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वृत्तमौक्तिक
अक्षर - उपवनकुसुम; २३ अक्षर - मल्लिका; २४ अक्षर - माधवी; २५ अक्षर - मल्ली; २६ अक्षर - गोविन्दानन्द और मागधी ।
दो नगण और पाठ रगणयुक्त प्रचितक-नामक दण्डक का प्रयोग केवल छंद:सूत्र और वृत्तमौक्तिक में ही है ।
चौपैया नामक मात्रिक छंद अन्य ग्रंथों में भी प्राप्त है। किन्तु जहाँ अन्य ग्रंथों में १२० मात्रा का पूर्ण पद्य माना है वहाँ इस ग्रन्थ में १२० मात्रा का एक पद और ४८० मात्रा का पूर्ण पद्य माना है।
इस वर्गीकरण से स्पष्ट है कि अन्य ग्रंथों की अपेक्षा वृत्तमौक्तिक में छंदों का वैशिष्टय और बाहुल्य है । ३. छन्दों के नाम-भेद
प्रस्तुत ग्रंथ में ५० छंद ऐसे हैं जिनका ग्रंथकार ने प्राकृतपिंगल, प्राचार्य शंभु एवं तत्कालीन आधुनिक छंदःशास्त्रियों के मतानुसार नाम-भेद दिये हैं। इन नामभेदों की तालिका ग्रंथ के सारांश में और चतुर्थ परिशिष्ट (ख) में देखी जा सकती है। इस प्रकार की नामभेदों की प्रणाली अन्य मूलग्रन्थों में उपलब्ध नहीं है । हाँ, हेमचन्द्रीय छन्दोनुशासन की स्वोपज्ञ टीका और वृत्तरत्नाकर की नारायणभट्टी टीका आदि कतिपय टीका-ग्रन्थों में यह प्रणाली अवश्य लक्षित होती है किन्तु इतनी विपुलता के साथ नहीं।
इससे यह तो स्पष्ट है कि ग्रन्थकार ने प्राचीन एवं अर्वाचीन अनेक छन्दःशास्त्रों का आमन्थन कर प्रस्तुत ग्रन्थ द्वारा नवनीत रखने का प्रयास किया है। ४. विरुदावली और खण्डावली
ग्रन्थ के द्वितीय-खण्ड के नवम प्रकरण में विरुदावली, दसवें प्रकरण में खण्डावली और ग्यारहवें प्रकरण में इन दोनों के दोषों का वर्णन है । विरुदावली में ३४ कलिका, ४० विरुदावली और २ खण्डावली के लक्षण एवं उदाहरण ग्रन्थकार ने दिये हैं। यह विरुदावली कवि को मौलिक-सर्जना प्रतीत होती है, क्योंकि अन्य छन्द-ग्रंथों में विरुदावली के भेद और लक्षण तो दूर रहे किन्तु इसका नामोल्लेख भी नहीं है। हाँ, इतना अवश्य है कि कवि ने २९ विरुदावलियों के उदाहरण रूपगोस्वामी प्रणीत गोविन्दविरुदावली से दिये हैं; अतः यह अनुमान किया जा सकता है कि रूपगोस्वामी के पूर्व भी इसकी परम्परा विविध-रूपों में अवश्य विद्यमान थी, अन्यथा इतने भेद और प्रभेद कैसे प्राप्त