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(सू. १२) (प्रश्न-) भन्ते! प्रतिक्रमण (ज्ञान-दर्शन-चारित्र में प्रमाद-वश
लगे दोषों-असंयम, अशुभयोग, आदि पर-स्थानों से प्रतिक्रमित -निवृत्त होने की साधना) से जीव क्या (गुण या
विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है? (उत्तर-) प्रतिक्रमण से (जीव) व्रतों के छिद्रों (अतिचार रूप दोषों) को
ढंकता है (अर्थात् व्रतों को दोषों से बचाता है)। व्रत-छिद्रों को निरुद्ध कर देने वाला (वह) जीव (हिंसा आदि कर्मों के) आस्रव को निरुद्ध कर लेता है, अशबल (दोष-रहित, विशुद्ध) चारित्र वाला हो जाता है, (पांच समितियों व तीन गुप्तियों वाली) आ' प्रवचन-माताओं (की आराधना) में उपयोगयुक्त (सावधान: सचेष्ट) रहता हुआ (संयम विशुद्ध चारित्र से) अपृथक्त्व (एकरस/तल्लीन) हो जाता है तथा सम्यक् समाधि सम्पन्न (व संयमाराधक) होकर (संयममार्ग में) विचरण
करता है। (सू.१३) (प्रश्न-) भन्ते! कायोत्सर्ग (अतिचार-दोषों की निवृत्ति के
लिए शरीर के प्रति ममत्व का शास्त्रोक्त विधि से त्याग कर, स्व-स्वरूप में अवस्थित होने की साधना) से जीव क्या (गुण
या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है? (उत्तर-) कायोत्सर्ग' से. (जीव) अतीत व वर्तमान काल के प्रायश्चित्त
(के योग्य अतिचार रूप दोषों) की विशुद्धि करता है। प्रायश्चित्त (योग्य अतिचार-रूप दोषों) से शुद्ध होकर (वह) जीव (सर पर से) भार को उतार देने वाले भारवाहक की तरह, निवृत्त (स्वस्थ, शान्त, चिन्ता-मक्त व निराकल चित्त वाला हो जाता है, तथा प्रशस्त ध्यान में स्थित/लीन) होकर सुखपूर्वक विचरण करता है।
अध्ययन-२६
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