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आत्मा
इच्छा-जय :
ऋजुता :
कर्त्तव्य
कर्म
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कषाय
-३/१२
: सोही उज्जुअभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिठ्ठई। सरल आत्मा की विशुद्धि होती है और विशुद्ध आत्मा में ही धर्म टिकता है।
परिशिष्ट
:
काम-भोग :
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छंद निरोहेण उवेइ मोक्खं ।
कामनाओं के निरोध से मुक्ति प्राप्त होती है।
मायाविजएणं अज्जवं जणयई ।
-२६/६६
माया को जीत लेने से ऋजुता (सरल भाव) प्राप्त होती है।
- १८/३३
किरिअं च रोयए धीरो।
धीर पुरुष सदा कर्त्तव्य में रुचि रखते हैं।
कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि ।
कृत कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं है।
-४/८
- १३/२३
कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं । कर्म कर्त्ता का अनुसरण करते हैं-उसका पीछा नहीं छोड़ते।
विहुणाहि रयं पुरे कडं ।
पूर्वसंचित कर्म-रूपी रज को झटक दो।
-२६/६६
कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । वइसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ।। -२५/३३ कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय । कर्म से ही वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है।
सकम्मुणा किच्चइ पावकारी ।
पापात्मा अपने ही कर्मों से पीड़ित होता है।
- १०/३
-४/३
-२३/५३
कसाया अग्गिणो वुत्ता, सुय सील तवो जलं । कषाय को अग्नि कहा गया है। उसको बुझाने के लिए ज्ञान, शील, सदाचार और तप जल है।
कामे पत्थेमाणा अकामा जंति दुग्गइं।
-६/५३
काम भोग की लालसा में प्राणी, एक दिन उन्हें बिना भोगे ही दुर्गति में चला जाता है।
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