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भूमिका
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हो सकते थे ? संभव है, इसका कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ भी अवश्य रहा हो ! कतिपय स्फुट विरुदावलियां अवश्य प्राप्त होती हैं तथा शोध करने पर और भी प्राप्त होना संभव है किन्तु इनके भेद, प्रभेद उदाहरणों के साथ संकलन अद्यावधि अप्राप्त है । कवि ने इस विच्छिन्नप्राय परम्परा को अक्षुण्ण रख कर जो साहित्य जगत् को अमूल्य देन दी है वह श्लाघ्य ही नहीं महत्त्वपूर्ण भी है।
अद्यावधि जो संस्कृत-वाङ्मय प्रकाश में आया है उसमें विरुदावली-साहित्य पर नहीं के समान प्रकाश पड़ा है । अतः शोध-विद्वानों का कर्तव्य है कि वे इस अछूते और वैशिष्ट्यपूर्ण विरुदावली-साहित्य पर अनुसंधान कर इसके महत्त्व पर प्रकाश डालें। ५. यति एवं गद्य प्रकरण
समग्र छन्दःशास्त्रियों ने मात्रिक और वणिक पद्य के पदान्त और पदमध्य में यतिविधान आवश्यक माना है। वृत्तमौक्तिककार ने भी यति प्रकरण में इस का सुन्दर विश्लेषण और विवेचन किया है। इनके मत से काव्य में मधुरता के लिये यति का बन्धन आवश्यक है । यति से काव्य में सौन्दर्य की अभिवृद्धि होती है । यति के बिना काव्य श्रेष्ठतर नहीं हो सकता' ।
ग्रन्थकार के मत से भरत, पिंगल और जयदेव संस्कृत-साहित्य में यति आवश्यक मानते हैं और श्वेतमाण्डव्य आदि मुनिगण यति का बन्धन स्वीकार नहीं करते हैं । जयकीत्ति के मतानुसार पिंगल वसिष्ठ, कौण्डिन्य, कपिल, कम्बलमुनि यति को अनिवार्य मानते हैं और भरत, कोहल, माण्डव्य, अश्वतर, सैतव आदि कतिपय आचार्य यति को अनावश्यक मानते हैं
वाञ्छन्ति यति पिङ्गल-वसिष्ठ-कौण्डिन्य-कपिल-कम्बलमुनयः । नेच्छन्ति भरत-कोहल-माण्डव्याश्वतरसैतवाद्याः केचित् ।।
[छन्दोनुशासन, १.१३] स्वयम्भूछन्द में लिखा है
जयदेवपिंगला सक्कयंमि दुच्चिय जइं समिच्छति । मंडव्वभरहकासवसेयवपमुहा न इच्छंति ॥१,७१॥
[जयदेवपिंगली संस्कृते द्वावेव यति समिच्छन्ति ।
माण्डव्यभरतकाश्यपसतवप्रमुखा न इच्छन्ति ॥] अर्थात् जयदेव और पिंगल यति मानते हैं और माण्डव्य, भरत, काश्यप, सैतव आदि नहीं मानते हैं । १-पृ. २०४ पद्य ८ २-पृ. २०४ पद्य १०