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१८. सभी जीवों के लिए संग्रहण-योग्य कर्म (-परमाणु, पूर्व-पश्चिम
उत्तर-दक्षिण-ऊपर-नीचे-इन) छहों दिशाओं में स्थित हैं,२८ जो सभी (प्रत्येक जीव के साथ बन्ध होने की स्थिति में, उस कषाय युक्त जीव के) सभी प्रदेशों के साथ, सभी (ज्ञानावरणादि) रूपों
से, बद्ध (एकक्षेत्रावगाढ़) हो जाते हैं। १६. ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का उत्कृष्ट स्थिति-काल तीस
कोटाकोटि२० सागरोपम' तथा जघन्य स्थिति-काल अन्तर्मुहूर्त होता है।
२०. दोनों आवरण-कर्मों (अर्थात् ज्ञानावरणीय व दर्शनावरणीय), तथा
वेदनीय,३२ व अन्तराय कर्म के विषय में भी यह ‘स्थिति' (अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण) बताई गई है।
२१. मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट स्थिति-काल सत्तर-कोटाकोटि
सागरोपम (प्रमाण), तथा जघन्य स्थिति-काल-‘अन्तर्मुहूर्त' (कहा गया) है।
२२. आयु-कर्म का उत्कृष्ट स्थिति-काल तैंतीस सागरोपम, तथा
जघन्य स्थिति-काल अन्तर्मुहूर्त कहा गया है।
२३. नाम (कर्म) व गोत्र (कर्म) का उत्कृष्ट स्थिति-काल बीस
कोटाकोटि सागरोपम, तथा जघन्य स्थिति-काल ‘आठ-मुहूर्त' (किन्तु अशुभ नाम व अशुभ गोत्र का जघन्य स्थिति-काल अन्तर्मुहूर्त) कहा गया है।
अध्ययन-३३
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