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निर्धारण जीव के कषाय-सम्बन्धी परिणामों पर निर्भर होता है। (४) अनुभाग-बन्धजीव-गृहीत कर्म-पुद्गलों में, फल देने की न्यूनाधिक शक्ति का निर्धारित होना 'अनुभाग-बन्ध' है । उक्त तीव्र-मन्द शक्ति के निर्धारण में भी कषायों का योगदान प्रमुख होता है । कषाय-जनित अध्यवसाय के तीव्र परिणाम से बंधे कर्मों का विपाक तीव्र, तथा मन्द परिणामों से बंधे कर्मों का रस/विपाक मन्द होता है । विशेष प्रयत्न से कदाचित् तीव्र रस को मन्द, तथा मन्द को तीव्र बनाया जा सकता है। (विपाक, रस, फल, अनुभाव, अनुभाग-ये सभी शब्द एकार्थक हैं ।) २६. यह कथन द्वीन्द्रिय आदि जीवों को प्रमुखतः उद्दिष्ट कर किया गया है, क्योंकि एकेन्द्रिय जीव कदाचित् तीन दिशाओं से भी कर्मों का संग्रह करता है ।
३०. कोटाकोटि- एक करोड़ की संख्या को एक करोड़ से गुणा कर देने से जो राशि फलित होती है, वह 'कोटाकोटि' है ।
३१. सागरोपम- एक योजन लम्बे-चौड़े कूप को बारीक से बारीक व कोमल केशों से दूंस ठूंस कर भरा जाय। उन केशों में से प्रत्येक केश के अनुभाग के असंख्यात सूक्ष्म खण्ड कर दिए जाएं। उन खंडों में से एक-एक खण्ड को सौ-सौ वर्षों बाद निकाला जाए। उस कूप को खाली होने में जितना समय लगेगा, वह 'पल्य' कहा जाता है। उन पल्यों की १० कोटाकोटि संख्या का एक 'सागरोपम' काल माना जाता है।
३२. वस्तुतः 'सातावेदनीय' की तो जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त की, तथा 'असाता वेदनीय' की जघन्य स्थिति ३/७ सागरोपम प्रमाण मानी गई है।
अध्ययन- ३३
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