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भूमिका
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मुरारि, जयदेव (गीतगोविन्दकार), देवेश्वर, गंगादास आदि के मतों का उल्लेख करते हुये यतिभंग से दोष और यतिरक्षा से काव्य-सौन्दर्य की अभिवृद्धि आदि . का सुन्दर, विश्लेषण किया है। ८. गद्य-प्रकरण :
वाङ्मय दो प्रकार का है-१. पद्यात्मक और २. गद्यात्मक । पद्य-वाङ्मय का वर्णन प्रारंभ के प्रकरणों में किया जा चुका है । अत: यहां इस प्रकरण में गद्य-वाङ्मय का विवेचन है । गद्य के प्रमुख तीन भेद हैं-१. चूर्णगद्य, २. उत्कलिकाप्राय-गद्य और ३. वृत्तगन्धि-गद्य ।
चूर्णकगद्य के तीन भेद हैं :-१. प्राविद्धचूर्ण, २. ललितचूर्ण और ३. मुग्धचूर्ण । मुग्धचूर्ण के भी दो भेद हैं:-१. प्रवृत्तिमुग्धचूर्ण और २. अत्यल्पवृत्तिमुग्धचूर्ण ।
इस प्रकार इन समस्त गद्य-भेदों के लक्षण एवं उदाहरण दिये हैं। उत्कलिकाप्राय का एक और वृत्तगन्धि गद्य के तीन प्रत्युदाहरण भी दिये हैं।
यथा:
काव्य - वाङ्मय
चूर्णकगद्य
उत्कलिकाप्रायगद्य
वृत्तगन्धिगद्य
प्राविद्धचूर्ण
ललितचूर्ण
मुग्धचूर्ण
प्रवृत्तिमुग्धचूर्ण
अत्यल्पवृत्तिमुग्धचूर्ण अन्य ग्रन्थकारों ने गद्य के चार भेद स्वीकार किये हैं :-१. मुक्तक, २. वृत्तगन्धि, ३. उत्कलिकाप्राय और ४. कुलक । इन चारों भेदों के लक्षण एवं उदाहरण भी ग्रंथकार ने दिये हैं । उत्कलिकाप्राय गद्य का प्राकृत-भाषा का उदाहरण भी दिया है। ६. विरुदावली-प्रकरण :
गद्य-पद्यमयी राजस्तुति को विरुद कहते हैं और विरुदों की आवली = समूह को विरुदावली कहते हैं। यह विरुदावली पाँच प्रकरणों में विभाजित है :