Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

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Page 900
________________ जयघोष-विजयघोष वाराणसी-वासी काश्यपगोत्रीय वैदिक संस्कृति के अनुयायी जयघोष ने एक सुबह गंगा-तट पर देखा-कीड़े-मकोड़ों को मेंढ़क, मेंढ़क को सर्प और सर्प को कुरर पक्षी ने खाने के लिये दबोच रखा है। सोचाकाल सबके पीछे है। कब किसको दबोच ले, कुछ पता नहीं। सोचते हुए वे सत्य की खोज में निकले और अहिंसा-मार्ग को अपनाया। मुनि दीक्षा ली। मासखमण तप करने लगे। पारणे हेतु अपने संसार-पक्षीय अनुज विजयघोष की यज्ञ-शाला में पहुंचे। कृश होने से पहचाने न गये। ब्राह्मणों ने उनका तिरस्कार किया। यज्ञ-कर्ताओं के उद्धार हेतु मुनि ने धर्म चर्चा की। बतलाया कि वास्तविक यज्ञ क्या है और सच्चा ब्राह्मण कौन होता है। ज्ञान-लाभ पाकर यज्ञ-कर्ताओं ने समझा कि ब्राह्मण जन्म से नहीं, कर्म से होता है। हिंसा से यज्ञ नहीं, तप से यज्ञ होता है। सम्बोधि पाकर विजयघोष ने श्रमण-दीक्षा ली। जयघोष-विजयघोष, दोनों ने घोर तप किया। दोनों सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुए। सचमुच! खुले मन से सत्य-ज्ञान पर ध्यान दिया जाये तो आत्म-कल्याण में देर नहीं होती। (अध्ययन-25) गर्गाचार्य स्थविर गर्गाचार्य रत्नत्रय-धारक मुनिराज थे। ज्ञान के वे सागर थे। उनके पांच सौ शिष्य थे। उन में से एक भी सविनीत न था। उनमें से किसी ने भी गुरु-सेवा न की। गुरु-आज्ञा व गुरु-प्रेरणा का उनके लिये कोई अर्थ न था। वे स्वाध्याय, ध्यान आदि से विहीन हो गये थे। गर्गाचार्य ने चिन्तन कर शिष्यों को उसी प्रकार छोड़ दिया जैसे घर-संसार छोड़ा था। शिष्यों को छोड़ वे एकाकी शुद्ध संयम-साधना करने लगे। अन्ततः उन्हें कैवल्य व मोक्ष प्राप्त हुआ। सचमुच! मोह-तिमिर से निकल कर ही परम प्रकाश पाया जाता है। (अध्ययन-27) 00 ८७०। उत्तराध्ययन सूत्र

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