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भूमिका
अत्यष्टि = १७ अक्षर
प्राकृति = २२ अक्षर धृति = १८ अक्षर
विकृति __= २३ अक्षर अतिधति = १६ अक्षर
संस्कृति = २४ अक्षर कृति = २० अक्षर
प्रतिकृति = २५ अक्षर प्रकृति = २१ अक्षर
उत्कृति = २६ अक्षर किन्तु प्राकृतपिंगल, वाणीभूषण और वृत्तमौक्तिक में यह परम्परा दृष्टिगोचर नहीं होती है। इन तीनों ग्रन्थों में एकाक्षर, द्वयक्षर, व्यक्षर आदि संज्ञा का ही प्रयोग मिलता है । संभवतः मध्ययुगीन हिन्दी-परम्परा के निकट पा जाने के कारण ही इन ग्रन्थकारों ने वैदिक-परम्परा का त्याग कर सामान्य प्रणालिका अपनाई है। ८. विषयसूची
प्रस्तुत ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड के बारहवें प्रकरण में दोनों खण्डों के प्रत्येक प्रकरणस्थ प्रतिपाद्य विषय की विस्तृत अनुक्रमणिका ग्रन्थकार ने दी है । वर्ण्य विषय के साथ साथ छन्द-नाम, नामभेद और प्रत्येक अक्षर की प्रस्तारसंख्या का भी उल्लेख है। इस प्रकार की अनुक्रमणिका अन्य छन्द-ग्रन्थों में प्राप्त नहीं है, केवल प्राकृतपिंगल में प्रथम परिच्छेद के अंत में मात्रिक-छन्द-सूची और द्वितीय परिच्छेद के अन्त में वर्णिकवृत्त-सूची गद्य में प्राप्त है। इस प्रकार की बृहत्सूची जिस विधिवत् ढंग से दी गई है उससे यह प्रमाणित होता है कि लेखक का ज्ञान बहुत विस्तृत रहा है और उसने छन्दःशास्त्र के प्रतिपादन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने का प्रयत्न किया है और वह इसमें सफल भी हुआ है।
निष्कर्ष-उपर्युक्त छन्द-ग्रन्थों के साथ तुलना करने पर यह स्पष्ट है कि सभी दृष्टियों से अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा वृत्तमौक्तिक छन्दःशास्त्र का सर्वश्रेष्ठ एवं प्रौढ़ ग्रन्थ है । साथ ही मध्ययुगीन हिन्दी-साहित्य में जो स्थान और महत्व प्राकृतपिंगल का है उससे भी अधिक महत्व इस ग्रन्थ का है क्यों कि जहां प्राकृतपिंगल में सवैया छन्द के उद्भव के अंकुर प्राप्त होते हैं वहां वृत्तमौक्तिक में सवैया (मदिरा, मालती आदि ६ भेद) और घनाक्षरी छन्द सोदाहरण प्राप्त हैं। मध्ययुगीन हिन्दी-साहित्य की दृष्टि से इसमें वे सब छन्द प्राप्त हैं जिनका प्रायः प्रयोग तत्कालीन कवि कर रहे थे। अत: संस्कृत और हिन्दी दोनों के साहित्यिक दृष्टिकोण से वृत्तमौक्तिक का छन्दःशास्त्र में विशिष्ट स्थान और महत्व सुनिश्चित ही है।