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६. (अरिष्टनेमि) 'वज्रऋषभनाराच' संहनन तथा 'समचतुरन'
संस्थान वाले थे। उनका उदर मछली के (उदर) जैसा था। केशव (वासुदेव) ने उन (अरिष्टनेमि) के लिए (राजा उग्रसेन से,
उनकी) कन्या राजीमती की भार्या रूप में याचना की। ७. राजा (उग्रसेन) की वह श्रेष्ट कन्या (राजीमती) सुशील, सुन्दर
दृष्टि वाली, समस्त (शुभ) लक्षणों से पूर्ण, तथा विद्युत्-ज्योत्स्ना जैसी शारीरिक कान्ति वाली थी।
८. तब, उस (राजीमती) के पिता (उग्रसेन) ने महान् ऋद्धिसम्पन्न
वासुदेव से कहा- “कुमार (अरिष्टनेमि स्वयं) यहां आएं, तो में उन्हें (अपनी) कन्या दे दूंगा।"
६. (तब अरिष्टनेमि को) सभी औषधियों (के जल) से स्नान
करवाया गया, (वैवाहिक विधि व रीति-रिवाज के अनुरूप) 'कौतुक' व मांगलिक (कार्य) सम्पन्न किये गए। दिव्य वस्त्र-युगल पहनाये गये और आभूषणों से विभूषित किया गया ।
१०. वासुदेव के मदयुक्त ज्येष्ठ ‘गन्धहस्ती' पर, आरूढ़ होकर
(अरिष्टनेमि) सिर पर चूड़ामणि की तरह, अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे।
११. तदनन्तर, वे (अरिष्टनेमि) ऊंचे (उटे हुए) छत्र से तथा (दोनों
ओर ठुलाये जाते हुए) चामरों से सुशोभित हो रहे थे। दशार्ह (यदुवंशी ‘समुद्रविजय' आदि दश भ्राताओं) का समूह-चक्र उन्हें
चारों ओर घेरे हुए था। १२. यथाक्रम से नियोजित (सजाई गई) चतुरंगिणी (हाथी, घोड़े, रथ
और पैदल सैनिक रूप) सेना के साथ और वाद्यों के गगन स्पर्शी दिव्य शब्दों के साथ (उन्होंने) प्रस्थान किया।
अध्ययन-२२
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