Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

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Page 898
________________ कोटीश्वर सेठ धनसंचय के पुत्र-रूप में अपार सुख भोग रहा था। मेरे नेत्रों में भयंकर पीड़ा हुई, जिसका उपचार देश-विदेश के वैद्य न कर सके। वह अनाथ अवस्था थी। श्रमण-दीक्षा संकल्प से पीड़ा शांत हुई। मेरा धर्म 'नाथ' बना। इस से श्रेणिक के अंत: चक्षु खुले। जैन धर्म में आस्था जागी। कालान्तर में उन्होंने तीर्थंकर नाम-गोत्र उपार्जित किया। सचमुच! सांसारिकता की अनाथता सहते व्यक्ति के लिये धर्म ही शरण है। (अध्ययन-20) समुद्रपाल चम्पा नगरी के सम्पन्न श्रावक थे-पालित। एक बार वे व्यापार हेतु समुद्रपार देश में गये। वहां पिहुण्ड नगर वासी व्यापारी ने अपनी पुत्री का उन से विवाह कर दिया। व्यापार सम्पन्न कर वे लौट रहे थे। सागर-यात्रा-रत जहाज में उनकी पत्नी ने पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम समुद्रपाल रखा गया। युवा होने पर समुद्रपाल ने देवतुल्य सुख भोगते हुए महल के गवाक्ष से एक मृत्युदण्ड-प्राप्त अपराधी को वधस्थल की ओर ले जाये जाते देखा। कर्म और उनके फल के विषय में चिन्तन करते हुए वैराग्य का अमृत-स्पर्श पाया। दीक्षा ली। साधना की। सभी कर्मों का क्षय कर वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुए। सचमुच! भव्य आत्माओं के सम्यक् राह पर बढ़ने के लिये एक दृश्य भी पर्याप्त होता है। (अध्ययन-21) राजीमती-रथनेमि शौर्यपुर-नरेश समुद्रविजय व रानी शिवादेवी के पुत्र थे-अरिष्टनेमि। इन की माता ने चौदह दिव्य स्वप्न देखे थे जो इनके तीर्थंकर होने की सूचना थे। अरिष्टनेमि के युवा होने पर उनके मौन को स्वीकृति मान उनका विवाह राजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती से निश्चित कर दिया गया। वधू-पक्ष ने बाराती-सत्कार व भोजन हेतु बाड़ों-पिंजरों में पशु-पक्षी बन्द कर रखे थे। पशु-पक्षियों की भयातुर चीख-पुकार को अरिष्टनेमि ने सुना। उन्होंने सब पशु-पक्षियों को मुक्त करवा दिया। भय और हिंसा का मूल नष्ट करने अरिष्टनेमि निकल पड़े। वे दीक्षित हो ८६८ उत्तराध्ययन सूत्र

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