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१८३. (वे स्थलचर जीव) 'सन्तति' (प्रवाह-परम्परा) की दृष्टि से अनादि
और अनन्त हैं, (किन्तु एकत्व-वैयक्तिक) 'स्थिति' की दृष्टि से सादि और सान्त (भी) हैं ।
१८४. स्थलचर (जीवों) की (एकभवीय) आयु-स्थिति उत्कृष्टतः तीन
पल्योपम की, तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की होती है।
१८५. स्थलचर जीवों की 'काय-स्थिति' (एक ही काय में निरन्तर
उत्पन्न होते रहने की काल-मर्यादा) उत्कृष्टतः तीन पल्योपम सहित 'पृथक्त्व' करोड़ 'पूर्व' की होती है (अर्थात् एक बार स्थलचर बन कर पुनः उसी काय में करोड़-करोड़ 'पूर्व' की आयु वाले अधिकाधिक अन्य सात भव ग्रहण कर, आठवें भव में युगलियों में तीन पल्य की आयु वाला स्थलचर बन सकता है, उसके बाद स्थलचर नहीं बनता), तथा जघन्यतः (काय-स्थिति) अन्तर्मुहूर्त की होती है।
१८६. स्थलचर जीवों की काय-स्थिति (का उपर्युक्त कथन) है, उनका
(अन्य कायों में उत्पन्न होकर पुनः स्थलचर काय में उत्पन्न होने की स्थिति में, उनके उक्त निष्क्रमण व आगमन के मध्य का) 'अन्तर-काल' उत्कृष्टतः अनन्त काल का, तथा जघन्यतः
अन्तर्मुहूर्त का होता है। १८७.इन (स्थलचरों) के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की
दृष्टियों से (तो) हजारों (अवान्तर) भेद हो जाते हैं ।
अध्ययन-३६
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