Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

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Page 906
________________ नश्वरता पांडित्य : वण्णं जरा हरइ नरस्स रायं! -१३/२६ राजन्! जरा मनुष्य की सुन्दरता को समाप्त कर देती है। न चित्ता तायए भासा, कुओ विज्जाणुसासणं। -६/११ विविध भाषाओं का पाण्डित्य मनुष्य को दुर्गति से नहीं बचा सकता। फिर विद्याओं का अनुशासन-अध्ययन किसी को कैसे बचा सकेगा? वेया अहीया न हवन्ति ताणं। -१४/१२ अध्ययन कर लेने मात्र से वेद (शास्त्र) रक्षा नहीं कर सकते। असंविभागी अचियत्ते, पावसमणे त्ति वुच्चई। -१७/११ जो श्रमण असंविभागी है (प्राप्त सामग्री को साथियों में बांटता नहीं है, और परस्पर प्रेमभाव नहीं रखता है), वह 'पाप श्रमण' कहलाता है। पाप श्रमण : प्रज्ञा प्रमाद भुच्चा पिच्चा सुहं सुवई, • पावसमणे त्ति वुच्चई। -१७/३ जो श्रमण खा-पीकर खूब सोता है, समय पर धर्माराधना नहीं करता, वह पाप श्रमण कहलाता है। पन्ना समिक्खए धम्म। -२३/२५ साधक स्वयं की प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा करे। असंखयं जीवियं मा पमायए। -४/१ जीवन का धागा टूटने पर पुनः जुड़ नहीं सकता-वह असंस्कृत है, इसलिए प्रमाद मत करो। अज्झत्थ हेउं निययस्स बंधो। -१४/१६ अंदर के विकार ही वस्तुत: बंधन के हेतु हैं। न ओंकारेण बंभणो। -२५/३१ ओंकार का जाप करने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता। बंभचेरेण बंभणो। -२५/३२ ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण (पद प्राप्त) होता है। बन्धन ब्राह्मण म ब्राह्मण ८७६ उत्तराध्ययन सूत्र

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