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जान्युआरी- २०१९
१४३ वाचनभूलना कारणे थोडा स्थान परिमार्जनपात्र छे; विषय/कविरीति न समजायाथी पण केटलीक भूलो थवा पामी छे :
क. २६ : 'कबरीबंध' - अहीं 'कबरी बंध लहइ' एम वांचq जोइतुं हतुं. क. २५मां 'आ(सा)री' एम सुधारो सूचव्यो छे, ते जरूरी नथी. आरी = करवत. ए नगरमा 'मारि' शब्द मात्र करवत = आरीने माटे ज बोलातो, बीजा कोई माटे नहि. क. ३७ : 'सील सोभा गइ' एम छपायुं छे. अर्थनो अनर्थ थयो छे. 'सील-सोभागई आगली' : शील अने सौभाग्यमां बीजा करतां उत्तम. क. ३९मां 'काढवा' छे ते वाचनभूल छे. 'काचबा' छे. पगने काचबानी उपमा आपी छे. क. ८५ : 'सोवतां' नहि, 'सोधतां'. क. ९६मां 'भजाविया'ना स्थाने 'सजाविया' समजाय एवं छे. क. ९८ : 'तोषारहइ' = 'तोखार हइ'. क. १०० : 'उठी' = ऊढी / आढी. क. १२७ : 'सहिर' = सहि[]र. क. १४६ : 'अलपतउ हीयण ठांह' खोटुं वंचायुं छे. लिप्यन्तर करतां अगाउ ग्रन्थ वांची-समजी लेवानी जरूर रहे छे. चालती वातनो सन्दर्भ पकडाय तो शब्द अने अर्थ पकडाय. "अमृत थोडं होय तो य भलुं, विष ढगलो होय तेने शुं करवू? तडको घणो होय तो तनने दझाडे, छाया अल्प होय तो य कामनी/सारी- 'अलप तउ ही पण छांह'. क. १४८ : बिघडी = बि घडी. क. १५१ : 'समापइं' असंगत छे. ह.प्र. मां 'समप्पइ' शब्द होवानी पूरी शक्यता छे. क. १६९ : (?) प्रश्नार्थ को छे त्यां कोइ गरबड नथी. 'कूप' शब्द अहीं जोइए छे, जे बीजी पंक्तिमां जतो रह्यो छे. वाचनभूल छे, तेथी बिनजरूरी गोटाळो थयो छे. कविनी शैली पण समजवी रही. काव्यतत्त्व अहीं कामे लगाडवू पडे. कविए सुन्दर उपमाओ वापरी छे. कडी आम छे :
कंत माली, वनिता लता, प्रीति जल, तन कूप;
सींच्या विण किम नीसरई नव नव पल्लव रूप.
शब्दकोशमां शब्द साथे कडीक्रमांक आपवा जरूरी गणाय. मूकि मूकि = मूक, मूक, छोड. दाधी = दाझेली. ज्योतखी = ज्योतिषी अथवा ग्रह-नक्षत्र.
__ बाजिंद कविनी रचनाओ जैन ह.लि. भण्डारोमां सचवाई छे. (एवा बीजा अ-जैन कवि/लेखकोनी कृतिओ पण जैन भण्डारोमां मळे.) 'बाजिंदविलास' अध्यात्मरंगी, वैराग्यपोषक, बोधदायक बळवान कृति छे. वाचनामां