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भूमिका
तुलनात्मक अध्ययन करने पर इस ग्रंथ का महत्त्व कई दृष्टियों से प्रांका जा सकता है । न केवल संस्कृत और प्राकृत-अपभ्रंश छन्द-परम्परा की दृष्टि से ही अपितु हिन्दी छंद-परम्परा की दृष्टि से भी इस ग्रंथ को छंदःशास्त्र का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ मान सकते हैं । इस ग्रंथ की प्रमुख-प्रमुख विशेषतायें इस प्रकार हैं :१. पारिभाषिक शब्द और गण। ___ इस ग्रंथ में मात्रिक और वणिक दोनों छंदों का विधान होने से ग्रंथकार ने संस्कृत और प्राकृत-अपभ्रंश की मगणादिगण एवं टगणादिगणों की दोनों प्रणालियों का साधिकार प्रयोग किया है। स्वयंभू छंद, छंदोनुशासन और कविदर्पण आदि ग्रंथों में षट्कल, पञ्चकल, चतुष्कल आदि कलाओं का ही प्रयोग मिलता है किंतु इनके प्रस्तार-भेद, नाम और उसके कर्ण, पयोधर, पक्षिराज
आदि पर्यायों का प्रयोग हमें प्राप्त नहीं होता है । इसका सर्वप्रथम प्रयोग हमें कवि विरहांक कृत वृत्तजातिसमुच्चय में प्राप्त होता है । इसके पश्चात् तो इसका प्रयोग प्राकृतपिंगल, वाणीभूषण और वाग्वल्लभ आदि अनेक ग्रंथों में प्राप्त होता है।
वृत्तमौक्तिक में ट = षट्कल, ठ = पञ्चकल ड = चतुष्कल, ढ = त्रिकल, ण = द्विकल गण स्थापित कर इनके प्रस्तारभेद, नाम और प्रत्येक के पर्याय विशदता के साथ प्राप्त हैं। साथ ही पृथक् रूप से मगणादि आठ गण भी दिये है । इस पारिभाषिक शब्दावली का तुलनात्मक अध्ययन के साथ परिचय मैंने इसी ग्रंथ के प्रथम परिशिष्ट में दिया है, अतः यहां पर पुनः पिष्टपेषण अनावश्यक है, किंतु रत्नमञ्जूषा और जानाश्रयी छन्दोविचिति में हमें एक नये रूप में पारिभाषिक शब्दावली प्राप्त होती है जिसका कि पूर्ववर्ती और परवर्ती किसी भी ग्रंथ में प्रयोग नहीं मिलता है अतः तुलना के लिये दोनों की संकेत सूची यहां देना अप्रासंगिक न होगा। रत्नमञ्जूषा
वृत्तमौक्तिक क् और प्रा sss • मगण, हर च् , ए
यगण, इन्द्रासन आदि त् , औ
SIS रगण, सूर्य, वीणा आदि प् , ई ।। सगण, करतल, कर आदि श् ,
तगण, हीर ष् ,
SIS जगण, पयोधर, भूपति आदि स् , ऋ
भगण, दहन, पितामह आदि
5।।