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सुधारका मूलमत्र छूट जाता है। प्रेम साहित्यके प्रसादसे हम प्रेम करनेके लिये तैयार हो जाते हैं-दूसरोंके प्रति हमारा अनुराग और वात्सल्य बढ जाता है । हंसीका साहित्य हमें हंसने या मुस्करानेके लिये बाध्य कर देता है। भयका साहित्य हमें भीर और डरपोक बना देता है हम बातबातमे डरने, घबराने और काँपने लग जाते हैं। काम-साहित्यके प्राबल्यमे अनेक प्रकारकी काम-चेष्टाएँ होने लगती हैं और द्वेषसाहित्यके प्रभावसे हम लडने-लडाने, घृणा करने तथा एक दूसरेको हानि पहुंचानेके लिये आमादा और तत्पर हो जाते हैं । युद्ध में क्या होता है ? युद्ध-साहित्यका प्रचार । अर्थात् युद्ध-सामग्रीको एकत्रित, सचित और सुरक्षित करनेके सिवाय युद्धकी महिमा गाई जाती है-युद्ध करना कर्तव्य और धर्म ठहराया जाता है । अपने देश, धम और समाजकी मान-रक्षाके लिये प्राणोकी बलि देना सिखलाया जाता है। अपमानित जीवनसे मरना श्रेष्ठ है, युद्धमे मरने वालोकी कीर्ति अमर हो जाती है और उनके लिये हरदम स्वर्ग या वैकू ठका द्वार खुला रहता है, इस प्रकारकी शिक्षाएं दी जाती हैं । शत्रुओंके असत् व्यवहारोको दिखलाते हुए उनसे घृणा पैदा कराई जाती है और उन्हे दड देनेके लिये लोगोको उत्तेजित किया जाता है। साथ ही, सैनिकोको और भी अनेक प्रकारके प्रोत्साहन दिए जाते हैं, वीरोका खूब कीर्तिगान होता है और कायरोकी भरपेट निन्दा भी की जाती है। नतीजा इस सम्पूर्ण साहित्य-प्रचारका यह होता है कि मुर्दोमे भी एक बार जान पड़ जाती है उनकी मुबई हुई प्राशा-लताएं फिरसे हरी-भरी होकर लहलहाने लगती हैं और वे कायर भी, जो अभी तक युद्धसे भाग रहे थे अथवा जिन्होने हथियार डाल दिए थे, युद्ध में शत्रुमो पर विजय प्राप्त करनेके लिए जी-जानसे लड़ने-- खुशीसे अपने प्राणो तककी माहुति देनेके लिए तैयार हो जाते हैं, पूर्ण उत्साहके साथ शत्र पर धावा करते हैं, खूब जम कर लड़ते हैं पौर अन्त में शत्रुको परास्त भी कर देते हैं।