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है । पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा के द्वारा उन (पापकर्मों) से (वह) निवृत्ति प्राप्त करता है, और तदनन्तर (नरक गति आदि) चार भागों (अन्त) वाले संसार-वन को अतिक्रमण (पार) कर (मुक्त हो जाता है।
(सू. ३४) (प्रश्न-) भन्ते! 'संभोग' (समान सामाचारी वाले साधुओं का एक साथ बैठ कर 'मंडलीबद्धभोजन, अन्य मुनिप्रदत्त आहार का ग्रहण, तथा साधु-साध्वियों के परस्पर आहार-विहार व उपकरणों के आदान-प्रदान आदि व्यवहार) के प्रत्याख्यान (त्याग) से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है ?
(उत्तर-) 'संभोग-प्रत्याख्यान' से जीव (परकीय) अवलम्बन का क्षय (त्याग) कर देता है (स्वावलम्बी बन जाता है)। 'निरवलम्बी' स्वावलम्बी हुए (जीव) के 'योग' (मन-वचन-शरीर के व्यापार) मोक्ष निमित्तक (ही) हुआ करते हैं । (वह) स्वतः प्राप्त (भिक्षा आदि के) लाभ से (ही) संतुष्ट रहा करता है। परकीय लाभ का न (तो वह) उपभोग करता है, न ही (उसकी मन में) कल्पना करता है, न ही स्पृहा करता है, न ही प्रार्थना (याचना) करता है और न ही (उसकी अभिलाषा करता है । दूसरों के (द्वारा अर्जित या दूसरों की सहायता से प्राप्त) लाभ का उपभोग न करता हुआ, उसकी (मन में) कल्पना (भी) न रखता हुआ, उसकी स्पृहा न करता हुआ, उसकी प्रार्थना (याचना) न करता हुआ, तथा उसकी अभिलाषा न रखता हुआ (जीव) द्वितीय 'सुख-शय्या' (स्वलाभ में संतुष्ट रहने तथा परकीय लाभ की मन में कल्पना तक न करने की) साधक (जिनकल्प) अवस्था को अंगीकार कर, विचरण करता है ।
अध्ययन- २६
(सू. ३५) (प्रश्न-) भन्ते! 'उपधि' (रजोहरण व मुखवस्त्रिका को छोड़कर, संयम-साधना में सहयोगी अन्य उपकरणों) के प्रत्याख्यान (त्याग) से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है?
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