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भूमिका
निःसंदेह कहा जा सकता है कि इनका अलङ्कार-शास्त्र, छन्दःशास्त्र और काव्यसाहित्य पर एकाधिपत्य था । 'सकलोपनिषद्रहस्यार्णवकर्णधार'' विशेषण से संभव है कि इन्होंने किसी उपनिषद् पर या उपनिषद्-साहित्य पर लेखिनी अवश्य ही चलाई हो ! वृत्तमौक्तिकवात्तिकदुष्करोद्धार की रचना १६८७ में हुई है, अतः अनुमान है कि यह रचना इनकी अन्तिम रचना हो ! इनके द्वारा सर्जित प्राप्त साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:
१. सरस्वतीकण्ठाभरण-टोका-धाराधिपति भोजनरेन्द्र-प्रणीत इस ग्रन्थ की टीका का नाम 'दुष्करचित्रप्रकाशिका' है । टीकाकार ने इसमें रचना संवत् नहीं दिया है । टीका के नाम से ऐसा प्रतीत होता है कि यह विस्तृत परिमाणवाली टीका न होकर दुर्गम स्थलों का विवेचन मात्र है । इसकी एकमात्र ४६ पत्रों की कीटभक्षित प्रति एशियाटिक सोसायटी, कलकता के संग्रह में सुरक्षित है । इसका आद्यन्त इस प्रकार है:आदि- स्मारं स्मारमुदारदारविरहव्याधिव्यथाव्याकुलं,
रामं वारिधिबन्धबन्धुरयशःसम्पृष्टदिङ मण्डलम् । श्रीमद्भोजकृतप्रबन्धजलधी सेतुः कवीनां मुदो
__ हेतुं संरचयामि बन्धविविधव्याख्यातकौतुहलैः ।।१।। अन्त- श्रीरायभट्टतनयेन नयान्वितेन,
धाराधिनाथनृपतेः सुमतेः प्रबन्धे । प्रोचे यदेव वचनं रचनं गुणानां,
वाग्देवताऽपि परितुष्यति तेन माता ॥१॥ कुर्वन्तु कवयः कण्ठे दुष्करार्थसुमालिकाम् ।
लक्ष्मीनाथेन रचितां वाग्देवीकण्ठभूषणे ॥२॥ पुष्पिका- इति श्रीमद्रायभट्टात्मज-श्रीलक्ष्मीनाथभट्ट विरचिता सरस्वतीकण्ठाभरणालङ्कारे दुष्करचित्रप्रकाशिका समाप्ता।
२. प्राकृतपिङ्गल-टीका-इस टीका का नाम पिङ्गलप्रदीप या छन्दःप्रदीप है। इसकी रचना सं. १६५७ में हुई है। प्रौढ एवं प्राञ्जल भाषा में विशद शैली में विवेचन होने से यह टीका छन्दः शास्त्रिों के लिये सचमुच प्रदीप के समान ही है । इसका आद्यन्त इस प्रकार है१. देखें, वृत्तमौक्तिक पृ. २६१, २६४, २६६, २९६, ३०१ आदि