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वे देव थे। उस से पूर्व वे मेघरथ नामक राजा रहे जो करुणा के साक्षात् प्रतिरूप थे। सम्राट मेघरथ ने शरणागत कबूतर की शिकारी बाज से रक्षा करने के लिये बाज को अपनी देह का मांस स्वयं काट कर दिया। देव-माया से वजन बराबर न होने पर अंततः वे स्वयं पलड़े में बैठ गये। परीक्षा लेने आया देव पराजित होकर चरण-नत हुआ। महाराज मेघरथ की त्रिलोक व्यापी जय-जयकार हुई। उसी भव में उन्होंने तीर्थंकर नाम-गोत्र उपार्जित किया। शांतिनाथ भव में हस्तिनापुर-नरेश बनने पर छह खण्डों पर विजय पताका फहरा कर चक्रवर्ती पद पाया। सुदीर्घ काल तक राजनीति का आदर्श जीने के उपरान्त लोकांतिक देवों की प्रार्थना पर राज्य समृद्धि त्याग कर श्रमण-दीक्षा ली। अल्प काल में ही कैवल्य-ज्ञान का परम प्रकाश पाया। चतुर्विध धर्म-संघ की स्थापना कर सुदीर्घ काल तक जीव-जीव का कल्याण किया। अन्त में सम्मेद शिखर पर नौ सौ सन्तों के साथ देह विसर्जित की और वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुए।
(अध्ययन-18/38) भगवान् श्री कुन्यूनाथ चक्रवर्ती
हस्तिनापुर के ईक्ष्वाकुवंशीय सम्राट् सूर एवम् महारानी शिवादेवी के पुत्र और परम गौरव थे-कुन्थनाथ। प्रभु के गर्भ में आते ही हस्तिनापुर राज्य के विरोधी सभी राजा कुन्थु के समान निस्तेज हो गए। इस कारण उनका नाम कुन्थुनाथ रखा गया। हस्तिनापुर सम्राट के रूप में महाराज कुन्थुनाथ ने छह खण्डों का स्वामित्व पाकर पृथ्वी को सुव्यवस्थित शासन प्रदान किया। लोकान्तिक देवों की प्रार्थना से जगत्-कल्याण के लिये महान् ऋद्धि-समृद्धि को तृणवत् त्याग कर आहती दीक्षा अंगीकार की। अल्प समय में कैवल्य पाया। धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन किया। रूखी-सूखी धरा पर धर्म-सुधा बरसाई। एक हज़ार सन्तों के साथ सम्मेद शिखर पर देह विसर्जित की। सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो उन्होंने परम पद पाया।
(अध्ययन-18/39)
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