________________
(घ.) विरुदावली छन्दों के लक्षण
छन्द-नाम
वर्णसंख्या लक्षण
विशेष
या
मात्रासंख्या
द्विगा कलिका १६ मा०च० ४-चतुष्कल
चतुष्कुल की मैत्री रादिकलिका २० मा०च० ४-पञ्चकल
१-२ और ३-४ पंचकलों
की मैत्री मादिकलिका ४८ मा०च० मराण, षट्कल-७. नादिकलिका २४ मा० च० त्रिकल-८, अर्थात् नगण ८, अनुप्रासयुक्त गलादिकलिका २० मा०च० ४-पंचकल, प्रत्येक पंचकल
के प्रादि में गुरु मिश्रा कलिका २७ व०च० गुरु-लघु-मिश्र
तिल-तंदुल के समान गुरु
और लघु मिश्रित हों। (१) मध्या कलिका प्रादि और अन्त में कलिका
और मध्य में गद्य (२) मध्या कलिका
प्रादि और अन्त में मैत्रीरहित गद्य और मध्य में
कलिका। द्विभङ्गी कलिका २८ व.च. गुरु-लघु-क्रम से २४ वर्ण, ६ भंग होते हैं इनमें भंग
अन्त में ४ गुरु
होने पर भी मैत्री होती है। द्वितीय और चतुर्थ मधुर
एवं श्लिष्ट होते हैं। विदग्धत्रिभनी कलिका २४ व.च. त.न,त.न,त.न,भ.भ. युग्माण-भंग और दोनों
भगणों की मैत्री
कलिका में प्रत्येक के चार चरण होते हैं। चण्डवृत्तों में प्रत्येक में ६, ८, १०, १२, १४ तक कलिका विरुव होते हैं । विरुद तीन होते हैं। धीर, वीर, देव आदि सम्बोधन होते हैं । यहाँ केवल चण्डवृत्त छन्दों के लक्षण मात्र दिये गये हैं, कलिका विरुदादि के नहीं दिये गये हैं क्योंकि ये ऐच्छिक होते हैं।
संकेत-म = मगण, य=यगण, र=रगण, स=सगण, त=तगण, ज=जगण, भ-भगण, न नगरण, ग=गुरु, ल=लघु, षट्कल=६ मात्रा, पञ्चकल=५ मात्रा, चतुष्कल=४ मात्रा, त्रिकल=३ मात्रा, च-चतुष्पदी,व वर्ण, मा=मात्रा