Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

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Page 902
________________ अभय अविनीत : अस्तेय : अहिंसा आत्मा सीहो व सद्देण न सन्तसेज्जा। -२१/१४ (साधक) सिंह के समान निर्भीक रहे। हियं तं मण्णई पण्णो, वेसं होइ असाहुणो। -१/२८ प्रज्ञावान् शिष्य गुरुजनों की जिन शिक्षाओं को हितकर मानता है, दुर्बुद्धि दुष्ट शिष्य को वे ही शिक्षाएं बुरी लगती हैं। दन्तसोहण-माइस्स, अदत्तस्स विवज्जणं। -१६/२८ दांत शोधन के लिये तिनका भी (साधक) बिना पूछे न ले। न य वित्तासए परं। -२/२० किसी भी प्राणी को त्रास नहीं पहुंचाना चाहिए। अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ।। -२०/३७ आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है। सदाचार में प्रवृत्त आत्मा मित्र है और दुराचार में प्रवृत्त होने पर वही शत्रु है। अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नन्दणं वणं।। -२०/३६ आत्मा स्वयं ही वैतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष के समान (दु:खप्रद) है और आत्मा ही कामधेनु और नन्दन वन के समान (सुखदायी) भी है। अविसंवायणसंपन्नयाए णं जीवे, धम्मस्स आराहए भवइ। -२६/४८ दम्भरहित, अविसंवादी आत्मा ही धर्म का सच्चा आराधक होता है। एगप्पा अजिए सत्तू। -२३/३८ अपना ही अविजित असंयत आत्मा अपना शत्रु है। नत्थि जीवस्स नासोत्ति। आत्मा का कभी नाश नहीं होता। नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो। -१४/१६ आत्मा आदि अमूर्त तत्त्व इंद्रियग्राह्य नहीं होते और जो अमूर्त होते हैं वे अविनाशी-नित्य भी होते हैं। -२/२७ ८७२ उत्तराध्ययन सूत्र

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