Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

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Page 905
________________ तपस्वी : तृष्णा कुसचीरेण न तावसो।। -२५/३१ वल्कल वस्त्र धारण करने से कोई तापस नहीं होता। तवेणं होइ तावसो॥ -२५/३२ तपस्या से (साधक) तापस होता है। जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य। एमेव मोहाययणं खु तण्हा, मोहं च तण्हाययणं वयन्ति।। -३२/६ जिस प्रकार बलाका (बगुली) अंडे से उत्पन्न होती है और अण्डा बलाका से, इसी प्रकार मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है और तृष्णा मोह से। भवतण्हा लया वुत्ता, भीमा भीमफलोदया। -२३/४८ संसार की तृष्णा भयंकर फल देने वाली विष-बेल है। न सिया तोत्तगवेसए। -१/४० दूसरों के छल-छिद्र नहीं देखने चाहिये। वेराणुबद्धा नरयं उवेंति। -४/२ जो वैर की परम्परा को लम्बी किये रहते हैं, वे नरक प्राप्त करते दोष-दर्शन: द्वेष नश्वरता : अणिच्चे जीवलोगम्मि किं हिंसाए पसज्जसि? -१८/११ जीवन अनित्य है, क्षणभंगुर है। फिर क्यों हिंसा में आसक्त होता घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खी व चरेऽप्पमत्ते। -४/६ काल भयंकर है और शरीर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण हो रहा है। अत: भारंड पक्षी की तरह सदा सावधान होकर विचरण करना चाहिए। जीवियं चेव रूवं च, विज्जुसंपायचंचल। -१८/१३ जीवन और रूप-सौन्दर्य बिजली की चमक की तरह चंचल हैं। नश्वरता : परिशिष्ट ६७५

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