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२५. आठ तरह के ‘गोचराग्र' (गोचरी)' सात तरह की एषणाएं
(प्रतिमा या प्रतिज्ञाएं) और अन्य भी जो अभिग्रह होते हैं, (उन सब को) 'भिक्षाचर्या' (नामक बाह्य तप में परिगणित) कहा गया
२६. दूध, दही, घी (एवं गुड़ में पके अन्न/पक्वान्न) आदि का, तथा
'प्रणीत' (स्निग्ध, घी की बहुतायत वाले पुष्टिवर्धक) व रसयुक्त पेय व खाद्य पदार्थों का त्याग ‘रस-परित्याग' (नामक बाह्य) तप कहा गया है।
२७. (साधक) जीव के लिए भविष्य में सुखकारी (सिद्ध होने वाले)
वीरासन आदि उत्कट 'स्थानों' (शारीरिक स्थितियों, आसनों) का जिस प्रकार धारण (सेवन/अनुष्ठान) किया जाता है, वह 'काय-क्लेश' (नामक बाह्य तप) कहा गया है।
२८. एकान्त, अनापात (व्यक्तियों के आवागमन से रहित), तथा
स्त्रियों व पशुओं (आदि) से रहित, शयन (शय्या) व आसन (आदि) का सेवन- 'विविक्त शयनासन' (संलीनता/प्रतिसंलीनता नामक बाह्य तप के चार भेदों में से एक प्रकार का तप) है ।
आठ प्रकार की गोचरी इस प्रकार है- १. पेटा, २. अर्द्धपेटा ३. गोमूत्रिका, ४. पतंगवीथिका, ५. शम्बूकावर्ता, ६. आयतं गत्वा प्रत्यागता, ७. ऋजुगति व ८. वक्रगति । अथवा ऋजुगति व वक्रगति के स्थान पर शम्बूकावर्ता के दो भेद, तथा 'आयतं गत्वा प्रत्यायता' के दो भेद मान कर भी आठ भेद वर्णित किए गए हैं। सात प्रकार की एषणाएं इस प्रकार हैं- १. संसृष्टा (खाद्य सामग्री से लिप्त हाथ या पात्र से भिक्षा लेना), २. असंसृष्टा (अलिप्त, हाथ या पात्र से भिक्षा लेना), ३. उद्धृता (रसोई घर से बाहर लाकर, गृहस्थ द्वारा अपने निमित्त से किसी पात्र में रखे गए भोजन की भिक्षा लेना), ४. अल्पलेपा (अल्प-लेपयुक्त वस्तु-चना, चिड़वा आदि भिक्षा लेना), ५. अवगृहीता (परोसने के लिए मुख्य पाक पात्र से चमचा, शकोरा आदि पात्रों द्वारा निकाले गए या खाने के लिए थाली आदि में परोसे हए आहार की भिक्षा लेना), ६. प्रगृहीता (किसी की परोसने के लिए हाथ में या कडछी आदि में ली हई भोजन-सामग्री की भिक्षा लेना).७. उज्झित
धर्मा (निस्सार/नीरस व त्याज्य/परिष्ठापन-योग्य भोजन की भिक्षा लेना)। ३. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता, कषायप्रतिसंलीनता, योगप्रतिसंलीनता, विविक्तशयनासन । अध्ययन-३०
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