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अनिच्छा से मृत्यु का वरण करने के लिए बाध्य होते हैं। मृत्यु-समय दुर्ध्यान-वश तथा पूर्व दुष्कर्मों के फलस्वरूप उन्हें दुर्गति भोगनी ही पड़ती है। 'अकाम-मरण' को 'बाल-मरण' भी कहा जाता है। बाल-अर्थात् अधार्मिक, असंयमी व कषाय-ग्रस्त अज्ञानी प्राणी।
बाल-मरण से विपरीत पण्डित-मरण या सकाम मरण होता है। धर्मसाधक-अणुव्रती या महाव्रती व्यक्ति-का निर्भय हो मृत्यु का स्वागत करना 'सकाम-मरण' है। निर्भयता की पृष्ठभूमि में मृत्यु के स्वरूप से इनका अवगत होना, दुर्गतिदायक कार्यों से जीवन में बचे रहना तथा अन्त समय में दुर्ध्यान व कषायादि से ग्रस्त न होना आदि होता है। यह सकाम मरण धार्मिक व सुव्रती को सुलभ होता है, अर्थात् इस मरण को कोई बिरले ही पुण्यशाली गृहस्थ व भिक्षु प्राप्त कर पाते हैं। मृत्यु के बाद वे स्व-पुण्यकर्मानुरूप या तो उच्च देव-गति प्राप्त करते हैं, या (भिक्षु) कर्म-क्षय होने की स्थिति में मुक्ति भी प्राप्त करते हैं। इनमें गृहस्थ व्रती श्रावक को 'बालपण्डित मरण', तथा महाव्रती मुनि को 'पण्डित मरण प्राप्त हो सकता है। शेष व्यक्ति-अज्ञानी/मिथ्यात्वसम्पन्न, इन्द्रिय-सुखों में अविवेकपूर्वक-संलग्न, पापरत-हिंसक आदि 'बाल-मरण' ही प्राप्त करते हैं। कुछ अज्ञानी लोग सांसारिक दु:खों से ऊब कर आत्महत्या, अज्ञानवश स्वर्गादि के लाभ हेतु गिरि पतन, अग्नि-प्रवेश आदि कर मृत्यु का वरण करते हैं-वह भी 'बाल मरण' ही कहा जाता है। ___इन दोनों मरणों की गुण-दोष सम्बन्धी तुलना कर, अकाम मरण व बाल मरण को त्याज्य तथा पण्डित मरण या सकाम मरण को उपादेय मानते हुए जीवन को धार्मिक बनाने का प्रयास करना चाहिए तथा मृत्यु-भय का त्याग करते हुए संल्लेखना आदि द्वारा शरीर-त्याग करने के लिए सन्नद्ध भी रहना चाहिए। यह प्रबल प्रेरणा इस अध्ययन में दी गई है। इसके साथ-साथ मृत्यु-सम्बन्धी विशिष्ट ज्ञान भी यहां प्राप्त होता है। इस ज्ञान के सम्यक् उपयोग से जीवन को सार्थक स्वरूप प्रदान करने की शक्ति से सम्पन्न होने के कारण प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है।
अध्ययन-५
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