Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

Previous | Next

Page 856
________________ मूल : संतई पप्प णाईया, अपज्जवसियावि य । ठिइं पडुच्च साईया, सपज्जवसियावि य ।। १६६ ।। सन्ततिं प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिका, सपर्यवसिता अपि च ।। १६६ ।। संस्कृत : मूल : संस्कृत : पलिओवमाइं तिन्नि य, उक्कोसेण वियाहिया । आउठिई मणुयाणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ।। २०० ।। पल्योपमानि त्रीणि च, उत्कर्षेण व्याख्याता। आयुः स्थितिर्मनुजानाम्, अन्तर्मुहूर्त जघन्यका ।। २०० ।। पलिओवमाइं तिन्नि उ, उक्कोसेण वियाहिया। पुवकोडिपुहुत्तेण, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ।। २०१ ।। पल्योपमानि त्रीणि तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । पूर्वकोटिपृथक्त्वेन, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका ।। २०१।। मूल : संस्कृत : मूल : कायठिई मणुयाणं, अंतरं तेसिमं भवे । अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ।। २०२ ।। कायस्थितिर्मनुजानाम्, अन्तरं तेषामिदं भवेत् । अनन्सकालमुत्कृष्टम्, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यकम् ।। २०२ ।। संस्कृत : मूल : एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ। संटाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ।। २०३ ।। एतेषां वर्णतश्चैव, गन्धतो रसस्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ।। २०३ ।। संस्कृत : मूल : देवा चउबिहा वुत्ता, ते मे कित्तयओ सुण । भोमिज्ज-वाणमंतरा, जोइस वेमाणिया तहा ।। २०४ ।। देवाश्चतुर्विधा उक्ताः, तान् मे कीर्तयतः श्रृणु । भौमेया व्यन्तराः, ज्योतिष्का वैमानिकास्तथा ।। २०४ ।। संस्कृत : ८२६ उत्तराध्ययन सूत्र

Loading...

Page Navigation
1 ... 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918 919 920 921 922