहां बईसी रह्या रे जिहां लगि वोली राति दैव खमावई ते प्राणी खमई रे सुहातउ न सुहात... कर्म न... ढाल छठी ओ बीजा खंड तणी रे कहइ कवियण सुविचार धर्म चीतारइ जे परवसि पड्या रे हूं तिणरी बलिहार... कर्म न.. २०३ २०४ दूहा २०५ २०७ इम करता रजनी गई पद्युत हुउ प्रभात उदया रवि पूरव दिसि सहस किरण संघात... ऊठी चली तिहांथी सती जाई चडी गिरशंग गुफा ओक सखरी ग्रही रहिवा कारणी रंग... २०६ जां लग इहां बइठी रहूं जां लगइ गर्भ विराम वार पीउं वनफूल भजु साधु आतम काम... ओम विमासी तिहां रही अंजना चतुर सुजाण खजमति दासी बहूं करइ पासिं जीव बंधाण... ___ढाल - चूनडीलु - ७, राग - गोडी वनमिरि शिर रहतां थकां पुहता गर्भ पूरा मास रे मन हर्ष घणइ संतोषस्युं अति निरुपम लील विलास रे. २०९ सुत सखरो निकउ जाइउ तन दिनकर तेज प्रताप रे जिणणी चित्त लागो. मेरुस्यउ हिवई पूजेसई मन आस रे. २१० सु० वेग करी दासी तिहां सुखशज्या भूमि रचंति रे अति कोमल पल्लव आणिनइ वली फूल घणां पथरंति रे. २११ सु० २०८ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अनुसन्धान-७६ राणी पोढी रंगस्युं सुत राखी अक छेलई रे मुखि पीनपयोधर ले ठवइ धवरावई पयरस रेलि रे. २१२ सु० देखाडा रवि चंद्रमा वली जागी बेठी राति रे दस दिन लग थिति साचवी समया सरिखी सदभाति रे. २१३ सु० स्नान दसूठणारउ कीयु जल सेंती धोयां चीर रे तन अशुचि सवे दूरइ हरी सुख पाम्यो आप शरीर रे. नक्षत्र अभीचई ऊपनो योध महा दुरदंत रे, गुण सि(स)कल विराजित सोभतो नाम दीयो हनुमंत रे. २१५ सु० चंपकमाला हेजसु निशि वासर सारई सेव रे फलफूल चूटी आगई धरई जब देखई जे टेव रे. संपति वेला ढूकडी दुख दीठइ नासई हारि रे ते माणस कोडी कारिमी लहई मोल ऊगंतई सूरि रे. २१७ सु० विल्यडी ल्यइ आंगडी सघलो दुःख आपस जोडी रे नरकी मति तिणरी अकरी लख अरवि अनंती कोडि रे. २१८ उत्तम कुलरी ऊपनी दासी चंपकमाला रे मुखि कबहि छोहा नवि कहई विहसंतई वदन विशाल रे. २१९ सु० ईणि परि दीहा योगवई गिरि भीतरि नारी रे तसु पुत्रतणई आलवणई दिन गुदरी जायई पारि रे. २२० सु० ढाल भणी ओ सातमी सुत जनम तणी मई पेह रे हिवई राति छठ्ठी जे लिपि लिखी कुण मेटि सकई नर तेह रे. २२१ सु० खंड अह बीजउ कहिउ पूरण गुरुदेव पसाय रे पुण्यसायर पुर साचोर मई वाचक गुणरंगई गाय रे. २२२ सु० ___ इतिश्री अंजनासुंदरी-पवनंजयकुमर-संबंधे पठिमादिग्पाल-साधनाधिकार लंकाधिपरिद्धिवर्णन, प्रह्लादननृपप्रमुखसकलमंडलेश्वर-अकत्रकरणाय दूतमोचन, तदवसरे पवनंजयकुमरेण मानसरोवरतटे चक्रवाकचक्रवाकीविरहालापशृणन् अंजनासुंदरीअंतरायकर्मक्षयवशदिक्वमिलन, तत्र गर्भोत्पत्ति, अंजनासुंदरी अंतरायकलंक दासीसहित बाह्यमोचन, तत्र हनुमंतजन्माधिकारवर्णनो नाम द्वितीयः खण्डः । C/o. ३४, प्रोफेसर्स कोलोनी, नवरंगपुरा, अमदावाद-९ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ ___ ११५ श्रीविजयभदमुनि-रचित कमलावती रास - सं. डिम्पल नीरव शाह श्रीमहेश्वरसूरिजीओ ज्ञानपंचमी- माहात्म्य वर्णवती कमलाख्यानक नामनी प्राकृत १२५ गाथानी कृति रची छे आ कृतिना आधारे श्रीहेमविमलसूरिजीनी परम्परामां लावण्यरत्नना शिष्य श्रीविजयभद्र नामना मुनिओ (वि. १६मो सैको) ५० कडीनी, कमलावती नामनी सतीनुं कथानक निरूपती, आ कृति रची छे. कर्ताओ आ उपरान्त कलावती सतीनो रास, शिखामण सज्झाय व. कृतिओ पण रची छे. कैलाससागरसूरि ज्ञानभण्डार - कोबा गत त्रण प्रतना (क्रमाङ्क ५१७१९, ४०७६४, ४३७७६) आधारे आ कृतिनुं सम्पादन कर्यु छे. प्रत आपवा बदल ज्ञानभण्डारना संचालकोनो आभार. ॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ श्री नमिउं वीरजिणेसर दिणेसर अभिनवु कूणि, भरत खेत्र भरू[छ]वि नगरनी सोभा जोणि । मेघरथ तिहां राजा रा[ज] करइ धर्म जंपइ, इंद्रन[ग]रवि रिद्धि जिसी तस घरि संपइ ॥१॥ तस घरि संपइ जिनधर्म जंपइ तेहनी बेदी(टी) कमला, कमला परघरि जेहनइ जेहवी तेहनी मनछा विमला । मणिमाणिक पहिरी सोवनमय योवनभरि ते आवी, रथवल्लभराइ जा उछवमइ बाप परणावी ॥२॥ सोपारइ पाटणि रथवल्लभराय जाणउं, ते कमला कन्या परणी करी गयु आणुं । पांच अनुत्तर सुर जिम ति सहू सुख बे लेखइ, वेखइ सहू सुखमइ अवतरी माणस लेखइ ॥३॥ माणस वेप(ष)इ ते सुखइ अतिरूपि ते नारी, त्रिभुवन रूप नही ते तोलइ रंभा रूपइं हारी । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अनुसन्धान-७६ नवरंगा चंगी नेत्र कुरींगी सहिजि अति सुकुमाल, हवइं सांभलउ सतीनइ माथइ पडइ अचिंतु जाल ||४|| ॥ ढाल ॥ गिरिवर्दन नगरि वसइ रे समुद्रह पेलि पारि, तिहांनउ राय यात्रा भणी रे आवउ पाटेणि मज्झारि । जीवतस्वामि जुहारइ रे नरनाथ जोडी हाथि, पूजी अरथी(ची) गुण थवइ रे, रूअडला श्रीआदिनाथ ॥५॥ आदिनाथ पूजीनइ राजा जोइ नगर निहाली, सपतभूमि मंदिरइ च्छाजा कोरणीआली जाली । हेमकलस झलकंता मंदिर रंगि राजा जोइ, गुखि बइठी कमला दीठी कस्त्र(कन?)ओइ पउमे(?) अपछर वोइ ॥६॥ आकुल व्याकुल रा हूउ रे देखी असंभम रूप, कामंध नइ गहिलु हूउ रे घरि गयु आपणि भूप । राई मनि आपणइ रे चीतवइ पाप अपार, ओ नारी कलत्रिह करु रे ताणी आणि सुरि (सारि) ॥७॥ आणी ताणी म करिसि प्राणी छती भलामइ जाणी, आकरसी विद्याइ सूती राणी आपणी शाणी बो[ल]इ वाणी म करसि प्रा[णी] मझनं सुखडी पाणी, स(सी)ल न खत खडउं जासिइ प्राणी पीलसि घाली घाणी ॥८॥ ॥ ढाळ ॥ भामिनि भणइ भोला प्राणीआ रे विषयनी सु(ध) छोडि सुख अनंता प्रा(पा)मीआ रे भोगि भमिउ भव कोडि रे राजा नही जीवइ त्रिणि पंचास, थोडउ जीवी घणउ साधइ रे जिम छूटइ गर्भवास रे राजा० ॥९॥ जीव सुतु सुहूणा माइहे रे, देखइ वसु अनेक । जाग्या पछी काइ तं(न)ही रे सुहूणा माहिक रे राजा० ॥१०॥ सर्व संसार सुहूण ससु(मु) रे पुत्र कलत्र परिवार ।। दिन वाकेइ वाल्हा विडइसि के सवि मूकी देह कीजइ छार रे राजा० ॥११॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ ११७ वीज परि चंचल सहू रे धन योव[न] घर वास ।। देखता आयु जाइ जीवत्त(तु) रे मरण तुसि वीसास रे राजा० ॥१२॥ ठामि ज बिटु(तु) तप करइ रे मौन धरेइ मनमंत । विषय तणी वाछा करइ रे त(ते) लहइ भवनु अंत रे राजा० ॥१३॥ दधिवाहन राजा तणी रे बेटी चंदनबाल । मूली मस्तक मूडीउ रे वेणी वेध्या वाल रे राजा० ॥१४॥ पति वाहहरा सुणी रे, बा(छां)डी तृण परि राज । मयणरेहा सुत संबा(बो)धी रे, सारिउ जीवतु काज रे राजा० ॥१५॥ बारस भोगवी रे राजा विलसी बारइ कोडि । घृ(थु)लिभद्र संजमश्री वरी मरट मोमि(डि)उ रे राज० ॥१६।। सविहाणइ पय प्रणमी रे जंबू बे कर जोडि । आठ रमणि जिणि परिहरी रे कणय नवाणू कोडि रे राजा० ॥१७॥ कमलावतीइं निवुनिवा रे रायनह धि उपदेस । पापीनई लागइ नही रे क्रोधाध हुउ नरेस रे राजा० ॥१८॥ बहुल कर्म प्राणी प्रते रे प्रति(बो)धइ दिइ वीतराग, तेहy जीव जागइ नही रे साहमु धराइ मनि राग रे राजा० ॥१९॥ ॥ ढाळ ॥ राय रुठउ रोसिं करी रे, सती मइ कर संताप । कामिनि कहइ रा प्रति रे, तू छंइ माहरु बाप ॥२०॥ इंद्र किवार इआह आवइ रे, न करइ मझ सील भंग । तु मूरख छइ त्रिणा समु रे, न करूं परसंग ॥२१॥ परनर संग न करूं परनो, तिमइ सीखउ जिनधर्म । तारी मझनइ तूसिं मारिसि, माहरई माहरी कर्म ॥२२॥ जिम मारि करइ तव राजा, तिम तिम कर्म अहा(ही)आसइ । अरिहंत वारणह पोहवइ मझनई, माहरूं जीवित जासइ ॥२३॥ सतीइ बाप इसिउ कहिउ रे, राय मनि धायु. रोस ।। पांवसई नाडी नित माइरइ रे, दिइ तव कर्मनइ दोस ॥२४॥ दुख अनंता तिहां देखइ रे, कर्मतणां फल वाहि । सर्वांगि लोहभरा रे, थालवाडामां माहि ॥२५॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अनुसन्धान-७६ वाडामिहि घाली राजा, पाप वचन कहि जाइ । सती कहि तु माहरु भाइ, हुं छउं ताहरी बाई ॥२६॥ तू राय रुठउ माहरी काया, कटका करिज्ये राई । काया कलपी मइछइ तुझनई, राखं सीलसखाइ ॥२७॥ काया अनंती जीविं लही रे, न लहिं कहिइ सील ओक । पाय पडइ मीनति करइ रे, तरवइ उपाय अनेक ॥२८॥ लोत देखाडइ नितु निवा रे, बोलइ हीण वचन । कमला तूं तिलमात्र रे, नवलि सील रतन ॥२९|| सीलइ मेरु पर्बत जिम निश्चल राभ(य) अतरि जिम थाली । राजा सर्वांगि खीलाणू न सकइ हाली वाली । सासणिदेव ति कीरति कीरतिवर्धन कीधुं मरिवा सरिखु । थांभानी परि थंसी राखिउ सीलनु महिमा निरिखु ॥३०॥ ॥ ढाळ ॥ कमला कंथ जागउ मूती, अनइ देखइ बालि, गहिबरु हुउ थाइसिउं, पेटि पडी दुख झाल । दीवउ करीनइ घरि घरि, सघलि नगरि तिहां जोइ, कोइ सिद्धि न जाणइ, नेत्र करियां राता रोई ॥३१॥ राजा रोई सघले जोई, ते जीव किहां न लाधु, आरति पूरइ दुखि झूरइ, दारुण दुखि दाधु । सिद्धि बुद्धि गई कमला, विरहइ गहिलु हुउ गाढउ, पहिलु राजा ति सुत दीसइ, जीव जासि इसिउं वहिलउ ॥३२॥ किसिइ करम संयोगि आव्या केवलन्यानी, जइ राजा पूछइ कमला किहां छइ छानी । जत सती कहइ वरतांत कीरतवरधान तस ठाणि, आवी आकरसी लेइ गयु आपणइ गामि ॥३३॥ आपणइ गामिडउ कामि बहु छइ करइ मार, विष्टा पाड माहे छइ घाली राखइ सील अपार । सूरजि किरण कहींइ नवि लागा दुखइ छइ केम्म, इ सुगुरु भणई कुणई कर्म छूटइ रथवल्लभ सुणि इम्म ॥३४॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ ११९ ॥ ढाळ ॥ अनु पूरव भव तु राजा, हुतु धन्या नामि राणी । अनु पर भवि कमला ताहरइ, हूती क्रोध तणइ परमाणि रे प्राणी । तवसउं केवली बोलइ, अनु जीव तिल जेतलुं कर्म बाधइ । ते दुख सहइ मेरु तोलइ रे प्राणी ॥३५॥ अनुं मारी रे बांधी मल खाडइ, घाली इणि राणी एक बाधी । अनु भुखीतरसी अति घणी, राखि अंगि पडी सविवा(धी?) रे प्राणी ॥३६।। अक दिन राखी बाहरि काढी, इस्या रे कीधा पाप काज । अनु ते कर्म कमलानइ उदय आव्या, भोगवि छइ ते आज रे प्राणी ॥३७॥ अनु धम्म मरीनइ कमला रे हुई, लागा परभव पाप । अनु इसिउं स्वरुप सुणीनइ राजा, मनि करि सोक संताप रे प्राणी ॥३८॥ अनु छम्माहू आ दुख देखंता, तेहनई भोगव्या आधा कर्म । अनु वरस लगणि पूरा कर्म, भोगवी पछइ शिव शर्म रे प्राणी । अनु ते वली छूटसि तुझनइ मिलिसइ, मनि म करिसि उबा(चा)ट । अनु इसिउं रे कही केवलिअ सिधाव्या, गेय(गये) यो(जो)इ नितु वाट प्राणी ॥४०॥ ॥ ढाळ ॥ वेडी रे भागी पाय लागु सही सील प्रभावि मानइ मा कही । कीरतिवर्धन त(भ)गति करी पछइ वाहणि वडावी आविउ भरुअच्छि ॥४१॥ नगर भरुअछि माहि मेहली पीडरि सहू आवी । मिलइ माय बाप बंध बहिनि अतिघणा साइदि वलगी गलइ । तेह पासइ ओक सासइ दुख सहू कमला कहइ । बाप करइ विलाप अति घणा माय रडती नवि रहइ ॥४२॥ तिहाथी रे चाला प्रीय भेटणि भणी रथवल्लभराइ कलत्र आवी सुणी । अक जणि जइ दिइ रे वधामणी साहमु आव्यउ कमलानु धणी ॥४३॥ धणीअ जइनइ लइअ आविउ हरिखि पूररिया बे जणा । भरतार प्रतिबोध दिइ कमिनी वचन कही धर्मह तणां । आयु थोडं धर्म जोडु भोग च्छोडउ वल्लहा । धर्म विण नर जन महारिउ भोग भवि भवि सल्लहा ॥४४॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अनुसन्धान-७६ सुणितू रे वल्लहा दुख जे मइ सुणिया । पार न पामुं अकइ जीभइ कहिया ।। जीवन वेतइ बापड धुरि लगइ । कर्म करीनइ नरगि पडिउ रगइ ॥४५॥ रगइ नरगि पडिउ प्राणी कर्म कीधा सोहिलिया । जीवनइं संसारि भमता जिनदेव दरसणि दोहिल्या । सुगुरुनी हु सीख मागइ का रेलइ जीवडु । सेसा सागर माहि पडतां धरइ समकित दीवडु ॥४६।। भरतार नत्रउ त्रूटउ ताहरूं साहमी नात्रउ ताहरइ माहरु । तुझनई रे मझनई सील सदा सही भोग न भोगवउ तुझ साथि कहिइं ॥४७॥ न भोगवउं वली भोग तुझसिप्र(उ) विषय विरूउ विष जिसिउ । नि पाप मनि हवइ मइ कीधा सिणगार न गमइ मइ मझ किसिउ । संसार मोहे भमइ भोगी अभोगा(गी)नई सुख घणां । संभोग करी तिलमात्र तुझसिउं नरगनां दुख देखणा ॥४८॥ घरणीनइ वचनइ कंत वयरागीउ । ओ हू संसार विष समउ लागीउ । बाखि(पे) बोलावी बेटउ छल करी । राजि बइसारी बाल बहि धरी ॥४९॥ बाहि धरीअ बालक राजि थापी घरे वीस वरसंइ रही । तिहां थ(छ)काय वू(छ)टी जिसीय आवी तिसिउं सील लीधु सही । चारित्र पालइ कमलाइ केवली गुरु बे थया । विजयभद्र मुनिवर इम जंपइ मोक्षमंदिरि माहि गया ॥५०॥ ॥ इति श्रीकमलावतीनु रास समाप्त ॥ C/o. A-2, वात्सल्य फ्लेट, ६३, वसंतकुंज सोसायटी, नवा शारदामंदिर रोड, पालडी, अमदावाद-७ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ जान्युआरी- २०१९ स्वाध्याय चतुर्थ देवलोक के देवों से तृतीय देवलोक के देवों के अल्पबहुत्व सम्बन्धी स्पष्टता - आचार्यश्री रामलालजी म. सारांश ( ABSTRACT) श्रीमत् प्रज्ञापनासूत्र के तृतीय पद के महादण्डक इत्यादि में चतुर्थ देवलोक के देवों से तृतीय देवलोक के देवों को असंख्येयगुणा माना जा रहा है । साधक-बाधक प्रमाणों का तटस्थ प्रज्ञा से अवलोकन करने पर यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि 'चतुर्थ देवलोक के देवों से तृतीय देवलोक के देव संख्यातगुणा' एतत्सम्बन्धी संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है श्रीमत् प्रज्ञापना सूत्र व श्रीमद् जीवाजीवाभिगम सूत्र की हस्तप्रतों में 'संखेज्जगुणा' पाठ है । (देखें-बिन्दु क्रमाङ्क-१) जीवसमास के वृत्तिकार ने जीवसमास के कथन को असंगत बताते हुए 'महादण्डक' (श्रीमत् प्रज्ञापना सूत्र, पद ३) के अनुसार 'संख्येयगुणा' बताया है । (देखें-बिन्दु क्रमाङ्क-२) । जीवसमासवृत्ति में उद्धृत महादण्डक में (हस्तप्रतों में) 'संखेज्जगुणा' __ पाठ है । (देखें-बिन्दु क्रमाङ्क-३) ४. श्रीमद् भगवतीसूत्र की श्रीअभयदेवसूरि कृत वृत्ति में उद्धृत श्रीमद् जीवाजीवाभिगम सूत्र के उद्धरण में 'संखेज्जगुणा' पाठ है। (देखें-बिन्दु क्रमाङ्क-४) श्रीमद् जीवाजीवाभिगम सूत्र में मूलपाठ की शैली में 'जाव' का प्रयोग 'संख्येयगुणा' को दृढ़ता से पुष्ट करता है । (देखें-बिन्दु क्रमाङ्क-५) प्रज्ञापनोपाङ्ग - तृतीय - पद - संग्रहणी (श्री अभयदेवसूरि रचित), महादण्डक प्रकरण, भगवती चूर्णि तथा षट्खण्डागम (धवला टीका) इनमें भी 'संख्येयगुणा' बताया है । (देखें-बिन्दु क्रमाङ्क६-७-८) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अनुसन्धान-७६ विषय प्रवेश - श्रीमत् प्रज्ञापना सूत्र के तृतीय पद के महादण्डक में (९८ बोल की अल्पबहुत्व में) तथा श्रीमद् जीवाजीवाभिगम सूत्र की द्वितीय प्रतिपत्ति इत्यादि में 'चतुर्थ देवलोक के देवों से तृतीय देवलोक के देवों को असंख्येयगुणा' माना जा रहा है। साधक-बाधक प्रमाणों का तटस्थ प्रज्ञा से अवलोकन करने पर यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि यहाँ पाठान्तर रूप से प्राप्त ‘संख्येयगुण' पाठ ही सम्यक् एवं शुद्ध है। २ बिन्दु क्रमाङ्क - १ जिन-जिन आगमिक मूलपाठों में प्रतियों में पाठान्तर प्राप्त होते हैं, उन-उन स्थलों पर अन्यान्य प्रमाणों, सिद्धान्तों, युक्तियों के आधार से सम्यक् पाठनिर्णय अपेक्षित ही नहीं, अनिवार्य हो जाता है । यह अनिवार्यता तब और बढ़ जाती है जब पाठों की भिन्नता से अर्थ की भी भिन्नता प्रकट होती हो । उपर्युक्त प्रसंग में चौथे देवलोक के देवों से तीसरे देवलोक के देवों को श्रीमत् प्रज्ञापना सूत्र एवं श्रीमद् जीवाजीवाभिगम सूत्र की कुछ प्रतियाँ 'असंख्येयगुण' कह रही है एवं कुछ 'संख्येयगुण' । अतः यह निर्णेतव्य है कि वस्तुतः असंख्येयगुण वाला पाठ शुद्ध है या संख्येयगुण वाला पाठ। आगे दिये जाने वाले बिन्दुओं से यह स्पष्ट हो जाएगा कि 'संखेज्जगुणा' वाला पाठ शुद्ध है। स २ बिन्दु क्रमाङ्क - २ आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी ने पाठनिर्णय के सन्दर्भ में आगमिक व्याख्याओं एवं अन्य ग्रन्थों में प्राप्त सम्बन्धित उद्धरणों को भी महत्त्व दिया है और यथासंगति वे महत्त्वपूर्ण होते भी हैं । यहाँ भी पाठनिर्णय के सन्दर्भ में जीवसमास की वृत्ति में आगत श्रीमत् प्रज्ञापना सूत्र सम्बन्धी उद्धरण सम्यक् पाठ की ओर इंगित करता Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १२३ 'जीवसमास' की मलधारी हेमचन्द्रीया वृत्ति में २७४वीं गाथा की व्याख्या करते हुए कहा है कि "महादण्डक में चौथे देवलोक के देवों से तीसरे देवलोक के देवों को संख्यातगुणा कहा है ।" यथा "यतो महादण्डकेऽनुत्तरविमानवासिभ्य आनतकल्पं यावत् सङ्ख्यातगुणैव वृद्धिरुक्ता । माहेन्द्रदेवेभ्योऽपि सनत्कुमारदेवाः सङ्ख्येयगुणाः । ईशानदेवेभ्योऽपि सौधर्मदेवाः सङ्ख्येयगुणाः प्रोक्ता इति ।" । ___ - पृष्ठ २३२ (जैन ग्रन्थ प्रकाशन समिति - खम्भात, ई. सन् १९९४) यहाँ वृत्तिकार स्पष्ट कह रहे हैं कि श्रीमत् प्रज्ञापना सूत्र के तृतीय -पद-गत महादण्डक (९८ बोलों की अल्पबहुत्व) में चौथे देवलोक माहेन्द्र के देवों से तीसरे देवलोक सनत्कुमार के देवों को संख्येयगुणा कहा है । वृत्तिकार के इस कथन का विशेष महत्त्व इस कारण से है कि वे श्रीमत् प्रज्ञापना सूत्र गत महादण्डक के पाठ के आधार से जीवसमासकार के उस कथन को असंगत बता रहे हैं, जिसमें जीवसमासकार माहेन्द्र देवों से सनत्कुमार देवों तथा ईशान देवों से सौधर्म देवों को असंख्येयगुण बता रहे हैं। तात्पर्य यह है कि मलधारी हेमचन्द्रसूरिजी के अनुसार "श्रीमत् प्रज्ञापना सूत्र के तृतीय पद में महादण्डक में चौथे देवलोक के देवों से तीसरे देवलोक के देव संख्येयगुण ही है, असंख्येयगुण नहीं है ।" २ बिन्दु क्रमाङ्क - ३ जीवसमास की इसी वृत्ति में १५२वीं गाथा की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार ने श्रीमत् प्रज्ञापना सूत्र के तृतीयपदगत महादण्डक को अविकल रूप से उद्धृत किया है । यहाँ भी चतुर्थ देवलोक के देवों से तृतीय देवलोक के देवों को संख्येयगुण बताया है । यथा_ 'माहिंदे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा, सणंकुमारे कप्पे देवा संखेज्जगुणा' यद्यपि आगमोदय समिति (पृष्ठ १४४ - अन्तिम पंक्ति, ई. सन् १९२७) तथा श्री जैन ग्रन्थ प्रकाशन समिति, खम्भात (पृष्ठ १२८ - पंक्ति १९, ई. सन् १९९४) से प्रकाशित 'जीवसमास (सटीक)' में यहाँ 'सणंकुमारे Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अनुसन्धान-७६ कप्पे देवा असंखेज्जगुणा' ऐसा पाठ मुद्रित हुआ है किन्तु यह सम्यक् नहीं है क्योंकि खम्भात की ताड़पत्रीय हस्तलिखित प्रति जिसे स्वयं मलधारी हेमचन्द्रसरि द्वारा लिखित माना जा रहा है, उसमें यहा 'संखेज्जगणा' ही पाठ है, 'असंखेज्जगुणा' नहीं । जीवसमासवृत्ति की पाटण की कागदीय हस्तलिखित प्रति (पाकाहेम ६९५१) में भी यहाँ संखेज्जगुणा ही पाठ है। साथ ही गाथा २७४ की व्याख्या में आगत 'सङ्ख्येयगुणाः' पाठ से भी यह स्पष्ट है कि मलधारी हेमचन्द्रसूरि महादण्डक में संख्येयगुण पाठ ही मानते थे, असंख्येयगुण नहीं । तात्पर्य यह है कि जीवसमास (गाथा १५२) की श्री मलधारी हेमचन्द्रसूरि कृत वृत्ति में आगत श्रीमत् प्रज्ञापना सूत्र के इस उद्धरण के आधार से श्री प्रज्ञापना सूत्र की हस्तलिखित प्रतियों में प्राप्त संखेज्जगुणा' पाठ की शुद्धता दृढ़ रूप से संपुष्ट होती है । २ बिन्दु क्रमाङ्क - ४ .श्री भगवती सूत्र शतक १२ उद्देशक ९ में (पाँच देवों के प्रकरण में) अल्पबहुत्व द्वार में भावदेव सम्बन्धी अल्पबहुत्व का संक्षिप्त रूप से निर्देश किया है तथा श्री जीवाजीवाभिगम सूत्र का अतिदेश (भोलावण) किया गया है । वह पाठ इस प्रकार है "अच्चुए कप्पे देवा संखेज्जगुणा जाव आणते कप्पे संखेज्जगुणा, एवं जहा जीवाभिगमे तिविहे देवपुरिसे अप्पाबहुयं जाव जोतिसिया भावदेवा संखेज्जगुणा' ।। _ - श्री भगवती सूत्र, शतक ९, उद्देशक १२, अन्तिम सूत्र उपर्युक्त पाठ की व्याख्या करते हुए श्री अभयदेवसूरिजी ने श्री जीवाजीवाभिगम सूत्र के प्रकृत पाठ को वृत्ति में उद्धृत किया है । यहाँ भी चतुर्थ देवलोक (माहेन्द्र) के देवों से तृतीय देवलोक (सनत्कुमार) के देवों को 'संख्येयगुणा' बताया है । वृत्तिपाठ इस प्रकार है "अथ भावदेवविशेषाणां भवनपत्यादीनामल्पबहुत्वप्ररूपणयाह - ‘एएसि ण'मित्यादि, 'जहा जीवाभिगमे Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १२५ तिविहे' इत्यादि । इह च 'तिविहे'त्ति त्रिविधजीवाधिकार इत्यर्थः । देवपुरुषाणामल्पबहुत्वमुक्तं तथेहापि वाच्यं, तच्चैवं - 'सहस्सारे कप्पे असंखेज्जगुणा, महासुक्के असंखेज्जगुणा, लंतए अंसखेज्जगुणा, बंभलोए देवा अंसखेज्जगुणा, माहिदे देवा अंसखेज्जगुणा, संणकुमारे कप्पे देवा संखेज्जगुणा, ईसाणे देवा असंखेज्जगुणा, सोहम्मे देवा संखेज्जगुणा, भवणवासिदेवा अंसखेज्जगुणा, वाणमंतरा देवा अंसखेज्जगुण'त्ति" - श्री भगवती सूत्र, शतक ९, उद्देशक १२ के अन्तिम सूत्र पर भी अभयदेवसूरि कृत वृत्ति का उपर्युक्त उद्धृत शुद्ध वृत्तिपाठ हस्तलिखित प्रति के आधार से लिखा है । __उपर्युक्त वृत्त्यंश में उद्धृत श्री जीवाजीवाभिगम सूत्र के पाठ के आधार से श्री जीवाजीवाभिगम सूत्र की हस्तलिखित प्रतियों में प्राप्त ‘संखेज्जगुणा' पाठ की शुद्धता दृढ़ता से पुष्ट होती है । साथ ही इससे श्री भगवती सूत्र में 'संखेज्जगुणा' पाठ होना सिद्ध होता है। इस भगवतीवृत्ति सम्बन्धी वर्णन से सुसिद्ध है कि श्री भगवती सूत्र एवं श्री जीवाजीवाभिगम सूत्र इन दोनों सूत्रों के अनुसार चतुर्थ देवलोक के देवों से तृतीय देवलोक के देव संख्यातगुणा है । भगवती सूत्र की चूर्णि से भी यही तथ्य प्रकट होता है। भगवती चूर्णि सम्बन्धी कथन को बिन्दु क्रमाङ्क ८ में आगे स्पष्ट किया गया है। साथ ही यह भी स्पष्ट है आचार्य श्री अभयदेवसूरिजी भी संखेज्जगुणा पाठ ही मानते थे । आचार्य श्री अभयदेवसूरिजी ने स्वरचित प्रज्ञापनोपाङ्ग-तृतीय-पद-संग्रहणी में भी 'संख्यातगुणा' ही माना है । इसे आगे बिन्दु क्रमाङ्क ६ में स्पष्ट किया गया है । बिन्दु क्रमाङ्क - ५ श्रीमद जीवाजीवाभिगम सूत्र की द्वितीय प्रतिपत्ति के मूलपाठ की शैली से भी तृतीय देवलोक के देवों का चतुर्थ देवलोक के देवों से संख्येयगुण होना दृढ़ता से पुष्ट होता है । मूलपाठ की वह शैली इस प्रकार Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अनुसन्धान-७६ "अच्चुयकप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, जाव आणतकप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, सहस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, महासुक्के कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा जाव मांहिंदे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, सणंकुमारे कप्पे देवपुरिसा (xअ)संखेज्जगुणा, ईसाणकप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, सोधम्मे कप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा ।" - सूत्र-५६, आगमोदय समिति, मधुकर मुनिजी मुद्रित प्रति में यहाँ 'सणंकुमारकप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा' पाठ दिया है किन्तु मूलपाठ की शैली से यहाँ 'संखेज्जगुणा' होना चाहिए, ऐसा स्पष्ट होता है। यदि वस्तुतः सनत्कुमार कल्प में असंख्येयगुणा पाठ ही होता तो 'जाव' पद का प्रयोग "माहिंदे कप्पे" के पहले न करके 'ईसाणकप्पे' के पहले करते, क्योंकि वैसा होने पर असंख्येयगुणा का क्रम सहस्रार कल्प से लेकर माहेन्द्र कल्प तक न होकर निरन्तर ईशान कल्प तक होता । उसके बीच में ही माहेन्द्रकल्प के पूर्व तक 'जाव' का पाठ देकर फिर माहेन्द्र में, सनत्कुमार में, ईशान में क्रमशः असंखेज्जगुणा पाठ देने का कोई औचित्य नहीं था । किन्तु, चूकि 'जाव' पद का प्रयोग ‘माहिंदे कप्पे' के पूर्व तक ही है, इससे स्पष्ट है कि असंख्येयगुणा का क्रम माहेन्द्र कल्प तक ही चल रहा है, तदनन्तर सनत्कुमार में संख्येयगुणा है, फिर ईशान में असंख्येयगुणा है एवं फिर सौधर्म में संख्येयगुणा है । निष्कर्ष यह है कि मूलपाठ की शैली में 'जाव' का प्रयोग 'माहिंदे कप्पे' के पूर्व करना यह दर्शाता है कि निरन्तर असंख्येयगुण का क्रम माहेन्द्रकल्प (चतुर्थ देवलोक) तक ही है। तदनन्तर सनत्कुमार कल्प (तृतीय देवलोक) के देवों को संख्यातगुणा ही समझना चाहिए । २ बिन्दु क्रमाङ्क - ६ इसी प्रकार की शैली श्री अभयदेवसूरि रचित श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ जान्युआरी- २०१९ -तृतीय-पद-संग्रहणी में भी प्राप्त होती है । यथा "छट्ठाइ सहस्सारे महसुक्के पंचमाए लंतम्मि । पंकाइ बंभलोए तच्चाए पुढवीए माहिंदे ॥११८॥ कमसो असंखगुणिया सणंकुमारे य होंति संखेज्जा । दोच्चाए असंखेज्जा, मुच्छिममणुया वि एमेव ॥११९।। तेसिं तु असंखगुणा ईसाणसुरा उ संख देवी उ । सोहम्मकप्पदेवा देवी संखेज्ज कमसो उ ॥१२०।। - श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग-तृतीय-पद-संग्रहणी, गाथा ११८-१२० यहाँ भी सहस्रार से माहेन्द्र देवलोक तक क्रमशः असंख्यातगुणा बताया है एवं तदनन्तर सनत्कुमार को संख्येयगुणा कहा है । पुनः दूसरी पृथ्वी के नैरयिकों को असंख्येयगुणा कहा है । यदि यहाँ सनत्कुमार को माहेन्द्र से असंख्येयगुण कहना अभीष्ट होता तो ग्रन्थकार माहेन्द्र तक क्रमशः असंख्येयगुणा न कहकर सीधा ईशान देवलोक के देवों तक असंख्येयगुणा कहते । ज्ञातव्य है कि इस ग्रन्थ की एक हस्तप्रत तथा मुद्रित प्रति (जैन आत्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित, पू. मुनि श्रीचतुरविजयजी द्वारा सम्पादित) में - 'हुंतसंखिज्जा' कहकर सनत्कुमार देवलोक को असंख्येयगुणा कहा है जबकि श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग-तृतीय-पद-संग्रहणी की अन्य हस्तलिखित प्रतियों में स्पष्टतः ‘होति संखेज्जा' कहकर सनत्कुमार को संख्येयगुणा ही कहा है। २ बिन्दु क्रमाङ्क - ७ इसी प्रकार महादण्डक का संग्राहक एक अन्य प्रकरण ग्रन्थ, जो पाटण की (पातासंघवीजीर्ण ४६) ताड़पत्रीय हस्तलिखित प्रति में है, उसमें भी इसी शैली का अनुसरण है एवं वहाँ भी सनत्कुमार देवों को संख्येयगुण बताया है । यथा "छट्ठाए सहस्सारे महसुक्के पंचमाए लंतम्मि । पंकाए बंभग(क)प्पे, तच्चाए पुढवी माहिदे ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अनुसन्धान-७६ कमसो असंखगुणिया सणंकुमारे णाओ संखेज्जा । दोच्चाए असंखेज्जा मुच्छिममणुया वि एमेव ॥" महादण्डक प्रकरण २ बिन्दु क्रमाङ्क-८ श्रीमद् भगवती सूत्र शतक १२ उद्देशक ९ में आगत भावदेव सम्बन्धी अल्पबहुत्व को स्पष्ट करते हुए श्री भगवती चूर्णि में भी कहा है"सहस्सारि तिरिया, ततो असंखेज्जा, जे लग्गलग्गा तेसु संखेज्जा" (पृ. ४२०) इससे भी स्पष्ट है कि माहेन्द्र से लगा हुआ सनत्कुमार उससे संख्येयगुण अधिक देवों वाला है तथा ईशान से लगा हुआ सौधर्म भी उससे संख्येयगुणा अधिक देवों वाला है । श्री भगवती सूत्र (शतक १२, उद्देशक ९) की श्री अभयदेवसूरि कृत वृत्ति में भी ‘संख्येयगुणा' कहा है, जिसे बिन्दु क्रमाङ्क ४ में स्पष्ट किया जा चुका है। २ उपसंहार : यद्यपि श्रीमत् प्रज्ञापना सूत्र की मलयगिरीया वृत्ति, श्रीमद् जीवाजीवाभिगम सूत्र की मलयगिरीयावृत्ति आदि कतिपय ग्रन्थों में असंख्येयगुणा को प्रमुखता दी गई है तथापि श्रीमत् प्रज्ञापना सूत्र एवं श्रीमद् जीवाजीवाभिगम सूत्र की अनेक हस्तलिखित प्रतियों के पाठ, जीवसमास की मलधारी हेमचन्द्र सूरि कृत वृत्ति में आगत श्रीमत् प्रज्ञापनासूत्रगत महादण्डक का उद्धरण, श्रीमद् भगवती सत्र की अभयदेवसूरि कृत वृत्ति में आगत श्रीमद् जीवाजीवाभिगम सूत्र का उद्धरण एवं तदनुसार श्री भगवती सूत्र का मूलपाठ, श्रीमद् जीवाजीवाभिगम सूत्र के मूलपाठ की शैली, श्री भगवती सूत्र की चूर्णि, श्री प्रज्ञापनोपाङ्गतृतीय-पद-संग्रहणी तथा महादण्डक प्रकरणगत गाथाएँ एवं उनकी शैली, जीवसमास की मलधारी हेमचन्द्रसूरि कृत वृत्ति इत्यादि के उपर्युक्त Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १२९ वर्णन से स्पष्ट है कि चौथे देवलोक से तीसरे देवलोक के देव 'संख्येयगुण' ही माने जाने चाहिए एवं मूलपाठ विषयक प्राप्त पाठान्तरों 'असंखेज्जगुणा' एवं 'संखेज्जगुणा' में से 'संखेज्जगुणा' वाले पाठ को ही शुद्ध समझना चाहिए । सन्दर्भ स्थल (References) १. "माहिद कप्पे देवा असंखेज्जगुणा, संणकुमारे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा" ___ - श्रीमत् प्रज्ञापना सूत्र, पद ३, सूत्र ३३४ (मुद्रित संस्करण में प्राप्त - अशुद्ध पाठ) २. (i) "प्राचीन जैन व्याख्याकारोए तेमना व्याख्याग्रन्थोमां प्रसंगे प्रसंगे जैन आगमो अने तेना ऊपरना व्याख्याग्रन्थोनां उद्धरणो तथा अवतरणो आप्यां छे. आवां अवतरणो अमने ज्यांथी पण मळी आव्यां अथवा अमारा ध्यानमां आव्यां, ते बधानो उपयोग अमे अमारा प्रस्तुत सम्पादनमा को छे, अन्य सम्पादनो मां करीशुं - करवो ज जोईए ॥" - नंदिसुत्तं अणुओगद्दाराइं च, सम्पादकीय, पृ. १३ (अमारी आगम संशोधन पद्धति), सम्पादक-मुनि श्रीपुण्यविजयजी आदि, प्रकाशक-श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई । (ii) "किसी ग्रन्थ का सन्दर्भपाठ यदि किसी अन्य ग्रन्थ में उद्धरण के रूप प्राप्त होता है तो उसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण के रूप में माना जाना चाहिए" - डॉ. विरूपाक्ष जड्डीपाल से हुई प्रत्यक्ष चर्चा के आधार पर (६/३/ २०१८) [सचिव - महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेदविद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन, डॉ. प्रो. विरूपाक्ष वि. जड्डीपाल - हस्तलिखितग्रन्थविज्ञान (Manuscriptology), ग्रन्थसम्पादनविज्ञान (Textual Criticism) एवं प्राच्यलिपिविज्ञान (Pa leogranhy) के विशेषज्ञ एवं कुशल विद्वान्] ३. "अथ देवगतौ स्वस्थानेऽल्पबहुत्वमाह - थोवाणुत्तरवासी असंखगुणवुड्ढि जाव सोहम्मो । भवणेसु वंतरेसु य संखेज्जगुणा य जोइसिया ॥ वृत्तिः - शेषदेवापेक्षया स्तोका एवाऽनुत्तरविमानवासिनो देवाः । तेभ्यो ग्रैवेयकवर्त्तिनोऽसङ्ख्येयगुणाः । एतेभ्योप्यच्युतेऽसङ्ख्येयगुणाः । ततोऽप्यारणे, इतोऽपि प्राणते, अस्मादप्यानते कल्पेऽसङ्ख्येयगुणा देवाः । एवं क्रमेण प्रतिकल्पमस Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अनुसन्धान-७६ ख्येयगुणावृत्तिस्तावन्नेया यावदीशानकल्पनिवासिदेवेभ्यः सौधर्मे कल्पे सङ्ख्येयगुणा देवा इति प्रस्तुतग्रन्थाभिप्रायः । स चाऽसङ्गत एव लक्ष्यते । यतो महादण्डकेऽनुत्तरविमानवासिभ्य आनतकल्पं यावत् सङ्ख्यातगुणैव वृद्धिरुक्ता। माहेन्द्रदेवेभ्योऽपि सनत्कुमारदेवाः सङ्ख्येयगुणाः । ईशानदेवेभ्योऽपि सौधर्मे देवाः सङ्ख्येयगुणाः प्रोक्ता इति । सौधर्मदेवेभ्यो भवनेषु ये भवनपतिलक्षणा देवाः प्रतिवसन्ति तेऽसङ्ख्येयगुणाः । एवमेतेभ्यो व्यन्तरेष्वप्यसङ्ख्येयगुणत्वं वाच्यम् । व्यन्तरसुरेभ्यस्तु ज्योतिष्कदेवाः सङ्ख्येयगुणाः महादण्डके तथैव पठितत्वात् । इति गाथार्थः" । - जीवसमास, गाथा २७४ तथा उस पर मलधारी हेमचन्द्र सूरि कृत वृत्ति, ___सम्पादक-आ.श्री शीलचन्द्रसूरिजी पृष्ठ-२३१-२३२ ४. जीवसमास प्रकरणम् (वृत्ति सहित) पृ. १२८, टिप्पण ५, सम्पादक-आ.श्री शीलचन्द्रसूरिजी, प्रकाशक-जैन ग्रन्थ प्रकाशन समिति, खंभात, सन् १९९४ ५. यहाँ 'जोतिसिया भावदेवा संखेज्जगुणा' - यह पाठ लिखा है । यह शुद्ध पाठ हस्तप्रत में है । श्री भगवती सूत्र के अनेक मुद्रित संस्करणों में एवं हस्तलिखित प्रतियों में यहाँ 'असंखेज्जगुणा' पाठ है, जो कि कथमपि उपयुक्त नहीं है । यह पाठ भगवती सूत्र की प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में द्रष्टव्य है। ६. (i) ध्यातव्य है कि श्री भगवती सूत्र की अभयदेवसूरि कृत वृत्ति के मुद्रित संस्करणों, यथा - आगमोदय समिति (पत्र ५८७b), हर्षपुष्पामृतग्रन्थमाला (पत्र ६९८), राय धनपतसिंह बहादुर (पत्र १०५८b) आगमसुत्ताणि सटीकम् - मुनि दीपरत्नसागर (भाग ६, पृष्ठ ८७), श्रीपाल नगर ट्रस्ट - मुनि दिव्यकीतिविजयजी (पृष्ठ ९७९), जैन विश्व भारती, लाडनू - भगवई - खण्ड ४ - परिशिष्ट ५ (पृष्ठ ४३७), [भगवती जोड़ - खण्ड ४ ढाल २६७ - पृष्ठ १०२ - जैन विश्व भारती, लाडनू] - इन सभी मुद्रित संस्करणों में 'सणंकुमारे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा' ऐसा अशुद्ध पाठ है। (ii) साथ ही श्री अभयदेवसूरि कृत वृत्ति की कतिपय हस्तलिखित प्रतियों (पाकाहेम १००००, पाकाहेम १०५, पाकाहेम १४७९३, इत्यादि) में तो 'सणंकुमारे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा... सोहम्मे देवा अंसखेज्जगुणा' - इस प्रकार दो स्थलों पर अशुद्ध पाठ है ।। (ii) श्री भगवती सूत्र की श्री दानशेखरसूरि कृत वृत्ति (मुद्रित संस्करण - ऋषभदेव केशरीमल संस्था - विक्रम संवत् १९९२) में भी 'सणंकुमारे Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १३१ कप्पे देवा असंखेज्जगुणा' ... 'सोहम्मे देवा असंखेज्जगुणा' (पत्रांक १८८b) - इस प्रकार दोनों स्थलों पर अशुद्ध पाठ है । (इस वृत्ति की हस्तप्रतें द्रष्टव्य हैं ।) (iv) भगवतीसूत्रावचूरिः' के नाम से मुद्रित भगवती सूत्र की प्राचीन व्याख्या में (व्याख्या संक्षिप्त होने से) अल्पबहुत्व सम्बन्धी चर्चा ही नहीं की गई है। ७. (i) ज्ञातव्य है कि षट्खण्डागम और उसकी धवला टीका में भी चौथे देवलोक के देवों से तीसरे देवलोक के देवों को संख्येयगुण ही माना है । यथा : "माहिंदकप्पवासियदेवा असंखेज्जगुणा । सणक्कुमारकप्पवासियदेवा संखेज्जगुणा ॥" - षट्खण्डागम, द्वितीय क्षुद्रकबन्ध, ग्यारहवें अल्पबहुत्वानुगम के पश्चात् वर्णित महादण्डक, सूत्र २८-२९ (षट्खण्डागम २/११-२/२८-२९) पुस्तक ७, पृ. ५८२, सम्पादक - पं. फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री ___"को गुणगारो? संखेज्जा समया" - षट्खण्डागम २/११-२/२९ पर धवला टीका (पुस्तक ७, पृ. ५८३) सम्पादक - पं. फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री (ii) 'सत्पदादि प्ररूपणा' (प्ररूपक - आ. श्री जयघोषसूरिजी, लेखक - आ. श्रीअभयशेखरसूरिजी) नामक पुस्तक में पृष्ठ १४६ (प्रथमावृत्ति, वि.सं. २०५३) पर लिखा है कि "श्री पन्नवणाना प्रत-पुस्तकमां चोथा देवलोक करतां त्रीजा देवलोकना देवो असंख्यगुण होय एम मूल अने वृत्तिमा छपायु छे. पण ए अशुद्धि जाणवी. कारण के चोथो देवलोक अने त्रीजो देवलोक बन्नेमा सूचिश्रेणिना भाजक तरीके अगियारमुं वर्गमूळ ज कडं छे, भिन्न-भिन्न रकम नहीं. माटे संख्यातगुण सम्भवित छे, असं.गुण नहीं।" ___C/o. संपतराज रांका B/20, ओम सांई निवास, मद्रासी राममन्दिर सामे, सुभाष रोड, विलेपार्ले (इ.), मुंबई-३७ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अनुसन्धान-७६ विहंगावलोकन - उपा. भुवनचन्द्र अनुसन्धाननी यात्रा ७५मा पडाव पर पहोंची तेनी उजवणीरूपे विशेषाङ्क प्रगट करवामां आव्यो. विशेषाङ्कनी सामग्रीने स्वाध्यायखण्ड अने सम्पादनखण्ड - एम बे विभागमां प्रकाशित करवामां आवी. बन्ने भाग दळदार अने समृद्ध बन्या छे. अनुसन्धान जैनविद्या अने भारतीयविद्या (jainology अने Indology)- सामयिक छे. आ प्रकारनां सामयिको चलाववां ए पडकारसमुं कार्य छे. अनुसन्धान २५ वर्ष अने ७५ अङ्क सुधीनी मझल कापे छे, एटलुं ज नहि, आन्तर-बाह्य रीते उत्तरोत्तर विकास पामतुं गयुं छे, ए घटना तेना सम्पादक-प्रकाशकने माटे गर्व अने परितोषनी होय ए सहज छे, वधुमां विद्याव्यासंगी अने विद्यारसिक जनोने माटे पण रोमहर्षक ठरे.. अने ए तथ्य, स्वाध्यायखण्डमां प्रकाशित विज्ञ अने विवेचक जनोना लेखोमां मुखर बनी उपसी आवे छे. अनुसन्धानना मूल्य, महत्त्व अने स्वरूपनां लेखांजोखां तज्ज्ञ विद्वानोए तथा सुज्ञ विद्यारसिकोए दिल खोलीने कर्या छे. खण्ड - १ सम्पादकीयमा सम्पादकश्रीए सम्पादनकार्यने पुरातत्त्वीय खोदकाम साथे सरखावी, एमांथी ऊभरी आवता तथ्योनां रसप्रद उदाहरणो आप्यां छे. एक उदाहरण श्रीगौतमस्वामीना रासनी एक पंक्तिनुं छे. 'तीरि/तीर तरंडक जिम ते वहता' - एवो पाठ छपातो आव्यो छे अने गवातो आव्यो छे. आ पाठमां असंगति छे. श्री नाहटाजीए साचो पाठ शोधेलो. ए पाठ छे - 'नीरि तरंडक जिम ते वहता'. पाणीमां होडी सरती होय तेम देवो आकाशमांथी पसार थता हता - आवी सुन्दर चित्रात्मक उपमा भ्रष्ट पाठने लीधे काव्यने उपकारक थवाने बदले बाधक बने एवं रूप लई बेठी हती. 'नीरि'ने बदले वांचनारे तीरि/तीर वांच्यु अने पछी 'अंधो अंध पुलाय...' (हजी पण आ भूल पुनरावर्तित थती रहेशे एवी खातरी आपणे राखी शकीए!) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १३३ सम्पादकीए सातेक पानामां अनुसन्धान अंगे निवेदन आप्युं छे, जेमां तेमनी संवेदना छलकाय छे. कहे छे के कोई कार्य थवा- होय त्यारे प्रकृति कोईने माध्यम बनावे छे. लागे छे के जैन श्रमण संघमां आवं सामयिक चलाववानुं काम आ. श्री शीलचन्द्रसूरिजीने माथे नाखवामां आव्युं छे. श्री मणिभाई प्रजापतिए जबलं काम कयुं छे. ७४ अंकोमांथी पसार थई, अनुसन्धानना दरेक अंगनुं वैशिष्ट्य तेमणे उजागर कर्यु छे. कलाकारने साची दाद कलाकार ज आपी शके. एम अहीं संशोधनक्षेत्रना एक निष्ठावान विद्वान द्वारा अनु० ने दाद मणिभाईना समीक्षालेखथी मळी छे. अनुसन्धान द्वारा विज्ञप्तिपत्रोना संग्रहरूप विशेषाङ्को थया हता तेनी समीक्षा श्री कान्तिभाई बी. शाहे तेमना लेखमां करी छे. कुल मळीने दोढसो जेटलां, पूर्वे अप्रगट होय एवां, विज्ञप्तिपत्रो बहार आवेला. आ जेवं तेवू काम नथी. श्री कीर्तिचन्द्रविजयजी (बन्धुत्रिपुटी) महाराजे अनुसन्धान अने तेना सम्पादक उपर अढळक हेत तेमना लेखमां ढोळ्युं छे, तेमां मात्र मित्रता ज बोले छे एवं नथी; तेओ स्वयं विद्वान छे अने आ प्रकारनं कार्य केटली सज्जता मागे छे ते जाणे छे, तेथी तेमना उद्गारोमा विद्याप्रीतिनो रणको छे. डो. मालतीबहेन विद्याव्यासंगी छे अने विद्याना वारसदार पण छे. तेमणे पोताना ढूंका लेखमां अनु० प्रत्येनो उमळको ठालव्यो छे. श्री मनोज रावल 'अनुसन्धान' माटेनी पोतानी संवेदना व्यक्त करे छे. आवां कार्य पाछळना भावजगतनी वात तेमणे सुपेरे करी छे. ___ श्री निरंजनभाई राज्यगुरुना लेखनुं शीर्षक ज घणुं कही जाय छे : 'हजी एक ऊंबरे दीवो बळे छे...' संनिष्ठ संशोधन, प्राचीन साहित्य, भारतीय विद्याना क्षेत्रे काम करनारा विद्वानोनी संख्या घटती जाय छे त्यारे अनु० द्वारा नवा विद्यार्थी । अभ्यासी तैयार थाय छे तेनो राजीपो तेमना लेखमां तरवरे छे. केटलाक विद्वानो, आचार्यो, मुनिओ, साध्वीजीओना आनन्दअनुमोदनाना उद्गारो पण आ खण्डमां छे. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ अनुसन्धान-७६ आ खण्डमां दसेक स्वाध्यायलेख छ जे नीवडेली कलमोनी नीपज छे. वि. शीलचन्द्रसूरिजीए भ० ऋषभदेव विषे सांस्कृतिक दृष्टिकोणथी केटलांक तथ्यो संकलित कर्यां छे. ते आदिनाथ । आदिम पुरुष तरीकेनी भ. ऋषभदेवनी छबिने जाणे फेममां मढी आपे छे. डो. हसु याज्ञिकनो जैन रासकृतिओ विषे विद्वत्तापूर्ण चर्चा करतो लेख ध्यानार्ह छे. जैन रासकृतिओ विषे ज्यारे पर्याप्त माहिती बहार आवी न हती त्यारे आ कृतिओने प्रकीर्ण विभागमां मूकवानी प्रणाली साहित्यसमीक्षको द्वारा जाण्ये-अजाण्ये स्थापित थई हती. डॉ. याज्ञिक विस्तृत विश्लेषण द्वारा स्पष्ट करे छे के जैन रास कृतिओनुं स्वरूप अन्य कृतिओनी जेम साहित्यिक ज छे, अने तेथी आ कृतिओने प्रणालिकागत मुख्य प्रकारो - आख्यान, प्रबन्ध-जेवी श्रेणीमां ज मूकवी जोईए. वात साची छे. भले इष्टदेव के कथाना स्रोत जुदा होय, पण कार्य सरखं ज छे. आख्यानो द्वारा जे काम - आम जनताने प्रेरणा-बोध आपवा- थाय छे ते ज काम रासोए कर्यु छे. ___ श्री राजेश पंड्या तरफथी कवि श्रीलावण्यसमय अने तेमनी कृतिओनो माहितीसभर परिचय करावतो लेख मळे छे. गुजरात, गुजरातनो इतिहास तथा गुजराती भाषानी छबी लावण्यसमयनी कृतिओमां झीलाइ छे, तेथी ए कृतिओनुं महत्त्व छे ते आ लेख कही जाय छे. __ भारतीय इतिहास तथा जैन इतिहास- एक पुरातन पानें एटले मथुरानो 'देवनिर्मित स्तूप' - जे आजे 'कंकाली टीला'ना नामे ओळखाय छे. श्री रेणुका पोरवालना लेखमां आ स्तूप अंगेनी प्रमाणित माहिती अपाई छे. जैनधर्मना इतिहासना आ अल्प परिचित प्रकरणथी माहितगार थवा साधुसाध्वीओए आ लेख वांचवा जेवो छे. श्री नाथालाल गोहिल संतपरम्पराना गीतोना एक प्रकार 'हेली' विशे सुन्दर जाणकारी तेमना लेखमां आपे छे. गूढवाणी उलटबांसी जेवो ज आ आध्यात्मिक पदोनो प्रकार छे. हेली विशे आ अवलोकनकारे प्रस्तुत लेख द्वारा ज सर्व प्रथम वखत जाण्युं. 'प्रभासपाटणमां जैनधर्म' लेखमां श्री हसमुखभाई व्यासे विविध Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १३५ स्रोतमांथी विगतो एकत्र करी आपी छे. श्री शिरीष पंचाल 'महाकाव्यो जेवी रचनाओमां प्रक्षेपोनो प्रश्न' लेखमां साहित्यजगतनो आ एक मूंझवतो प्रश्न जुदा ज दृष्टिकोणथी चर्चे छे. प्रक्षेपो थया छे ए सिद्ध थयेली वात छे. विविध ग्रन्थोमां थयेला प्रक्षेपोनो इतिहास आपीने लेखके ए जणाववानो प्रयास कर्यो छे के सामाजिक / नैतिक उद्देश सिद्ध करवा माटे अलग अलग तबक्के जूनी कथामां नवां कथाघटको उमेरायां छे, हेतु नैतिक संदेश आपवानो छे. श्री रामलालजी महाराजे तिर्यंच स्त्रीना अल्पबहुत्वनी सटीक चर्चानो लेख आप्यो छे - जे शास्त्राभ्यासीओने उपयोगी थशे. __बृहत्कल्पसूत्रनी अमुद्रित चूर्णि, संशोधन-सम्पादन अनु०ना सम्पादक आचार्यश्री तथा तेमना शिष्यमण्डल द्वारा थई रह्यं छे. चूर्णिना पीठिकाखण्डनुं प्रकाशन कर्या पछी आचार्यश्रीने ख्याल आव्यो के वाचना जे रीते थवी जोईए ते रीते तैयार थई नथी. एमणे ए प्रकाशनने रद जाहेर करी समग्र कार्य फरीथी हाथ धर्यु अने ए प्रथम खण्ड पुनः प्रगट कर्यो. श्रुतभक्ति अने संशोधकधर्मनी निष्ठानुं आ उज्ज्वल उदाहरण छे. नूतन आवृत्तिनी विस्तृत प्रस्तावना आ अंकमा लेख रूपे समाविष्ट करवामां आवी छे. आ प्रस्तावनामां प्राचीन ग्रन्थोना सम्पादननी बारीकीओ / समस्याओ तथा सम्पादन-पद्धतिनी मूल्यवान झीणी झीणी विगतो निहित छे. ग्रन्थ जेमने जोवा न मळ्यो होय तेवा अभ्यासी जनोने आ महाकाय ग्रन्थ साथे तथा सम्पादन विद्या साथे जोडायेल अनेक बिन्दुओ विशे मूल्यवान जाणकारी मळशे. खण्ड -२ 'सम्पादन खण्ड'मां केटलीक बृहत् कृतिओ पण समावी होवाथी अंक दळदार थयो छे. संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, म.गू., जूनी हिन्दी, मराठी - आटली भाषाओनी हाजरी छे. सीमन्धरस्वामीनी स्तुतिरूप त्रण प्राकृत रचनाओमां प्रथम रचना अपभ्रंश अने गूर्जरना सन्धिकाळनी छे. आमां गुजरातीनां लक्षणो विशेष छे. चौदमी सदीनो उत्तरार्ध के पंदरमी सदीनी आ रचना होइ शके. २०मी कडीमां तो म.गूनुं वलण स्पष्ट देखाय छे. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ अनुसन्धान-७६ तुंह जि गति तुंह जि मति तुंह जि मम जीवनं तात तूं परमगुरु कम्ममलपावनं, कम्मकर विणययरु जोडि कर वीनवउं देहि मूं अलजया दंसणं अभिनवं. 'विणययर'मां 'विणयपुरु' होवानी संभावना छे. बाकीनी बे कृतिओ शुद्ध प्राकृतनी छे. कोई विद्वान मुनिवरे त्रण कृतिओ एकत्र करी जणाय छे. चतुर्विंशति जिनराज स्तुतिओ अवचूरि सहित होवाथी आस्वाद्य छे. दरेक श्लोकनुं चोथु चरण समान छे, पण श्लेष, सन्धि, समास, अनेकार्थक शब्दोना विनियोगथी भिन्न अर्थ नीकळे छे. कृतिसम्पादकनी धारणा मुजब 'सकल' शब्दना आधारे कृतिना कर्ता सकलचन्द्र गणी होवानी संभावना नकारी शकाती नथी. अजितशान्ति स्तवननी अनुकृतिरूप रचनाओ अनेक छे. अहीं एक अनुकृति प्रसिद्ध थई छे. आ रचना प्रसिद्ध अने पूर्वप्रकाशित होवानो भास थाय छे. श्लो. ९ना प्रथम चरणमां 'नदनुदनुजाहिन' छे त्यां 'तदनु दनुजाधिप०' पाठ संभवे. 'उपाख्यानकानि' नामक संग्रहलेख रसप्रद छे. कवि-वक्ताओने उपयोगी शब्दावली / प्रयोगो / उपमाओ व०नो संग्रह कोई साहित्यप्रेमी विद्वाने को छे. वर्णकसमुच्चय जेवी आ रचना छे. थोडां परिमार्जनयोग्य स्थान छ : अशुद्ध शुद्ध नीचेथी ६ स्वापक्षीया स्वारथिया नीचेथी ७ छन्न नीचेथी ५ फूटइ फूटइ (?ण) नीचेथी ५ पडइ पडइ (?ण) उपरथी २ वाउ आंगण वाउ आंगणउ बुहारइ छत्त ओछुहारइ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १३७ ४४४od शब्दकोश शब्द अर्थ २४ १२ छडउ छंटकाव २४ १९ थईयायतु दरबारी अधिकारी (स्थगीधर) नीचेथी २ सीकरी वहेल / गाईं २७ १९ ढीकली तोप २७ १३ रहइं ने, माटे (अप.) पिण्डविशुद्धि बालावबोध एक सम्पूर्ण ग्रन्थ छे. विशिष्ट अने समृद्ध रचना. सम्पादके नोंध्यु छ : 'वर्षों पूर्वे आ रचनानुं लिप्यन्तर करी राखेखें.' लिप्यन्तर बहु सारी रीते थयुं छे. बाला०मां आधाकर्महुई, राजाहुइं, स्त्रीहुइं एवा प्रयोगो पुष्कळ छे. आ 'हुई' वंचायुं छे त्यां वस्तुतः 'हई' शब्द होवानी पूरी शक्यता छे. 'हई' ए 'ने, माटे' एवा अर्थनो अपभ्रंशकालीन प्रत्यय छे. गा. १९ बाला.मां थोडा शब्दो खूटे छे. गा. २४ बा.मां 'ईय छपइम' एवं छपायुं छे. अहीं गाथाना शब्दनुं अवतरण मिश्र थइ गयुं छे. 'इय छ० इम...' एम वांचवाथी स्पष्ट थशे. गा. ३१ बा.मां 'अधिसई' छपायुं छे, त्यां 'उद्दिसइ' होवानी शक्यता छे. गा. ३३ बा.मां धूम अने फलने स्थाने 'धूप' अने 'फूल' होवा घटे. गा. ४० बा.मां 'विभेद' छे, पण 'बि भेद' होवू घटे. गा. ४१ बा.मां 'उजुयालानउकस्वि' छपायुं छे, ह.प्र. मां 'उजुयालनउ करिवउ' होय एवो पूरो संभव छे. त्यां ज 'विभेद' छे, पण 'बि भेद' होवा- समजाय तेवं छे. आवा परिमार्जन करवानी छूट सम्पादकने होवी जोइए. गा. ४७नी उत्थानिकामां 'केतलाएक' पछी [अंतर] ऊमेरवू जरूरी. गा. ५१मां 'जह' खोटुं वंचायुं छे. ह.प्र.मां ए अक्षरो झांखा के खण्डित हशे, अन्यथा अहीं 'कुड़' शब्द इष्ट छे. गा. ५४ बा. 'कहाई' नहि, 'कहीइ' हशे. गा. ५५ बा. 'जिम इ' = जिमइ. गा. ६७ बा. 'उछाहिड' छे, पण 'उछाहिउ' जोइए. 'ड' 'उ' रूपे वांचवामां आव्यो छे. गा. ७३ बा. 'एक ठांमें ली' एम मुद्रित छे ते वाचनभूल या प्रेसभूल छे. “एकठां मेली' वांचवाथी अर्थ बेसे. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ अनुसन्धान-७६ बाला. म.गू. भाषानी दृष्टिए समृद्ध छे. केटलाक गुजराती शब्दोनां जूनां रूप अहीं सचवायां छे. 'आपहिणी' (गा. १४) ए म.ग.ना 'आफणी'नुं पूर्वरूप छे. आजे 'आफूडो' रूपे हाजर छे (हवे जो के संभळातो नथी). अर्थ छ : जाते, पोतानी मेळे. आजनो 'विगत' शब्द स्त्रीलिङ्गमां छे, केम के तेनुं मूळ 'व्यक्ति'मां छे. व्यक्ति एटले छूटुं पाडीने, एक एक करीने जणावq ते. अर्थविकास थतां व्यक्ति = स्पष्ट, विस्तृत एवो अर्थ उमेरायो. गा. ४२नी उत्थानिका : 'हिव ए बिन्हइ भेद व्यगति वखाणइ छइ' एम छे, त्यां छूटुं पाडीने, स्पष्टतापूर्वक एवो अर्थ नीकळे छे. व्यक्ति → व्यगति → विगति → विगत - आवो विकासक्रम समजी शकाय छे. हवे 'विगत' शब्द भाववाचक के अव्यय न रहेतां विशेषनाम बन्यो छे. गा. ६१मां 'अरानुं परि, परानुं अरि' एवो प्रयोग छे, एनो 'पेलानुं आने, आनुं पेलाने' एवो भावार्थ जरूर थई शके, परन्तु शब्दार्थ 'अहीतुं त्यां, त्यांनं अहीं' एवो समजाय छे. कच्छीमां 'ओरेआ परेआ' प्रचलित छे. जूनी गुजरातीमां 'अरहो परहो' मळे छे. वर्तमान 'मोडुं' 'मोडे'नुं पूर्वरूप 'मउडेरउं' अने 'वहेलुं'नुं पूर्वरूप 'विहलङ' गा. ४०ना बाला० मां जोवा मळे छे. गा. ४४ बा.मां 'उछंदिय' छपायुं छे, परन्तु मूळमां 'उछिदिय' छे. बा. मां एनो अर्थ 'ऊधारउं' आप्यो छे. अहीं गू. 'उछीनु'- मूल उत् + छिद् धातु छे ए स्पष्ट थाय छे. उच्छिन्न → ऊछीनउ → ऊछीनु. (एक आड वात : वर्तमान संस्कृतमा प्रचलित न होय अने सं. शब्दकोश / धातुकोशमां पण नोंधाया न होय एवा प्रयोगो टीकाग्रन्थो, काव्यो, चरित्रो, शास्त्रोमां मळता होय छे. आवा शब्दो / धातुओने सं. कोशमा समावेश करवानुं काम कोइके करवा जेतुं छे. सं.मां क्यारेक व्यावहारिक कामकाजना शब्दो खूटता जणाय छे, ए खोट पूरी करी शकाय. प्राकृतग्रन्थो पण आनो सारो स्रोत बनी शके.) गा. ५२मां 'ओरावइ' छे. अर्थ छे (रंधाता भातमां) चोखा ओरावे. 'अध्यवपूरक ए गोचरीनो एक दोष छे. अर्थ छे - उपरथी ओर जेमां थतुं होय तेवी क्रिया. अहीं गुजराती 'ओरतुं'मूळ अव+पूर मळे छे. जैन साधुनी चर्यानो एक शब्द छे - काप. 'काप काढवो' = कपडा धोवा. गा. ५४ बा.मां 'ऊपरि वली त्रिणि काप दीजइ' एवं वाक्य छे. पात्रने राखथी मांजी त्रण वार तेने 'काप' देवो - अर्थात् पाणीथी वीछळवू. अहीं Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ जान्युआरी- २०१९ 'काप'नुं मूळ 'कल्प' मळे छे. कल्प → कप्प → काप. _ 'गौतममाई' योगसाधना सम्बन्धी रचना छे, योगप्रक्रियानुं शाब्दिक वर्णन अने तेना प्रभाव । महिमानुं गुणगान एमां छे. आ अंकनुं नजराणुं कही शकाय एवी रचना छे : 'उपदेशमाला - सर्व कथानक षट्पदाः' ८१ छप्पानी आ रचना मौलिक रचना छे, साहित्यिक दृष्टिए नावीन्यपूर्ण अने प्रौढ कृति छे; अपभ्रंश भाषानी एक सुन्दर रचना अहीं प्रथमवार प्रगट थाय छे. कृति शुद्धप्रायः छे, छतां केटलांक सुधारा सूचवी शकाय एम छे : ___ छ. १२ : [असि उज्]ने स्थाने [अजुत्त] कल्पी शकाय एम छे. छ. २५मां 'गयमक्खसि' छे त्यां 'गयमत्थय वसि' विचारी शकाय. छ. ३५ : सूरि यासि'मां 'पासि' वधु बेसे छे. 'सव्वं' छे त्यां 'सच्चं' होवू जोइए. 'जागि'ने स्थाने 'जगि', 'दुक्खिन्त'ने बदले 'दक्खिन्न' पाठ वधु संगत बने छे. छ. ३७मां 'संख' छे त्यां 'रक्ख' अपेक्षित छे. आनी पांचमी पंक्ति आ रीते वांचवी जोईए : ___ ओ दियइ दान ओ सुद्ध तव ओ बिहु गुण... छ. ६० : 'सहि नाणि' नहि, 'अहिनाणि'. 'अंगारयमई' नहि, 'अंगारयमद्द'. छ. ६७ : 'पूर्व वासर' नहि, ‘पर्ववासर'; 'सुणविचारिन्त' नहि, 'सुणवि चारित्त'. छ. ७३ : 'सुनाण' = 'सुयनाण'; 'नाडिउ' = 'नडिउ'. अर्थ छे : अवहेलना करी, विडम्बना करी. गा. ७४मां 'नडियो' छे ज्यां आ अर्थ स्पष्ट सूचित थाय छे. छ. ७७मां 'सुखइ' छे, शब्दकोशमां पण एम ज आप्यो छे, अर्थ 'सुरपति' लख्यो छे. गाथामां 'सुरवई' छे ज; तो पछी 'सुखइ' क्यांथी आव्यो? सुरपति अर्थ होय एवो 'सुखइ' शब्द छ ज नहि. आम केम थयुं ते समजवा जेवं छे. र अने व पासे लखाय त्यारे 'ख' नो भ्रम थाय छे. अहीं आवं थयु जणाय छे. (कम्पोझीटरो । ओपरेटरो आवी भूल करता होय छे. प्रेसकोपी । लेख तैयार करती वखते र अने व चोख्खा लखवा, अने ख नो पहेलो छेडो लंबावीने दण्ड साथे जोडवाथी अक्षर स्पष्ट थशे). छ. ८०मां 'विद्धउ' छे त्यां 'दिद्धउ' जोईए. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अनुसन्धान-७६ शब्दकोश : ५. 'निरुत्तउ'नो अर्थ 'आसक्त' नहि, पण 'शुद्ध, चोख्खु' थाय छे. म.गू. मां 'नरतुं' छे तेनुं मूळ अप. 'निरुत्तउ' अहीं मळे छे. २६. राहविउं - अहीं ‘राख्युं, दूर कर्यु' नहि, पण 'रक्षा करी' 'बचाव्यु' एवो अर्थ छे. १९६. 'मक्खसि' शब्द रद समजवो जोइए. आ पाठ अशुद्ध छे. ११८. 'खिसिय' - उद्वेग नहि, द्वेष कर्यो, ईर्ष्या करी. १२४. चंगिम : श्रेष्ठ नहि, चंगिमा, शोभा, सुन्दरता. १२९. खद्ध : 'आधु' नहि, खाधुं. १३५. गिलाणवासि = 'ग्लानपणाथी' एवो अर्थ को छे, पण अहीं ग्लानवासनो अर्थ 'अवस्थारोगादि कारणे स्थिरवास' एवो थशे. १३७. सरसु : अहीं स-रस - रसयुक्त एवो अर्थ थशे. १४१. चउसाल : शाळा नहि, चतुर के कपटी जेवो अर्थ अपेक्षित छे. १५२. सरिसउ : समान नहि, साथे. १७७. इटोल शब्द खोटो वंचायो छे. 'टोल'नो अर्थ 'पत्थर' मळे छे. 'ढोलेइ टोल' एम वांचवें जोईए. १८५. घोरिहिं : मूळमां थोरिहिं छे. वाचनभूल जणाय छे. ह.प्र. तपासवी पडे. १९२. पच्चारिय : अर्थ 'शत्रु' नथी. पड़कारीने, उश्केरीने एवो अर्थ थाय. १९३. 'कड्ढापिउ' : मूळमां 'कु(क)ढाविउ' एम छे. वस्तुतः कढाविउ कल्पवानी जरूर नथी. ह.प्र.मां कुढा' होय तो ते पाठ बरोबर छे. कोईने कशामांथी काढवा-कढाववानो प्रसंग पण नथी. महेणुं मारीने सन्ताप आपवानो प्रसंग छे. कुढाविउ : संताप आप्यो, दुःखी कर्यो. १९८. 'दक्खइ' : दक्ष नहि, देखाडे. २०४ मुहिया : व्यर्थ, फोगट. २३२. 'विहडइ' - 'छूटुं पडवं' नहि, विरुद्ध पडवू, द्रोह करवो, संगत न होवू. २४०. नट्ठ : नासा नहि, नासी गया. २४३. गइ : गये छते. गिइ जिणकप्पि - जिनकल्प विच्छेद गये छते. २७१. सूग विण : ‘तपास्या वगर' नहि, अणगमा वगर, दुगंछा वगर. ३२०. सधर : दृढ, मजबूत. __षष्ठिशतक प्रकरणना भाषाबद्ध भावानुवादना दूहा अर्वाचीन कृति छे. अनुवाद होवा छतां मौलिक कही शकाय. विषय अने शैलीना कारणे प्रौढ तथा रचनानी दृष्टिए प्राचीन परिपाटीनी छे. कविए शब्दोना सम्बन्धमा घणी छूट लीधी छे. इनकाय, अलगाय जेवामां 'य' उमेर्यो छे, चित्रैव, निपुणेण, झगडाद वगेरे स्थाने यथेच्छ अक्षरोमां फेरफार कर्या छे; आ वलण अमुक समये सार्वत्रिक हतुं. शब्दकोशमां 'प्रगमे'नो अर्थ 'उदय पामे' को छे, पण 'परिणमे' थशे. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १४१ चोवीश जिनस्तवन सादी रचना छे. तीर्थङ्कर सम्बन्धी विगतो याद राखवाना साधन तरीके कविए आ रचना करी छे. 'नव वाड भास' उपदेशात्मक रचना छे. अशिक्षित-निरक्षर वर्गने आवी रचनाओ द्वारा धार्मिक ज्ञान पहोंचतुं. ए आवी रचनाओ, जमापासुं छे. पूजाओ पण आवो लोकलक्षी काव्यप्रकार छे, बहुलक्षी माध्यम छे. भक्ति, प्रेरणा, शिक्षण, आनन्द, कला, कविता जेवा तत्त्वो पूजामां एकरस बनी जता होय छे. 'तत्त्वत्रिक पूजा'मां त्रण तत्त्व, त्रण रत्न अने मोक्षमार्गना त्रण अंगनी समज गूंथी लेवाइ छे.. ___ मिथ्यात्वविरह-सम्यक्त्वकुलक एक कटाक्ष अने चाबखांथी भरेली बोधक रचना छे. सहेजे अखा भगतना छप्पा याद आवे. सातमी कडीमां पितृतर्पण विशे कटाक्ष छे. चोथु चरण आम होइ शके : गुजरात थ्या आंबा पाई'. "गंगा किनारेथी पाणी उछाळे अने गुजरातमां ऊगेला आंबाने पाय." नानक अथवा कबीरना जीवनमां आवी ज वात आवे छे. भीडभंजन पार्श्वनाथ स्तवन जेवी रचनाओ ऐतिहासिक विगतो पूरी पाडती होय छे, ज्यारे नवकारवालीनी सज्झाय जेवी रचनाओ शैक्षणिक हेतु सिद्ध करती होय छे. 'सूकडि-ओरसिया संवाद' रास साहित्यिक रचना छे. ज्ञान साथे गम्मत समायेली होय छे. कवि खूब ज हळवा मिजाजमां गम्भीर वातो करे छे. चर्चाने सात नय अने अनेकान्तवादना स्तर सुधी लइ जवामां कवि सफल थया छे. थोडं शब्दो विशे : ___ ढा. ३, क. ७ : "विचकि' शब्द गेरमार्गे दोरे छे. 'विच' शब्द छ, कि तो पादपूर्ति माटे छे. ढा. ८ क. ६ : पलतूउ : 'निर्वाह । गुजारो करतो' एवो अर्थ बेसे छे. ढा. १०, दू. २ : चड़वड़ नो अर्थ 'कर्कश' नहि, 'चपचप' वधु संगत थशे. श्रीसिद्धिविजयजी कृत सीमन्धरस्वामी स्तवन 'विनति' प्रकारनी रचना छे. आना प्रारम्भना बे दूहा पार्श्वचन्द्रगच्छना राइय प्रतिक्रमणमां तीर्थवन्दनामां बोलाय छे. सम्भव छे के आ बे दूहा लोकप्रिय बनी स्वतन्त्र रूपे प्रसार पाम्या होय, पछीथी तेनो तीर्थवन्दनामा समावेश करवामां आव्यो होय. महो. यशोविजयजी म.ना ३५० गाथाना स्तवन साथे आनुं साम्य स्पष्ट देखाय छे. कइ रचना Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अनुसन्धान-७६ पुरोगामी छे ते तपासनो विषय बने. 'अषाढाभूति धमाल'मां बे ह.प्र.नो उपयोग थयो छे. जे प्रतिना आधारे लिप्यन्तर थयुं छे ते प्रति जूनी छे पण अशुद्ध छे, ज्यारे जेमांथी पाठान्तर लीधा छे ते प्रति शुद्धतर छे. वाचनामां केटलाक शब्द अशुद्ध छे, ए शब्द पाठान्तरमा शुद्ध मळे छे. क. ५४मां 'आयाध' अशुद्ध छे, सम्पादिकाए तेथी (आयुध) कौंसमां सूचवेल छे; ज्यारे नीचे पाठान्तरमां 'अगाध' नोंधायुं छे. ए पाठ साचो छे. आवा संयोगोमां अन्य प्रतमां शुद्ध पाठ मळतो होय ते मूळ वाचनामां लइ, आधारभूत प्रतिनो पाठ, पाठान्तर तरीके नोंधवो जोईए. ज्यां शुद्ध । अशुद्धनो निर्णय न थई शकतो होय त्यां भले आधारभूत प्रतिनो पाठ उपर रहे. अन्यथा बिनजरूरी 'सुधारा' के कल्पनाओ करवानी थाय; जेम अहीं (आयुध)नी कल्पना ऊभी थई छे, तेम. ए ज कडीना चोथा चरणमां 'कारिची' छे त्यां वाचनभूल जणाय छे, 'कारिमी' शब्द होइ शके. क. ५३मां 'भखचउ (भयउ)' छे, अशुद्ध होवाथी 'भयउ' सम्पादिकाए विचार्य छे, ज्यारे नीचे पाठान्तरमां 'भरत थयो' साचो पाठ हाजर छे. टिप्पणमां शुद्ध पाठो घणां मळे छे. वस्तुतः अहीं लिप्यन्तर माटे आधारभूत मुख्य प्रति कइ स्वीकारवी - ए निश्चित करवानो प्रश्न छे. 'अंजनासुन्दरी-पवनंजय रास' - आ बृहत् कृतिनो प्रथम खण्ड आ अंकमां प्रगट थयो छे. रासक्षेत्रे जैन मुनिओनुं प्रदान घणुं छे. रासोनुं प्रयोजन वार्तारस द्वारा धर्मबोध आपवानो हतो. उदात्त भावनाओ पुष्ट करवानो उद्देश मुख्य रहेतो. श्रोतावर्ग मिश्र रहेतो. आथी काव्यात्मकता नहि पण वर्णनात्मकता अने घटनातत्त्व मुख्य रहेता. प्रसंगोपात्त विविध विषयोनी जाणकारी गूंथी लेवाती. प्रस्तुत रास ए कक्षानो छे. कविए पोते जणाव्युं छे तेम, आ तेमनी प्रथम रचना छे. कविनी कचाश क्यांक छती पण थाय छे. ढा. १, क. १६: 'पाखलि फिरतो प्रौढ दुरंग' - अहीं कविए प्रास खातर 'दुर्ग' ने 'दुरंग' बनावी दीधो छे. शब्दो साथे आटली बधी छूट लेवी पडे ए कविनी कचाश गणाय. सम्पादिकाए नोंध्युं छे के ढालनी अन्तिम कडीमां कविए राग/देशीन नाम समाव्युं छे. वस्तुतः आ रीते राग/देशीना नाम गूंथी लेवानी एक परिपाटी ज स्थापित थई हती. समयसुन्दरजी जेवा मोटा कविओनी कृतिमां आ पद्धति जोवा मळे. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १४३ वाचनभूलना कारणे थोडा स्थान परिमार्जनपात्र छे; विषय/कविरीति न समजायाथी पण केटलीक भूलो थवा पामी छे : क. २६ : 'कबरीबंध' - अहीं 'कबरी बंध लहइ' एम वांचq जोइतुं हतुं. क. २५मां 'आ(सा)री' एम सुधारो सूचव्यो छे, ते जरूरी नथी. आरी = करवत. ए नगरमा 'मारि' शब्द मात्र करवत = आरीने माटे ज बोलातो, बीजा कोई माटे नहि. क. ३७ : 'सील सोभा गइ' एम छपायुं छे. अर्थनो अनर्थ थयो छे. 'सील-सोभागई आगली' : शील अने सौभाग्यमां बीजा करतां उत्तम. क. ३९मां 'काढवा' छे ते वाचनभूल छे. 'काचबा' छे. पगने काचबानी उपमा आपी छे. क. ८५ : 'सोवतां' नहि, 'सोधतां'. क. ९६मां 'भजाविया'ना स्थाने 'सजाविया' समजाय एवं छे. क. ९८ : 'तोषारहइ' = 'तोखार हइ'. क. १०० : 'उठी' = ऊढी / आढी. क. १२७ : 'सहिर' = सहि[]र. क. १४६ : 'अलपतउ हीयण ठांह' खोटुं वंचायुं छे. लिप्यन्तर करतां अगाउ ग्रन्थ वांची-समजी लेवानी जरूर रहे छे. चालती वातनो सन्दर्भ पकडाय तो शब्द अने अर्थ पकडाय. "अमृत थोडं होय तो य भलुं, विष ढगलो होय तेने शुं करवू? तडको घणो होय तो तनने दझाडे, छाया अल्प होय तो य कामनी/सारी- 'अलप तउ ही पण छांह'. क. १४८ : बिघडी = बि घडी. क. १५१ : 'समापइं' असंगत छे. ह.प्र. मां 'समप्पइ' शब्द होवानी पूरी शक्यता छे. क. १६९ : (?) प्रश्नार्थ को छे त्यां कोइ गरबड नथी. 'कूप' शब्द अहीं जोइए छे, जे बीजी पंक्तिमां जतो रह्यो छे. वाचनभूल छे, तेथी बिनजरूरी गोटाळो थयो छे. कविनी शैली पण समजवी रही. काव्यतत्त्व अहीं कामे लगाडवू पडे. कविए सुन्दर उपमाओ वापरी छे. कडी आम छे : कंत माली, वनिता लता, प्रीति जल, तन कूप; सींच्या विण किम नीसरई नव नव पल्लव रूप. शब्दकोशमां शब्द साथे कडीक्रमांक आपवा जरूरी गणाय. मूकि मूकि = मूक, मूक, छोड. दाधी = दाझेली. ज्योतखी = ज्योतिषी अथवा ग्रह-नक्षत्र. __ बाजिंद कविनी रचनाओ जैन ह.लि. भण्डारोमां सचवाई छे. (एवा बीजा अ-जैन कवि/लेखकोनी कृतिओ पण जैन भण्डारोमां मळे.) 'बाजिंदविलास' अध्यात्मरंगी, वैराग्यपोषक, बोधदायक बळवान कृति छे. वाचनामां Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ अनुसन्धान-७६ क्यांक सुधाराने अवकाश छे : अंग १, क. २ : 'अजात मेल'. अहीं 'अजामिल' शब्द होवो जोईए. अंग २, क. २२मां 'लखवे' तथा 'खकवे' शब्दो खोटी रीते लखाया के छपाया छे. 'लाख वे', 'खाक वे' एम होवू जोईए. अंग ३, क. ३६ : 'वहै तै' - अहीं 'वहैतै पाणी' - वहेता पाणीमां के पाणीथी. क. ४५ : हेम मही मान = हे महीमान (महेमान). अंग ७, क. ७९ : 'सा धरहे' = 'साध रहे'. क. ८३ : सा घर हे = 'साध रहे'. क. ८६ : सारी खेसु = 'सारीखेसुं'. अंग ८, क. १७ : हरिठा उरसुं = 'हरि ठाकुरसुं.' 'नेमराजुल बारमास' शुद्ध छे, नावीन्यपूर्ण छे. उ तथा ओ लखवामां लहियाओ पण गरबड करता, अने जे फरक हतो ते पण नहिवत्, आथी ह.प्र. वाचन / लिप्यन्तर वखते सम्पादके सावधान रहेवू पडे. क. ५मां 'उपत चीर'मां गरबड छे. 'ओपत चीर' होवू घटे. 'मदनकुमार रास' वार्तारस साथे उपदेश पूरो पाडे छे. बोलचालनी ढबे ज रचना छे. लिप्यन्तरमां कचाश रही छे. दू. ८मां 'विसार्यो' वांच्युं छे त्यां 'विस्तर्यो' हशे. ढा. ३, क. ९ 'घावस्थू' नहि, 'घाव स्यूं जोईए. ढा. ३, क. १: 'रुखें'. अहीं 'रखे' शब्द होवानी सम्भावना छे. आ रचनामां 'रुखें' अन्यत्र पण छे. कां तो उच्चारभेद होय, कां तो लिपिकारनी भूल होय. ढा. ७, दूहा २ मां 'मुझ वात' छे, परन्तु अर्थना सम्बन्धे जोतां 'मात' शब्द अपेक्षित छे. ढा. ८ दू. ३ मां 'आवेला' छपायुं छे, पण 'आ वेला' एम वांचवें जोईए. ढा. १०, दू. १मां 'आयत्व' छे पण 'आयत्त' जोइए. ढा. १३, क. १० : 'पाले' छे त्यां 'पाल' जोईए. शतरंजी, गालीचा, पाल बिछाववानी वात छे. ढा. १४, क. १० : 'उठिता जिम करइ' छे त्यां 'ऊठि ताजिम करइ' एम वांचवाथी अर्थ बेसे छे. ताजिम = विनय, सत्कार. ___ढूंढक चर्चामां आगमोना सन्दर्भे जिनप्रतिमा, तेनी पूजा वगेरे बिन्दुओनी साधार अने प्रतीतिजनक रजूआत छे. एक चोटदार वाक्य याद रही जाय एवं छे : "थापना में भगवानपणो नही, तौ नाम में भगवानपणौ कहां से आव्यो?" C/o. जैन देरासर नानी खाखर-३७०४३५ जि. कच्छ, गुजरात Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१९ १४५ प्रकीर्ण अनुसन्धान – ७५(२) सुकडिओरसिया संवादनी शुद्धि पान नं. उपरथी लीटी १५ (नीचेथी) ८मी शुद्ध सुकडि १९५ . अशुद्ध सुकड अहो बध्यु २०३ अमे २०४ नांकइ २०५ २०७ वध्यु नांखइ सद्दहीइ घरें (?) सद्यहीइ २०९ (नीचेथी) ९मी २१० अवहेल अवहेला कहि कइस्युं २१६ २२१ २२२ २२७ २३२ २३२ २३३ लहिकइस्युं (लहेका करीने) घोल सद्दहेंइ संप्रति भावप्रभसूरि नवतर/नवू अजाडी कडं (?) - साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्रीजी घोला सद्दहें संप्रति सूरि नवतर/Q आजाडी करयुं ८मो शब्द १६मो शब्द १लो शब्द एक स्पष्टता अनुसन्धान ७५(२)मा 'अजितशान्ति स्तोत्र' सम्पादित-प्रकाशित छे. ते अप्रसिद्ध होवाना ख्यालथी प्रगट करेलुं छे. परन्तु पछीथी जाणवा मळेल ते मुजब ओ स्तोत्र अचलगच्छ जैन संघमां परम्परागत रीते प्रसिद्ध छे, नित्य स्मरणपाठनु स्तोत्र छे, तथा तेना कर्ता आ० जयशेखरसूरिजी छे. 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