SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जान्युआरी- २०१९ ५५ ताकुं नमें सुरवर, नरवर बहु पर, धर्महीसुं जेण नर, एक लव लाई है ॥ भणे० ॥४॥ उठ उठ धर्म कर सोवई मुढ कहा रे, दुतर सागर तर, कोई तट पायकर, सोवै तिहां निंदभर, फरि आवै इहा रे । संसारसागरमांहि, जाकुं आदि-अंत नाही, भ्रमत-भ्रमत तांहिं, पुदगल जिहां रे । काठो हे मानवभव, नीठ मुढ पायो अव, सोवै मत खीण लव, चेतकर ईहां रे ॥ भ० ॥५॥ सुरतरु काटकर आक वावि तेह रे, चिन्तामणि पाय कर, मुढ ताकुं परहरै, काच ग्रहै रंगभर, तासुं करैं नेह रे । गजपति वेच करि, सो तो मुढ लेत खर, पावै नांही फेर-फेर, मुंह परें खेह रे । महामुढ कोत सोइ, कामभोगरत्त होइं, हारे है रतन जोई, मानुषको देह रे ॥ भ० ॥६॥ उतमको संग कर नीच संग टालकइं, देखहु सागर संग, खारी होत महागंग, नींब भी चंदनगंध, चंदनधु भालिकै । जात खीर होत नीर, ताकौं मिल जसो वीर, सो भी ठर जात खीर, निज गुण गालिकै । पात्र विणा तारे वार, टालें रक्त कुविकार, तुंबभेद भए च्यार, भिन संग चालकै ॥ भ० ॥७॥ घडी-घडी मुढ तेरो आउ-जल जात है, कारिमउ कुटंब एह, काहेकुं धरत नेह, हारे है मनुष्यदेह, फेर क्यौं उपाय है । माय-ताय घर-बार, पुत्र-बहू परिवार, आवे नही तोरी लार, जासौं मन लाय है ।
SR No.520578
Book TitleAnusandhan 2019 01 SrNo 76
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2019
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy