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५. विषमवृत्त प्रकरण :
जिस छन्द के चारों चरणों के लक्षण भिन्न-भिन्न हों उसे विषमवृत्त कहते हैं । विषमवृत्तों में उद्गता, उद्गताभेद, सौरभ, ललित, भाव, वक्त्र, पथ्यावक्त्र और अनुष्टुप् नामक छन्दों के लक्षण एवं उदाहरण दिये हैं । उद्गताभेद का ग्रन्थकार का स्वोक्त उदाहरण नहीं है किन्तु भारवि और माघ के दो उदाहरण हैं ।
वृत्तमौक्तिक
अनुष्टुप के लिये लिखा है कि कतिपय प्राचार्य इसे भी 'वक्त्र' छन्द का ही लक्षण मानते हैं और अनेक पुराणों में नानागणभेद से यह प्राप्त होता है । श्रत: इसे विषमवृत्त ही मानना चाहिये । पदचतुरूर्ध्वादि और उपस्थित - प्रचुपित आदि विषमवृत्तों के लिये छन्दः सूत्र की हलायुध की टीका देखने का संकेत किया है ।
६. वैतालीय - प्रकरण :
वैतालीय, श्रपच्छन्दसक, आपातलिका, नलिन, द्वितीय नलिन, दक्षिणान्तिका वैतालीय, उत्तरान्तिका वैतालीय, प्राच्यवृत्ति, उदीच्यवृत्ति, प्रवृत्तक, अपरांतिका और चारुहासिनी नामक वैतालीय छन्दों के लक्षण एवं उदाहरण हैं । दक्षिणान्तिका वैतालीय का एक, प्राच्यवृत्ति के दो, उदीच्यवृत्ति का एक प्रवृत्तक का एक, अपरान्तिका के दो श्रौर चारुहासिनी के दो प्रत्युदाहरण भी दिये हैं ।
इस प्रकरण में वृत्तों के लक्षण पूर्ण पद्यों में न होकर सूत्र- कारिका रूप में प्राप्त हैं और साथ ही इन कारिकाओं को स्पष्ट करने के लिये टीका भी प्राप्त है।
७. यति निरूपण - प्रकरण :
पद्य में जहां पर विच्छेद हो, विभजन हो, विश्राम हो, विराम हो, अवसान हो उसे यति कहते हैं । समुद्र, इन्द्रिय, भूत, इन्दु, रस, पक्ष और दिक् आदि शब्द साकांक्षी होने से यति से सम्बन्ध रखते हैं । ग्रंथकार मूल - शास्त्र अर्थात् छन्दःसूत्र का आलोडन कर उदाहरण सहित इस प्रकरण पर विवेचन करता है ।
पद्य ४ से ७ तक प्राचीन आचार्यों की संग्रह - कारिकायें और इनकी व्याख्या दी गई हैं। ये चारों पद्य और इनकी उदाहरणसहित व्याख्या छन्दः सूत्र की हलायुध टीका में प्राप्त है । किचित् परिवर्तन के साथ यह स्थल यहां पर ज्यों का त्यों उद्धृत किया गया है । अन्त में आचार्य भरत, प्राचार्य पिङ्गल, जयदेव, श्वेतमाण्डव्य,