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________________ भूमिका [ ५५ मुरारि, जयदेव (गीतगोविन्दकार), देवेश्वर, गंगादास आदि के मतों का उल्लेख करते हुये यतिभंग से दोष और यतिरक्षा से काव्य-सौन्दर्य की अभिवृद्धि आदि . का सुन्दर, विश्लेषण किया है। ८. गद्य-प्रकरण : वाङ्मय दो प्रकार का है-१. पद्यात्मक और २. गद्यात्मक । पद्य-वाङ्मय का वर्णन प्रारंभ के प्रकरणों में किया जा चुका है । अत: यहां इस प्रकरण में गद्य-वाङ्मय का विवेचन है । गद्य के प्रमुख तीन भेद हैं-१. चूर्णगद्य, २. उत्कलिकाप्राय-गद्य और ३. वृत्तगन्धि-गद्य । चूर्णकगद्य के तीन भेद हैं :-१. प्राविद्धचूर्ण, २. ललितचूर्ण और ३. मुग्धचूर्ण । मुग्धचूर्ण के भी दो भेद हैं:-१. प्रवृत्तिमुग्धचूर्ण और २. अत्यल्पवृत्तिमुग्धचूर्ण । इस प्रकार इन समस्त गद्य-भेदों के लक्षण एवं उदाहरण दिये हैं। उत्कलिकाप्राय का एक और वृत्तगन्धि गद्य के तीन प्रत्युदाहरण भी दिये हैं। यथा: काव्य - वाङ्मय चूर्णकगद्य उत्कलिकाप्रायगद्य वृत्तगन्धिगद्य प्राविद्धचूर्ण ललितचूर्ण मुग्धचूर्ण प्रवृत्तिमुग्धचूर्ण अत्यल्पवृत्तिमुग्धचूर्ण अन्य ग्रन्थकारों ने गद्य के चार भेद स्वीकार किये हैं :-१. मुक्तक, २. वृत्तगन्धि, ३. उत्कलिकाप्राय और ४. कुलक । इन चारों भेदों के लक्षण एवं उदाहरण भी ग्रंथकार ने दिये हैं । उत्कलिकाप्राय गद्य का प्राकृत-भाषा का उदाहरण भी दिया है। ६. विरुदावली-प्रकरण : गद्य-पद्यमयी राजस्तुति को विरुद कहते हैं और विरुदों की आवली = समूह को विरुदावली कहते हैं। यह विरुदावली पाँच प्रकरणों में विभाजित है :
SR No.023464
Book TitleVruttamauktik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishtan
Publication Year1965
Total Pages678
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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