Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

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Page 873
________________ F 800 XO २५३.बारह वर्षों की संलेखना उत्कृष्ट (कोटि की) होती है । एक वर्ष की (संलेखना) मध्यम, तथा छः मास की (संलेखना) जघन्य (कोटि की ) होती है । २५४. (बारह वर्षों की उत्कृष्ट संलेखना के क्रम में मुनि को चाहिए कि वह) पहले चार वर्षों में (दूध आदि) विकृतियों का परित्याग करे, दूसरे चार वर्षों में (बेला, तेला आदि) विविध (या विचित्र) तपश्चर्याएं करे | २५५.उसके बाद, दो वर्षों तक एकान्तर तप (एक दिन उपवास, फिर एक दिन आचाम्ल) करके, फिर छः महीनों तक कोई अतिविकृष्ट (विकट-चोला, तेला आदि) तपस्याएं न करे । २५६.इस (प्रकार, साढ़े दस वर्षों के बीत जाने के बाद, (मुनि) छः महीनों तक (तेला, चोला आदि) विकृष्ट तपस्याएं करे । उस (पूरे) वर्ष में (ग्यारहवें वर्ष के प्रथम छः महीनों में साधारण तपस्या करते हुए, तथा अन्तिम छः महीनों में विकट तपस्याएं करते हुए) 'परिमित' आचाम्ल (तप की पारणा पर सीमित आचाम्ल) करे । (उक्त कथन से यह भी ध्वनित होता है कि ग्यारहवें वर्ष में परिमित - थोड़े ही आचाम्ल करे, बारहवें वर्ष में तो निरन्तर आचाम्ल करें ।) २५७.(बारहवें) वर्ष में कोटि-युक्त (अर्थात् निरन्तर) आचाम्ल करे, (बारहवें वर्ष की समाप्ति से एक मास या पन्द्रह दिन पूर्व ही ) पक्ष या एक मास के आहार (के त्याग) से (अनशन) तप करे (अर्थात् पाक्षिक या मासिक भक्त-प्रत्याख्यान- -चतुर्विध आहार-त्याग, संथारा ग्रहण करे, और अंतिम आराधना में तत्पर हो) । २५८.कान्दर्पी, आभियोगी, किल्विषिकी, मोही और आसुरी - ये (पांच दुर्भावनाएं) दुर्गति (की कारण होने से दुर्गतिरूप) हैं, और मृत्यु (के समय) पर (संयम-चरित्र की) विराधिका होती हैं। জংzure अध्ययन- ३६ ८४३ फ्र

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