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भूमिका
पारिभाषिक शब्दावली का ग्रन्थकार ने सफलता के साथ विविध रूपों में प्रयोग किया है :-१. विशुद्ध टादिगण, २. टादि और मगणादि मिश्र, ३. टादि और पारिभाषिक मिश्र, ४. विशुद्ध पारिभाषिक, ५. विशुद्ध मगणादि और ६. पारिभाषिक एवं मगणादि मिश्र । उदाहरण के तौर पर प्रत्येक प्रयोग का एक-एक पद्य प्रस्तुत है :-- १. विशुद्ध टगणादि का प्रयोग--
आदो षट्कलमिह रचय डगणत्रयमिह धेहि ।
ठगणं डगणं द्वयमपि घत्तानन्दे धेहि ॥३२॥ [पृ० १६] अर्थात् घत्तानन्द नामक मात्रिक छंद में षट्कल = ६ मात्रा, डगणत्रय = चतुष्कल तीन १२ मात्रा, ठगण = पञ्चकल ५ मात्रा और डगणद्वय = चतुष्कलद्वय ८ मात्रा कुल ३१ मात्रा होती है । २. टादि और मगणादि मिश्र का प्रयोग
डगणं कुरु विचित्रमन्ते जगणमत्र ।
मध्ये द्विलमवेहि दीपकमिति विधेहि ॥३६॥ [ पृ० ३८ ] अर्थात् दीपक नामक मात्रिक छंद में डगण = चतुष्कल ४ मात्रा, द्विल = दो लघु २ मात्रा और जगण = ४ मात्रा, कुल १० मात्रा होती हैं। ३. टादि और पारिभाषिक-मिश्र का प्रयोग
यदि योगडगणकृत - चरणविरचित-द्विजगुरुयुगकरवसुचरणा। नायक-विरहितपद - कविजनकृतमदपठनादपि मानसहरणा । इह दशवसुमनुभिः क्रियते कविभिविरतिर्यदि युगदहनकला। सा पद्मावतिका फणिपतिभणिता त्रिजगति राजति गुणबहुला ॥१॥
[पृ० ३० ] अर्थात् पद्मावतीनामक मात्रिक छंद में 'योगडगण' डगण = चतुष्कल, योग = आठ अर्थात् ३२ मात्रायें होती हैं जिनमें द्विज = ।। ।। चार मात्रा, गुरुयुग = 55 चार मात्रा, कर = || 5 सगण ४ मात्रा, वसुचरण = 5।। भगण चार मात्रा का प्रयोग अपेक्षित है और नायक =। जगण चार मात्रा का प्रयोग निषिद्ध है । इस छंद में यति १०, ८, १४ मात्रा पर होती है । ४. विशुद्ध पारिभाषिक शब्दों का प्रयोगद्विजरसयुता कर्णद्वन्द्वस्फुरद्वरकुण्डला,
- कुचतटगतं पुष्पं हारं तथा दधती मुद्रा।