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जान्युआरी- २०१९ सहिस अक अठ्योत्तर लख्यणइं, किरण-रूपई सोहइ पूरणइं; कुमत-पाखंड-घुअड-त्रास अ, सुजस-तेजई दह दिसि वास अ. ३ झलहलइ नितु केवल-मंडलइ, दुरित-मोह-अंधार सहु टलइ; कुगति-तारा-तेज हरइ सही, अधिक ऊंची पदवी प्रभु लही. ४ उदयवंत सदा जन-मनि गमइ, ऊपरि संग कदा नवि आथमइ; सुगुण-श्रेणिइं नितु ऊंचउ पडइ, असुभ सहु तणइ वसि नवि पडइ. ५ करम-चोर तणां बल टालइ अ, भविक-लोक प्रभाति निहालइ अ; हरइ सीतल-पातक-टाढडी, खय गई अगन्यान निशा वडी. ६ धरम-वाणी कानि सुणावओ, तेह ज सुद्ध प्रभा जगि ठाव; ओह ज अचरिज मुझ मनि भावओ, भविकना भव-ताप समावओ. ८ सुजन-मानस-कमल जगावइ अ, मुगति-पंथी पंथि लगावइ अ; भविक-कमल-विकास तिणि करइ, मन-संदेह-तिमिर सवि हरइ. ९ सुधर-धीरिम-मेरु चिहुं दिसिई, प्रभु विहार करइ नितु मन-रसइ; बिहूं परइ धर्म-वाणि ज जन करइ, सुकृत-लाभ अनंतउ आदरई. १० इसिउ अदभुत दिनकर वंदीई, सुगति-संपदसिउं चिर नंदीइ; इकमना प्रभु निसिदिनि ध्याइअइ, सयल वंछित जेहथी पाईअई. ११ जिन-गुण-स्तव दिन प्रति जे करइ, चिति अढार इ अक्षर संभरइ; सुगुरु संगति परि सघली गूहिइ, विविध वंळि(?) ते निश्चइ. १२ नवि लहइ कलि-कंदलि आपदा, स जिसि पामइ नवनिधि संपदा; चरण-लंछणि विसहर भणीइ, गुण अनंते प्रभु वखाणीइ. १३ करइ सेवा धरणिंद फणपती, नमइ वैरोट्या पदमावती; विकट संकट कोटि सदा हरइ, प्रभु-सुमूरति दीठइ मन ठरइ. १४ दीइ वंछित सुर-मणिनी परइं, जिन आराहउ अतिघण आदरइ;
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॥ कलश ॥
इम सकल-सुख-कर पाप-तम-हर पास जिणवर ध्याअइ, भल-भाव आणी मधुर-वाणी स्वामिना गुण गाईअई,