________________ ततो वि य उवट्टित्ता, संसारं बहुं अणुपरियडंति। बहुकम्मलेवलित्ताणं, बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं॥ यह गाथा साधक को सावधान बनाने के लिए पर्याप्त है। कारण से कार्य की उत्पत्ति-जो हमें इहभविक दुःख और सुखमय जीवन दृष्टिगोचर होता है, वह कार्य है। उस का कारण अन्य जन्मकृत पाप और पुण्य है, और जो इहभविक में क्रियमाण अशुभ और शुभ कर्म हैं, वे भविष्यत्कालिक जीवन में होने वाले दुःख-सुख के कारण हैं। कर्मवाद का अर्थ यही होता है कि वर्तमान का निर्माण भूत के आधार पर है, और भविष्य का निर्माण वर्तमान के आधार पर निर्भर है। हमारा कोई कर्म व्यर्थ नहीं जाता। हमें किसी प्रकार का फल बिना कर्म के नहीं मिलता। कर्म और फल का यह अविच्छेद्य सम्बन्ध ही विपाकसूत्र की नींव है। धन्यवाद-प्रस्तुत सूत्र के हिन्दी अनुवादक श्रीयुत पण्डित श्री ज्ञान मुनि जी हैं। आप की श्रुतभक्ति सराहनीय है। बेशक इस सूत्र के लेखन तथा प्रकाशन में अनेकों बाधाएं आगे आईं किन्तु आप ने एडी की जगह पर अंगूठा नहीं रखा, अग्रसर होते ही गए, आखिर में सफलतालक्ष्मी ने सहर्ष आप के कंठ में जयमाला डाली। आप की विपाकसूत्र पर आत्मज्ञानविनोदिनी नामक हिन्दीव्याख्या स्थानकवासी संप्रदाय में अभी तक अपूर्व है, ऐसा मेरा विचार है। सुललित हिन्दी व्याख्या के न होने से बहुत से जिज्ञासुगण उक्त सूत्रविषयक ज्ञान से वंचित रहे हुए थे। अब वह अपूर्णता अनथक प्रयास से आप ने बहुत कुछ पूर्ण कर दी है। एतदर्थ धन्यवाद। कर्ममीमांसा] श्री विपाक सूत्रम् [27