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२४७-२४८. (यह कथन 'आनत' देवलोक से नीचे के देवलोक से
सम्बन्धित समझना चाहिए) 'आनत' आदि, नव ग्रैवयक देवों व अनुत्तरविमानवासी देवों का जघन्यतः अन्तर-काल 'पृथक्' वर्ष-प्रमाण (२ से ६ तक की संख्या में) होता है, और उत्कृष्टतः अन्तर-काल ‘आनत' आदि, नव 'ग्रैवयकों में अनन्त काल का, तथा अनुत्तर-विमानवासी देवों में संख्येय सागरों का होता है।
२४६.इन (देवों) के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टियों
से (तो) हजारों (अवान्तर) भेद हो जाते हैं।
२५०.इस प्रकार, संसारी और सिद्ध जीवों का निरूपण कर दिया गया
है। रूपी और अरूपी-इन दो प्रकार के 'अजीवों' का (भी) कथन कर दिया गया है।
२५१. इस प्रकार, जीव व अजीव (के स्वरूपादि से सम्बन्धित उपर्युक्त
समग्र कथन) का श्रवण कर तथा हृदय में (उसका श्रद्धान करके, (ज्ञान-नय, क्रिया-नय आदि के) अन्तर्गत-नैगमादि सभी नयों-दृष्टियों-से अनुमत मान्य एवं उत्सर्ग-अपवाद, विधि-निषेध के विचार-पूर्वक) संयम (चारित्र) में मुनि रमण करे- श्रद्धा व
ज्ञान को चारित्र में परिणत करे। २५२.इसके अनन्तर, अनेक वर्षों तक, श्रमण-धर्म (श्रमण-चर्या) का
पालन कर, मुनि इस (वक्ष्यमाण) क्रम-योग से आत्मा को कृश करे- (संलेखना द्वारा) कषायों को कृश करे ।
अध्ययन-३६
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