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भूमिका
अब्दे भास्करवाजिपाण्डवरसक्ष्मा (१६५७) मण्डलोद्भासिते,
भाद्रे मासि सिते दले हरिदिने वारे तमिस्रापतेः । श्रीमत्पिङ्गलनागनिर्मितवरग्रन्थप्रदीपं मुदे,
लोकानां निखिलार्थसाधकमिमं लक्ष्मीपतिनिर्ममे ॥३।। विशिष्टस्नेहभरितं सत्पात्रपरिकल्पितम् । स्फुरद्वृत्तदशं छन्द:प्रदीपं पश्यत स्फुटम् ॥४॥ छन्दःप्रदीपकः सोऽयमखिलार्थप्रकाशकः ।
लक्ष्मीनाथेन रचितस्तिष्ठत्वाचन्द्रतारकम् ।।५।। पुष्पिका-इत्यालङ्कारिकचक्रचूडामणिश्रीमद्रायभट्टात्मजश्रीलक्ष्मीनाथभट्टविरचिते पिङ्गलप्रदीपे वर्णवृत्ताख्यो द्वितीयः परिच्छेदः समाप्तः । ___ डा. भोलाशंकर व्यास द्वारा सम्पादित प्राकृतपैङ्गलम्, भा. १ में यह टीका प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी वाराणसी द्वारा सन् १६५६ में प्रकाशित हो चुकी है।
३. उदाहरणमञ्जरी-यह ग्रन्थ अद्यावधि अप्राप्त है। लक्ष्मीनाथ भट्ट की यह स्वतन्त्र कृति प्रतीत होती है। इस ग्रन्थ में केवल छन्दों के ही नहीं, अपितु विपुल संख्या में प्राप्त छन्द-भेदों के उदाहरण भी दिये गये हैं । यही कारण है कि स्वयं लक्ष्मीनाथ ने पिंगलप्रदीप' में और भट्ट चन्द्रशेखर ने वृत्तमौक्तिक में गाथा, स्कन्धक, दोहा आदि छन्द-भेदों के उदाहरणों के लिये 'उदाहरणमञ्जरी' देखने का आग्रह किया है । सं० १६५७ में रचित पिंगलप्रदीप में उल्लेख होने से यह निश्चित है कि इसकी रचना १६५७ के पूर्व ही हो चुकी थी। ___केटलॉगस् केटलॉगरम्, भाग २ पृष्ठ १३ पर इसका नाम उदाहरणचन्द्रिका दिया है, जो कि भ्रमवाचक है ।
४. वृत्तमौक्तिक-द्वितीयखण्ड का अंश-प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम-खण्ड की रचना चन्द्रशेखर भट्ट ने १६७५ में पूर्ण की है और द्वितीय-खण्ड की समाप्ति होने के पूर्व ही चन्द्रशेखर इस लोक से प्रयाण कर गये। प्रयाण करने के पूर्व इन्होंने अपनी आन्तरिक अभिलाषा अपने पिता लक्ष्मीनाथ भट्ट को बतलाई कि मेरे इस ग्रंथ को आप पूर्ण कर दें। सुयोग्य, प्रतिभाशाली, पाण्डवचरित आदि महाकाव्यों के प्रणेता, विनयशील पुत्र की अन्तिम अभिलाषा के अनुसार ही शोकसन्तप्त लक्ष्मीनाथ भट्ट ने अपने पुत्र की कीत्ति को अक्षुण्ण रखने के लिये तत्काल ही सं० १६७६ कात्तिकी पूर्णिमा के दिन इस ग्रंथ को पूर्ण कर दिया । १-देखें, पृष्ठ ३९२, ३६५, ३६७, ४०६, ४०६, २-देखें, पृष्ठ १०, १३, १४, १६, १७, २१, २४,