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२६. क्रोध, मान, माया व लोभ की अत्यन्त अल्पता वाला,
प्रशान्त-चित्त (उपशम-परिणाम-युक्त), इन्द्रियजयी, (प्रशस्त) योगों से सम्पन्न, (श्रुताराधना के समय की जाने वाली-तपश्चर्या) से युक्त,
३०. अत्यल्प (परिमित) भाषण करने वाला, उपशान्त, जितेन्द्रिय, तथा
इन (पूर्वोक्त प्रशस्त) व्यापारों से युक्त (व्यक्ति) पद्मलेश्या में (स्वयं को) परिणत करता है (या परिणत हो जाता है)।
३१. (जो) आर्त व रौद्र (इन अप्रशस्त ध्यानों) को छोड़कर धर्म व
शुक्ल (इन दो प्रशस्त ध्यानों) में ध्यानलीन रहता है, तथा प्रकृष्ट उपशम-युक्त चित्त वाला, दान्त, (पांच) समितियों का आराधक,
एवं (तीन) गुप्तियों से गुप्त है३२. सराग (अवस्था में अल्पकषायी) या वीतराग (अवस्था में
कषाय-निर्मुक्त) हो, (किन्तु) उपशान्त व इन्द्रियजयी है, तथा इन (पूर्वोक्त प्रशस्त) व्यापारों से युक्त है, वह (आत्मा) शुक्ल लेश्या में (स्वयं को) परिणत करता है (या परिणत हो जाता है)।
३३. असंख्येय अवसर्पिणी और (असंख्येय) उत्सर्पिणी (काल) के जो
(जितने) संमय हैं, अथवा असंख्यात लोक (के जितने आकाशीय प्रदेश) हैं, (उतने ही) लेश्याओं के स्थान (शुभ लेश्याओं की विशुद्धि-सम्बन्धी तरतमताओं तथा अशुभ लेश्याओं की संक्लेश सम्बन्धी तरतमताओं से पूर्ण भूमिकाओं के -काल व क्षेत्र की
दृष्टियों से- परिमाण) होते हैं। ३४. कृष्ण लेश्या की जघन्य (कम से कम) स्थिति मुहूर्तार्ध' की होती
है, और उत्कृष्ट (स्थिति) एक मुहूर्त (अन्तर्मुहूर्त) अधिक तेंतीस सागरोपम की होती है- यह ज्ञातव्य है।
१. मुहूर्तार्ध का अर्थ यहाँ सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त ही जानना चाहिए ।
अध्ययन-३४
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