Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

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Page 908
________________ मोह राग-द्वेष : लोभ : दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो। -३२/८ जिसे मोह नहीं होता उसका दु:ख नष्ट हो जाता है। ममत्तं छिन्दए ताहे, महानागोव्व कंचुय। -१६/६७ आत्मसाधक ममत्व के बंधन को तोड़ फैंके, जैसे कि सर्प शरीर पर आई हुई कैंचुली को उतार फेंकता है। रागो य दोसो वि य कम्मबीयं। -३२/७ राग और द्वेष, ये दो कर्म के बीज हैं। जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई। दोमासकयं कज्ज, कोडीए वि न निट्ठिय।। -८/१७ ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता है। इस प्रकार लाभ से लोभ निरन्तर बढ़ता ही जाता है। दो मात्रा सोने की अभिलाषा करने वाला करोड़ों से भी सन्तुष्ट नहीं हो पाता। लोभाओ दुहओ भयं। -६/५४ लोभ से इस लोक और परलोक-दोनों में ही भय-कष्ट होता है। लोभाविले आययई अदत्तं।। -३२/२६ जब आत्मा लोभ से कलुषित होता है तो चोरी करने में प्रवृत्त होता है। खुड्डेहिं सह संसग्गिं, हासं कीडं च वज्जए। -१/६ क्षुद्र लोगों के साथ संपर्क, हंसी मजाक, क्रीड़ा आदि नहीं करनी चाहिए। नापुट्ठो, वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए। -१/१४ बिना बुलाये बीच में कुछ नहीं बोलना चाहिए, बुलाने पर भी असत्य जैसा कुछ न कहे। बहुयं मा य आलवे। -१/१० बहुत नहीं बोलना चाहिए। वचन गुप्तिः ८७८ उत्तराध्ययन सूत्र

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