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भेद-प्रभेद, स्थान, समय आदि का ज्ञान प्राप्त कर ले। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान की दृष्टि से उन में होने वाले परिवर्तनों को हृदयंगम कर ले। द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव, सभी पक्षों से उनके होने का अर्थ अनुभव कर ले। संसार का सत्य देख ले। जीव और अजीव के संयोग की निरर्थकता पहचान ले। इस पहचान के आधार पर जीव की अजीव से मुक्ति का दर्शन, आचरण की या संयम की भाषा में व्यंजित करे।
जीव और अजीव, दोनों को सभी दृष्टियों से उनके भेद-प्रभेदों सहित जानना वस्तुतः अहिंसा के विज्ञान को जानना है। अहिंसा एक प्रक्रिया है। जीवन-शैली है। इसका आधार है-जीव-अजीव का भेद-विज्ञान। दोनों के सम्यक् रूपों को जो जानता ही नहीं, वह उन्हें बचायेगा क्या? हिंसा ज्ञात-अज्ञात, प्रत्यक्ष-परोक्ष रूपों में उसके जीवन में रहेगी ही। भगवान् महावीर ने इसीलिये अहिंसा को ज्ञान का सार कहा। इस अंतिम अध्ययन में अहिंसा और ज्ञान का सम्बन्ध स्पष्टतः उद्घाटित किया।
आत्मा का शुद्धतम स्वरूप क्या है? कितने प्रकार का है? कब और कैसे प्राप्त हो सकता है? यह जानना साधक द्वारा अपने साध्य को पूर्णतः जानना है। उसे सदैव ध्यान में रखते हुए वह अपने जीवन में जीवाजीव-विभक्ति को साकार कर सकता है। साधना को पूर्णतः जी सकता है। 'अहिंसा' शब्द को सार्थक कर सकता है। सिद्ध जीवों के साथ-साथ त्रस और स्थावर रूप सभी संसारी जीवों के चारों गतियों में होने वाले रूपों को जानना सत्य को जानना है। यह लोक का सत्य भी है और जीव का सत्य भी। इसी से साधक अपना सत्य पाता है। आत्मा को अजीव से मुक्त करने की दृष्टि से ही जीना धर्म है। _जीव-अजीव के सभी रूपों के वर्णन के माध्यम से वास्तव में इस मार्ग की ही विवेचना यहां हुई है। साथ ही अशुभ भावनाओं का परिचय देते हुए साधक को उन से सचेत किया गया है। मृत्यु को संल्लेखना-समाधि या पंडित-मरण के माध्यम से सार्थक जीवन स्रोत बना देने की कला भी परिभाषित की गई है। इस अध्ययन को जैन धर्म और जैन विज्ञान का सार भी कहा जा सकता है।
परित्त-संसारी होने या मुक्ति-मार्ग पर बढ़ने के लिये अनिवार्य सभी साधनों का ज्ञान सुलभ कराने के साथ-साथ ज्ञान को प्रबल प्रेरक शक्ति के समान प्रदान करने के कारण भी भगवान् महावीर की अंतिम देशना के इस अंतिम अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है।
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अध्ययन-३६
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