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७७. जो (अरुचिकर स्पर्श में) तीव्र द्वेष भी करता है, वह (प्राणी)
तो उसी क्षण अपने (ही) दुर्दान्त (प्रचण्ड) द्वेष (या दोष) के कारण, 'दुःख' (रूप परिणाम) को प्राप्त करता है। (दुःख पाने वाले) उस (प्राणी) का (वह अरुचिकर) स्पर्श कुछ भी
(किंचिन्मात्र भी) अपराधी नहीं होता। ७८. वह अज्ञानी (हित-अहित के विवेक से शून्य जीव) रुचिकर स्पर्श
में अत्यन्त अनुरक्त हो जाता है, और जो रुचिकर न हो उस (स्पर्श) में द्वेष करता है, एवं (फल-स्वरूप, दोनों ही स्थितियों में वह) दुःखों के समूह (या दुःखमयी पीड़ा) को प्राप्त करता है। (किन्तु) विरक्त मुनि उस (स्पर्श से, या रागादि-जनित दुःखद
परिणाम) से लिप्त नहीं हुआ करता । ७६. क्लिष्ट (राग से ग्रस्त/बाधित) एवं स्वार्थ को ही महत्व देने वाला
(वह) अज्ञानी (जीव रुचिकर) स्पर्श (की प्राप्ति) की आशा में उसका अनुसरण करता हुआ (पीछे भागता हुआ), अनेकविध चर-अचर (त्रस-स्थावर) प्राणियों की हिंसा करता है, और
विविध प्रकारों से उन्हें परिताप देता व पीड़ा पहुंचाता है। ८०. (रुचिकर) स्पर्श के प्रति अनुराग व (ममत्व रूप) परिग्रह (की
वृत्ति) के कारण (किये जाने वाले, और रुचिकर स्पर्श वाले पदार्थ का) उत्पादन/उपार्जन, संरक्षण व सम्यक् उपयोग/उपभोग करते हुए, तथा उसके विनाश व वियोग की स्थिति में उस (प्राणी) को सुख कहां (मिल सकता है)? (उस स्पर्श) का उपयोग करते
समय भी (उस प्राणी को) तृप्ति नहीं मिल पाती। ८१. (रुचिकर) स्पर्श (के उपयोग) से अतृप्त होता हुआ (अज्ञानी
प्राणी) उस (स्पर्श) के परिग्रह में (क्रमशः) आसक्त व अत्यासक्त होता हुआ, कभी संतुष्टि नहीं प्राप्त कर पाता। असन्तुष्टि-दोष के कारण (वह) दुःखी एवं लोभ से व्याकुल होता हुआ, परकीय अदत्त (रुचिर-स्पर्शयुक्त) वस्तु को ग्रहण करने (अर्थात् चुराने) लगता है।
अध्ययन-३२
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