________________
१६६. (उक्त मनुष्य) 'सन्तति' (प्रवाह-परम्परा) की दृष्टि से अनादि
और अनन्त हैं (किन्तु एकत्व-वैयक्तिक) 'स्थिति' की दृष्टि से सादि और सान्त (भी) हैं।
। २००. मनुष्यों की (एकभवीय) आयु-स्थिति उत्कृष्टतः तीन पल्योपम की
तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की होती है।
२०१. (उनकी काय-स्थिति) उत्कृष्टतः तीन पल्योपम सहित ‘पृथक्त्व,
पूर्व कोटि' की होती है (अर्थात् मनुष्यभव में जन्म लेकर, उसी मनुष्य-भव में निरन्तर जन्म लेता रहे तो अधिक से अधिक सात भव करोड़-करोड़ 'पूर्व' की आयु वाले प्राप्त कर, आठवें भव में तीन पल्योपम की उत्कृष्ट आयु वाला युगलिया बन सकता है, बाद के भव में वह मनुष्य-जन्म नहीं पाता, अपितु देव बनता है)। (उनकी काय-स्थिति) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की होती है।
२०२.मनुष्यों की काय-स्थिति (का उपर्युक्त कथन) है। उनका (अन्य
कायों में उत्पन्न होकर पुनः मनुष्य-काय में उत्पन्न होने की स्थिति में, उनके उक्त निष्क्रमण व आगमन के मध्य का) 'अन्तर-काल' उत्कृष्टतः अनन्त काल का, तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त का होता है।
२०३. इन (मनुष्यों) के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टियों
से (तो) हजारों (अवान्तर) भेद हो जाते हैं ।
। २०४. देवों के चार भेद होते हैं, उन्हें मैं कह रहा हूँ सुनो। (वे भेद
इस प्रकार हैं-) (१) भवनवासी (भवनपति), (२) व्यन्तर (वानव्यन्तर), (३) ज्योतिष्क (ज्योतिषी), और (४) वैमानिक ।
अध्ययन-३६
८२७