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अनुसन्धान-७६
श्री अरिहंतदेव देव करि जाणी, जाकें क्रोध नही मूर, मान-माया-लोभ दूरि, कर्म कीए चकचूरि, जिन मोह नाणीइं । जाकुं नमें इंद-चंद, सुरिंद-मुणिंद-वृंद, नंत है गुणहिं जिणंद, त्रिभुवन मानीयें । जाकुं हइ अनंतज्ञान, देत हइ मुगतिदांन, अहनिस ताकुं ध्यान, मनमांहिं आंणीइं । भणे मुनि बालचंद, सुणो भविकवृंद, श्रीअरिहंतदेव देव करि जांणीइं ॥१॥ अजर अमर परमेसरकुं ध्याईइ, सकल पातिकहर, विमल केवलधर, जाकुं वास सिवपुर, तासुं लव लाइयै । नाद-विंद-रूप-रंग, पाणी(णि) पाद उतमंग, आदि अंत नहीं भंग, जाकुं नहीं पाइयै । संघेण संथांण जाण, नही कोइ अनुमान, ताहीकौं करत ध्यान, शिवपुर जाईयै ॥ भणे मु० ॥२॥ तरणतारण गुरु तारें भवपार ए, पांचें इंद्री संवरत, नवविध ब्रह्मव्रत, धरत त्यजत नित, क्रोधादिक च्यार ए । महाव्रत पंच धार, पालई है पंचाचार, सुमति गुपति सार, मात जयकार ए । ऐंसें गुंणइं गुरु होई, षटकाय पालई जोई, गौतम उपम सोइ, मुगतिदातार ए ॥ भणें ॥३॥ जगि एक जीवदया धर्म सुखदाई है, धर्महीऋद्धि-वृद्धि, धर्मही” नव-निधि, धर्मही” सयल सिद्ध, बहु जीव पाई है। धर्मही” देवलोक, धर्महीतें सहु थोक, ईहलोक-परलोक, धर्म ही सखाई है ।