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अनुसन्धान-७६
"अच्चुयकप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, जाव आणतकप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, सहस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, महासुक्के कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा जाव मांहिंदे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, सणंकुमारे कप्पे देवपुरिसा (xअ)संखेज्जगुणा, ईसाणकप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, सोधम्मे कप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा ।"
- सूत्र-५६, आगमोदय समिति, मधुकर मुनिजी मुद्रित प्रति में यहाँ 'सणंकुमारकप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा' पाठ दिया है किन्तु मूलपाठ की शैली से यहाँ 'संखेज्जगुणा' होना चाहिए, ऐसा स्पष्ट होता है।
यदि वस्तुतः सनत्कुमार कल्प में असंख्येयगुणा पाठ ही होता तो 'जाव' पद का प्रयोग "माहिंदे कप्पे" के पहले न करके 'ईसाणकप्पे' के पहले करते, क्योंकि वैसा होने पर असंख्येयगुणा का क्रम सहस्रार कल्प से लेकर माहेन्द्र कल्प तक न होकर निरन्तर ईशान कल्प तक होता । उसके बीच में ही माहेन्द्रकल्प के पूर्व तक 'जाव' का पाठ देकर फिर माहेन्द्र में, सनत्कुमार में, ईशान में क्रमशः असंखेज्जगुणा पाठ देने का कोई औचित्य नहीं था । किन्तु, चूकि 'जाव' पद का प्रयोग ‘माहिंदे कप्पे' के पूर्व तक ही है, इससे स्पष्ट है कि असंख्येयगुणा का क्रम माहेन्द्र कल्प तक ही चल रहा है, तदनन्तर सनत्कुमार में संख्येयगुणा है, फिर ईशान में असंख्येयगुणा है एवं फिर सौधर्म में संख्येयगुणा है ।
निष्कर्ष यह है कि मूलपाठ की शैली में 'जाव' का प्रयोग 'माहिंदे कप्पे' के पूर्व करना यह दर्शाता है कि निरन्तर असंख्येयगुण का क्रम माहेन्द्रकल्प (चतुर्थ देवलोक) तक ही है। तदनन्तर सनत्कुमार कल्प (तृतीय देवलोक) के देवों को संख्यातगुणा ही समझना चाहिए । २ बिन्दु क्रमाङ्क - ६
इसी प्रकार की शैली श्री अभयदेवसूरि रचित श्री प्रज्ञापनोपाङ्ग