Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

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Page 913
________________ उत्तराध्ययन सूज : जिजामा समाधान SHO जिज्ञासा मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है। यह मनुष्य के ज्ञान का आधार भी है। ज्ञान-प्राप्ति की प्रक्रिया जिज्ञासा से ही आरम्भ होती है। यूं तो इसका सम्बन्ध त्रिकाल से है परन्तु विशेष रूप से भविष्य को जानने के लिये मनुष्य सदैव उत्सुक रहता है। वह जानना चाहता है कि कल क्या होगा? उसका सोचा हुआ कार्य सिद्ध होगा या नहीं? आगामी समय उसके लिये कैसा है? भविष्य के गर्भ में क्या है? उसकी अमुक समस्या या प्रश्न का क्या समाधान होगा? ये तथा इसी प्रकार की अन्य जिज्ञासाओं के समाधान पाने के लिये मनुष्य विविध प्रयास करता है। भविष्यवक्ताओं के पास जाता है। पुस्तकें पढ़ता है। चर्चायें करता है। वार्तायें सुनता है। इस प्रयास में वह भटकता भी है। ठगा भी जाता है। उसका समय और धन भी व्यर्थ होता है परन्तु इतना सब होने पर भी वह प्रयास नहीं छोड़ता। कारण यह है कि जिज्ञासा उक्त सभी दुर्घटनाओं से कहीं अधिक प्रबल होती है। भवितव्यता विचित्र होती है। वह अपने अनुसार ही घटित होती है। मनुष्य की इच्छा से उसका नियंत्रण/संचालन नहीं होता। यदि वह सुखद हो तो मनुष्य उसके प्रति आकर्षित होता है। प्रसन्नतापूर्वक उस से समायोजित हो जाता है परन्तु यदि वह दु:खद हो तो मनुष्य उस से प्रायः विचलित हो जाता है। वेदना भोगता है। उस से समायोजित नहीं हो पाता। अपनी मनः स्थिति को सम्भाल नहीं पाता। इस से उसकी वेदना और बढ़ जाती है। यदि वह भविष्य को जान ले या भवितव्यता (कर्म-विधान) को समझ ले तो अपनी मन: स्थिति को सुलझा सकता है। सम्भाल सकता है। मन के सुलझ जाने पर घटना, चाहे अनुकूल घटे या प्रतिकूल, उसके लिये उतनी कष्टकारी नहीं रह जाती। भवितव्यता से समायोजित होने के लिये व्यक्ति परिशिष्ट ८८३

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