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२४. (उक्त कर्मों के) अनुभाग (रस-विशेष,) सिद्ध आत्माओं के
अनन्तवें भाग जितने परिमाण (एवं अनन्त रूप) वाले होते हैं। सभी अनुभागों का प्रदेश-परिमाण समस्त- (भव्य व अभव्य) जीवों (की संख्या) से (अनन्तगुणा) अधिक होता है।
२५. इसलिए, इन कर्मों के अनुभागों (अनुभाग-बन्ध व उसके
शुभाशुभ परिणामों) को (साथ ही, प्रकृतिबन्ध, स्थिति-बन्ध व प्रदेश- बन्धों को भी) जान कर, पण्डित (तत्वज्ञ साधक) इनके 'संवर' (बन्ध-निरोध) तथा (बद्ध कर्मों के) क्षय (निर्जरा) के लिए (अवश्य) प्रयत्न करे। - ऐसा मैं कहता हूँ।
टिप्पण क्रमतः
१. ज्ञानावरणीय-आत्मा के ज्ञान-गुण रूप स्वभाव को आवृत्त कर देने वाली कर्म-वर्गणाएँ
या कर्म-अणु । सूर्य के प्रकाश को आच्छादित करने वाले मेघ-पटल की तरह
यह कर्म आत्मा के 'ज्ञान' गुण को आवृत्त करता है। २. दर्शनावरणीय- आत्मा के 'दर्शन' (पदार्थ-सम्बन्धी सामान्य सत्तात्मक बोध) गुण
रूप स्वभाव को आवृत्त कर देने वाली कर्म-वर्गणाएं या कर्म-अणु। राजा के दर्शन में व्यवधान पैदा करने वाले द्वारपाल से इसकी उपमा दी जाती है। ३. वेदनीय- संसारी आत्मा को सुख-दुःख देने वाली बाय-कारण-सामग्री उपस्थापित
कर देने वाला कर्म । इसके द्वारा उपस्थापित सामग्री का बाह्य निमित्त पाकर, 'मोहनीय कर्म' के उदय से सुख या दुख की अनुभूति आत्मा को होती है। मधु से लिप्त असि-धारा (जिसको चाटने से सुख-दुःख-मिश्रित या दुःख-बहुल सुख की अनुभूति होती है) से इसकी समानता की जाती है। मोहनीय-आत्मा को सदासद्विवेक/ कर्तव्य-अकर्तव्यविचार से भ्रमित कराने वाली मूढ़ता उत्पन्न कर, उसके सम्यक्त्व व चारित्र गुण को विकृत करने वाला कर्म । इसकी तुलना मदिरा से की गई है।
अध्ययन-३३
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