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कि उनका सौंदर्य आभूषणों पर निर्भर है। चिन्तन गतिशील हुआ। शरीर व संसार की नश्वरता अनुभव की। वहीं सब कुछ त्याग दिया। ज्ञान-दर्शन-चारित्र व मोक्ष की ओर बढ़े। केवल ज्ञान पाया। अनेक वर्षों तक ज्ञान-सुधा से धरा सिंचित् की। अन्त में सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुए।
(अध्ययन-18/34) सगर चक्रवर्ती
भगवान् ऋषभदेव के इक्ष्वाकु वंश व अयोध्या में युवराज सुमित्र व युवराज्ञी यशोमती के घर सागर-पर्यन्त सम्पूर्ण पृथ्वी पर शासन करने वाले द्वितीय चक्रवर्ती जन्मे। द्वितीय तीर्थंकर भगवान् अजितनाथ ने अपने चचेरे भाई व युवराज सगर को शासन सौंप कर दीक्षा ली थी। सम्राट् सगर ने विशाल सेना सहित छहों खण्डों पर विजय पताका फहरा कर विश्व को एक सूत्र में पिरोया। उनके साठ हजार पुत्र थे। एक बार वे अष्टापद पर्वत पहुंचे। उस की सुरक्षा के लिये पर्वत के चारों ओर दण्डरत्न से खाई खोदने लगे। खाई इतनी गहरी खुदी कि पृथ्वी के नीचे नागकुमार देवों के भवन क्षतिग्रस्त होने लगे। वे कुपित हुए। दृष्टि-विष सर्पो के माध्यम से सभी को स्वाहा कर दिया। साठ हज़ार पुत्रों के वियोग ने सम्राट सगर को शोकाकुल कर दिया। उन्होंने अनुभव किया-'एकोऽहं' अर्थात् मैं अकेला हूं। ममत्व छूट गया। आंसू सूख गये। श्रमण-दीक्षा ली। कठोर साधना की। सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर वे परम सार्थकता पा गए।
(अध्ययन-18/35) मघवा चक्रवर्ती
तृतीय चक्रवर्ती सम्राट् मघवा श्रावस्ती-नरेश समुद्रविजय व महारानी भद्रा के यहां जन्मे। पिता के छोटे से राज्य को इन्होंने अपने पराक्रम से छह खण्ड के साम्राज्य में रूपान्तरित किया। विश्व के सर्वोत्तम कहे जाने वाले सुख भोगते हुए इन्होंने आचार्य धर्मघोष का प्रवचन सुन सत्य को पहचाना। विरक्त हुए और साम्राज्य को एक क्षण में छोड़ कर श्रमण-धर्म के महामार्ग पर बढ़ चले। शुद्ध संयम की आराधना की। अनेक भव्य जीवों का कल्याण किया। अन्त में आयुष्य पूर्ण कर तृतीय देवलोक में सनत्कुमार देव-रूप में जन्म लिया। अगले ही भव में वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे। (अध्ययन-18/36)
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